डिजीटल इंडिया के दौर में एेसा है सरबड़ियाड़
‘पलायन एक चिंतन’ टीम के साथ रवांई के ‘सरबड़ियाड़’ क्षेत्र की यात्रा (13-16 जुलाई 2016)
डॉ. अरुण कुकसाल की रिपोर्ट
सरनौल गांव से दोपहर बाद ही आगे चलना हो पाया। सरनौल के कई लोग गांव की सीमा से भी आगे तक छोड़ने आए। लगा, वाकई एक नये लोक में जाने की विदाई हो रही है। तकरीबन 30 होंगे साथ चलने वाले। लाठी या फिर छाता हाथों में और जरूरती सामानों से ठूंसकर फूले बैग सबकी पीठ पर कसे हैं। बादलों की गड़गड़ाहट यह बता रही है कि बारिश होने ही वाली है। मौसम के बिगड़ते मिजाज और आगे की 10 किमी. की विकट पैदल दूरी का ख्याल सबको है।
इसलिए आपसी बातों से ज्यादा तेज चलने में सबकी भलाई है। अभी सीधा और चौड़ा रास्ता है, इसे जल्दी पार कर लेंगे तो रात होने से पहले डिंगाड़ी गांव पहुंच जाएंगे। इस यात्रा के कर्ता-धर्ता रतन सिंह असवाल पीछे रह जाने वाले साथियों को सचेत करते चल रहे हैं। रतन असवाल उत्तराखण्ड के अग्रणी युवा उद्यमियों में हैं। प्रतिष्ठित विदेशी कम्पनी की ऊंचे ओहदे वाली नौकरी से मुक्त होकर वे स्वः उद्मम की ओर अग्रसर हुए।
पहाड़ और पहाड़ियों की मूल चिंता पलायन को चिंतन में बदलकर उसके समाधानों की ओर कैसे बढ़ा जाए ? इस ओर उद्यमी रतन की तरह अन्य क्षेत्रों के रत्न जिसमें वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक, प्रशासक, राजनेता आदि मिल बैठे तो ‘पलायन एक चिंतन’ टीम उभरकर सामने आई। मुख्यतया सीमान्त और विकट इलाकों के जनजीवन की खोज-खबर लेने और शासन-प्रशासन तक उनकी बात पहुंचाने के लिए ‘पलायन एक चिंतन’ टीम निरंतर पद यात्राओं पर रहती है। रतन बताते हैं कि ‘वे अपने साथियों के साथ पहले भी दो बार सरबड़ियाड़ क्षेत्र की यात्रा कर चुके हैं। सांसद प्रदीप टम्टा ‘पलायन एक चिंतन’ टीम की विगत यात्रा रिपाेर्ट से प्रेरित होकर स्वयं हमारे साथ चल रहें हैं। हमारा उद्देश्य हिमालयी जनजीवन की विकटता और वैभव को राष्ट्रीय स्तर तक के नीति-नियंताओं तक पहुंचाने का है ताकि वे भी देश-प्रदेश के विकास के सुनहरे दृश्य की दूसरी ओर की दर्दनाक तस्वीर से वाकिफ हो सकें।’
सरनौल से अब तक का सारा रास्ता हल्की उतराई लिए है। रास्ते के किनारे पत्थर पर थकान विसारने टेक लगाई ही थी कि देखा दोनों पैरों में जूतों पर चढ़कर एक साथ कई जौंके सेवा लगा रही हैं। अभी चले होगें डेढ़-दो किमी. और एक, दो, तीन,…… कुल मिलाकर सात जौंकों का हमला। उन्हें सम्मान के साथ एक-एक करके बाहर किया। रतन बातें करते-करते अचानक तेजी से आगे निकल गए।
