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वनों का ह्रास एक तरह से मानवता का ह्रास ही हैः राष्ट्रपति

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने देहरादून में भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षु अधिकारी के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया

देहरादून। न्यूज लाइव

मानव समाज वनों को विस्मृत करने की भूल कर रहा है। वन जीवनदाता हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने बुधवार को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी, देहरादून में भारतीय वन सेवा (2022 बैच) के दीक्षांत समारोह में अधिकारी प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि वास्तविकता यह है कि वनों ने पृथ्वी पर जीवन को संरक्षित किया है।

राष्ट्रपति ने कहा कि आज हम एंथ्रोपोसीन युग की बात करते हैं, जो मानव-केंद्रित विकास का काल है। इस दौरान विकास के साथ-साथ विनाशकारी परिणाम सामने आए हैं। संसाधनों के निरंतर दोहन ने मानवता को एक ऐसे बिंदु पर ला दिया है, जहां विकास के मानकों का पुनर्मूल्यांकन करना होगा।

उन्होंने यह समझने के महत्व पर जोर दिया कि हम पृथ्वी के संसाधनों के मालिक नहीं हैं, बल्कि हम ट्रस्टी हैं। हमारी प्राथमिकताएं मानवशास्त्रीय के साथ-साथ पर्यावरण केंद्रित भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि केवल पारिस्थितिकीय परिवेश से जुड़ने से ही हम वास्तव में मानवशास्त्रीय हो पाएंगे।

राष्ट्रपति ने कहा कि विश्व के अनेक भागों में वन संसाधनों का बहुत तेजी से ह्रास हुआ है। वनों का ह्रास एक तरह से मानवता का ह्रास ही है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पृथ्वी की जैव विविधता और प्राकृतिक सौंदर्य का संरक्षण एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है जिसे हमें शीघ्रता से करना है।

राष्ट्रपति ने कहा कि वनों और वन्यजीवों के संरक्षण और संवर्धन के माध्यम से मानव जीवन को संकट से बचाया जा सकता है। हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मदद से तेजी से नुकसान की भरपाई कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, मियावाकी पद्धति को कई स्थानों पर अपनाया जा रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वनीकरण और क्षेत्र विशिष्ट वृक्ष प्रजातियों के लिए उपयुक्त क्षेत्रों की पहचान करने में मदद कर सकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे विभिन्न विकल्पों का आकलन करने और भारत की भौगोलिक परिस्थितियों के लिए उपयुक्त समाधान विकसित करने की आवश्यकता है।

राष्ट्रपति ने कहा कि विकास के रथ के दो पहिए होते हैं- परंपरा और आधुनिकता। आज मानव समाज कई पर्यावरणीय समस्याओं का खामियाजा भुगत रहा है। इसका एक मुख्य कारण एक विशेष प्रकार की आधुनिकता है, जिसका मूल प्रकृति का शोषण है। इस प्रक्रिया में पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा की जाती है।

राष्ट्रपति ने कहा कि आदिवासी समाज ने प्रकृति के शाश्वत नियमों को अपने जीवन का आधार बनाया है। इस समाज के लोग प्रकृति का संरक्षण करते हैं। लेकिन, असंतुलित आधुनिकता के आवेग में कुछ लोग आदिवासी समुदाय और उनके सामूहिक ज्ञान को आदिम मानते हैं। जलवायु परिवर्तन में आदिवासी समाज की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन इसके दुष्प्रभावों का बोझ उन पर अधिक है।

राष्ट्रपति ने कहा कि सदियों से आदिवासी समाज द्वारा संचित ज्ञान के महत्व को समझना और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए इसका उपयोग करना बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि उनका सामूहिक ज्ञान हमें पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ, नैतिक रूप से वांछनीय और सामाजिक रूप से उचित मार्ग पर आगे बढ़ने में मदद कर सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हमें कई गलत धारणाओं को दूर करना होगा और आदिवासी समाज की संतुलित जीवन शैली के आदर्शों से सीखना होगा। हमें पर्यावरण न्याय की भावना के साथ आगे बढ़ना है।

राष्ट्रपति ने कहा कि 18वीं और 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति ने इमारती लकड़ी तथा अन्य वन उत्पादों की मांग बढ़ाई है। मांग का सामना करने के लिए नए नियमों, विनियमों और वन उपयोग के तरीकों को अपनाया गया। ऐसे नियमों और विनियमों को लागू करने के लिए, भारतीय वन सेवा की पूर्ववर्ती सेवा, इंपीरियल वन सेवा का गठन किया गया था। उस सेवा का अधिदेश जनजातीय समाज और वन सम्पदा की रक्षा करना नहीं था। उनका जनादेश भारत के वन संसाधनों का अधिकतम दोहन करके ब्रिटिश राज के उद्देश्यों को बढ़ावा देना था।

ब्रिटिश काल के दौरान जंगली जानवरों के सामूहिक शिकार का उल्लेख करते हुए, राष्ट्रपति ने कहा कि जब वह संग्रहालयों का दौरा करती हैं जहां जानवरों की खाल या कटे हुए सिर दीवारों पर सजे होते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे वस्तुएं मानव सभ्यता के पतन की कहानी कह रही हैं।

राष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि भारतीय वन सेवा के अधिकारी औपनिवेशिक मानसिकता और पूर्व शाही वन सेवा के दृष्टिकोण से पूरी तरह मुक्त हो गए हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को न केवल भारत के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्धन करना है, बल्कि मानवता के हित में पारंपरिक ज्ञान का उपयोग भी करना है। उन्हें आधुनिकता और परंपरा को समकालीन करके और वनवासियों के हितों को आगे बढ़ाकर वन संपदा की रक्षा करनी होगी जिनका जीवन वनों पर आधारित है। ऐसा करने से, वे एक ऐसा योगदान देने में सक्षम होंगे जो वास्तव में समावेशी और पर्यावरण के अनुकूल हो।

राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय वन सेवा ने देश को अनेक अधिकारी दिए हैं जिन्होंने पर्यावरण के लिए अद्वितीय कार्य किए हैं। श्री पी. श्रीनिवास, श्री संजय कुमार सिंह, श्री एस. मणिकंदन जैसे भारतीय वन सेवा के अधिकारियों ने कर्तव्य की पंक्ति में अपने जीवन का बलिदान दिया है। उन्होंने अधिकारी प्रशिक्षुओं से आग्रह किया कि वे ऐसे अधिकारियों को अपना आदर्श और मार्गदर्शक बनाएं और उनके द्वारा दिखाए गए आदर्शों पर आगे बढ़ें।

राष्ट्रपति ने आईएफएस अधिकारियों से आग्रह किया कि वे जनजातीय लोगों के बीच समय बिताएं और उनका स्नेह और विश्वास अर्जित करें। उन्होंने कहा कि उन्हें आदिवासी समाज की अच्छी प्रथाओं से सीखना चाहिए। उन्होंने उनसे अपनी जिम्मेदारियों का स्वामित्व लेने और एक रोल मॉडल बनने का भी आग्रह किया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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