अब आगे-पीछे कोई नहीं, मैं निपट अकेला। रास्ते ने एकदम घने जंगल की ओर रुख किया तो मन में थोड़ी हिर्र सी हुई। यह सोचने में वक्त लग गया कि तेज चलकर आगे वालों तक पहुंचू या पीछे वालों का इंतजार करूं। इसी घंगतोल में चलते-चलते आगे के साथी एक साथ दिख पडे़। वीरान जंगली रास्ते के किनारे दुकान। परचून के साथ चाय-पानी और भैजी, दाल-भात भी। दाल-भात की खुश्बू ने मुंह तर कर दिया, भूख जो लगी है। पर खाना पौंटी गांव में होगा, ऐसा कह रहें हैं। जौंकों का प्रकोप अब आगे और ज्यादा होगा। पैरों में जूतों के ऊपर चौड़ी बेल्ट भी बांध ली है। जूतों और बेल्ट पर खूब सारा नमक छिड़का जा रहा है। नमक को पैरों में लगाऊं, मन नहीं मानता। पर जौंक के खौफ से बचने का यही उपाय है। चलने को हुए तो साहब, आपका बैग मैं ले जाता हूं। नहीं भाई, मुझे कोई परेशानी नहीं है पर साथ-साथ चलते हैं। पता लगा पेड काटने के जुर्म में कल ये नौजवान भी पकड़ा गया था। सर गांव का बिशन सिंह है यह। आप लोग नहीं आते तो हम छूट भी नहीं पाते। साहब, मैंने सुना है कि वन विभाग के दो कर्मचारी जो हमको कल पकडने आए थे उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया है। साहब किसी का बुरा नहीं होना चाहिए। वो बेचारे तो अपनी नौकरी कर रहे थे। नहीं, सब ठीक हो जाएगा, मैने कहा तो उसे पूरा यकीन हो गया।
बिशन ने घिसी और टूटी चप्पल पहनी है। इसके लिए कहां गईं जौंकें ? मन हुआ बैग से निकाल कर अपने स्लीपर उसे दे दूं। पर मन स्वार्थी से बड़कर शातिर भी हुआ। रात-बेरात चप्पल की जरूरत पडे़गी। तब क्या करूंगा ? चलो वापसी में इसको ही दे दूंगा। अपने ही मनमाफिक तर्कों से अपने को ही समझा भी रहा हूं। वाह ! रे मेरी दरियादिली, क्या कहने ? मुसीबत में संवेदनाएं सिकुड़ जाती हैं, बल। यह पता तो था आज उसका थोड़ा सा अहसास भी हो गया।
रास्ता जरूरत से ज्यादा चौड़ा होता जा रहा है। बताया गया कि कुछ ही दूर पर टिहरी राजा के जमाने का वन विश्राम गृह है। यह सीधा रास्ता उसी ओर जाता है। तब इसी स्थल पर जंगल से काटे गए पेड़ों का चिरान होता था। (1920-30 के दशक में नरेन्द्रनगर को बसाने के लिए एक तरफ इस इलाके की मजबूत इमारती जंगली पेड़ों को काटा गया। दूसरी तरफ स्थानीय ग्रामीणों को उनके जंगल के बुनियादी हक-हकूकों से बेदखल किया गया।) चौड़ा रास्ता अब एक पतली पगडंडी बन गई है। लगता कि इस बंद जंगल में यह पगडंडी जबरदस्ती घुसने की कोशिश कर रही है। घनघोर जंगल में उजाला तो अब कहनेभर का है। उस पर बारिश की झड़ी से चेहरे पर आई पानी की बूंदें आखों में मिच-मिची लगा रही हैं।
आगे चलने वाले की पदचाप चलने की दिशा तय कर रही है। सन्नाटा केवल मौसम में ही नहीं चलने वालों ने भी चुप्पी ओढ़ ली है। साथ चल रहे विशन से पूछता हूं यहां तो बाघ और भालू भी होगें। उन्होंने कहां जाना है ? यहीं तो रहेगें वे। क्या शानदार जवाब है। मानव एवं पशु के बीच के रिश्तों की अहमियत एक ग्रामीण ही समझ सकता है। 22 साल का विशन पाचंवी पास है। आगे पढ़ने की सुविधा थी नहीं। आंठवी तक का स्कूल तो अभी कुछ ही साल पहले हुआ उसके गांव में। खेती-बाड़ी, भेड-बकरी का काम हुआ उसका। लोक कलाकार के बतौर देहरादून या और जगह वह जाता रहता है। पेड़ काटने के चक्कर में फजीता हुआ, नहीं तो ऊपर बुग्यालों में मजे से अपने भेड़-बकरियों और साथियों के संग रहता। साहब, वहां हम अपने इलाके के नये गीतों और नाचों बनाते हैं।
वैसे हम अक्सर चढ़ाई को कोसते हैं पर लगातार की ऊबड़-खाबड़ उतराई ज्यादा कष्टकारी होती है। घुटनें खचपचा गये। एक पहाड़ की धार में जंगल के खुलते ही बहुत नीचे की ओर किसी नदी/गाड़ का बगड़ दिखाई दिया। हिलोटी खड्ड है यह। गाड़/गधेरे को यहां खड्ड कहा जाता है। गधेरे का इतना चौड़ा फाट। बरसात में तो इसे पार करना संभव नहीं होगा। ‘हां सहाब, बरसात में तो इधर आने की जरूरत ही नहीं होती। बड़ियाड़ के सारे आठों गांवों के रास्ते बंद हो जाते हैं। लोग अपनी जरूरतों का सामान पहले ही जमा कर देते हैं।’ यदि कोई बीमार हुआ या चोट-फटाक लगे तब। ‘ऊपर नीली छतरी वाला है ना’। बिशन आसमान की ओर दोनों हाथ खडे़ करके लापरवाही से बोलता है। बगड़ के दूसरे हिस्से में पहुंचे तो गधेरे के पानी का घुर्याट तीखे ढलान के कारण ज्यादा जोर से सुनाई दे रहा है। पार करने के लिए एक लम्बे, चौड़े और मोटे पूरे पेड़ को साबुत ही गधेरे के आर-पार बडे़-बडे़ पत्थरों के बीच फंसाया गया है।
पानी के तीव्र वेग से आते लगातार पानी के छीटों से लकडी का यह पुल गीला और फिसलन भरा है। लगभग 15 फिट की इस दूरी को ‘साथी हाथ बढ़ाना एक अकेला गिर जायेगा मिलकर पार कराना’ की तर्ज पर ही सभी पार हो पाए। गधेरा पार किया तो एकदम खड़ी चढ़ाई से पाला पड़ा। पत्थरों से बनी तीखीं सीढ़ियों के ऊपर सर-सर बहते पानी ने उस रास्ते को हमारे लिए भयावह बना दिया है। आगे और पीछे से सुरक्षित होने के विश्वास के बाद ही हाथ पकड़-पकड़ कर ऊपर चढ़ पाए हैं।
बारिश ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है। आगे बढ़ना अब तो कठिन होता जा रहा है। चढ़ते हुए रास्ते में पनधारे ही पनधारे। गांव जाने का आम रास्ता यही है। धन्य हैं यहां के लोग। ऐसा कठिन जीवन जीने वाले जीवट ही होगें। साथ चलते हुए महेश कांडपाल बोलते हैं। महेश लघु विद्युत परियोजना के संचालन से जुड़े हैं। इलैक्ट्रिकलं इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद नौकरी का मोह न करके स्वयं के कारोबार को स्थापित करने में वे प्रयत्नशील रहे। विद्युत परियोजनाओं को बनाने और उसके संचालन में उनका व्यापक अनुभव है। इसके लिए वे उत्तर-पूर्व राज्यों तक हो आए हैं। वे जिला पंचायत, बागेश्वर के सदस्य रह चुके हैं। विद्यार्थी जीवन से ही पैदल यात्राओं से उनका वास्ता रहा है। अपने विकास के साथ अपने समाज के लिए कुछ कर सकूं, यही प्रेरणा लिए वे मौका लगते ही लम्बी और दुर्गम पद-यात्राओं में शामिल रहते हैं।
पौंटी गांव आने को है। एक सज्जन ने कहा कि पौंटी गांव इस इलाके का चेरापूंजी है। इसके आस-पास खूब बारिश होती है। मतलब यह है कि ये बारिश बंद नहीं होगी।…………..