राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
मुझे याद है, जब मेरे पापा ने साइकिल खरीदी थी। घर पहुंची साइकिल को देखकर सभी बहुत खुश थे। पर, इस बड़ी और मजबूत साइकिल को देखकर ही मैंने अंदाजा लगा लिया था कि इसको चलाना मेरे बस की बात नहीं। मैं तो स्टैंड पर खड़ी साइकिल के पैडल चला सकता था, वो भी हाथ से। ऐसा मैंने कई बार किया और मेरे लिए पिछले पहिये को घूमते देखने का आनंद ही कुछ और था। यह ठीक किसी मेले में लगे बड़े से गोलाकार झूले जैसा इमेजन होता था।
साइकिल की सवारी तो मैंने करनी थी, कैरियर पर बैठ गद्दी को कसकर पकड़कर बैठना, ठीक उस तरह था, जैसे कोई झूला झूल रहा है। पापा ने महसूस किया कि यह कहीं गिर न जाए। वहीं मेरे पैर पिछले पहिये में फंसने का डर हमेशा बना रहता। इसलिए उन्होंने मेरे लिए साइकिल के डंडे पर छोटी सी गद्दी लगवा दी। अब मैं साइकिल के हैंडिल को कसकर पकड़ गद्दी पर बैठकर सवारी करता। यहां कोई जोखिम नहीं था।
मैं यही कोई चार या पांच साल का होगा और उस समय हम बच्चों के लिए छोटी साइकिलें कम लोग ही खरीदते होंगे। परिवहन के प्रमुख निजी साधनों में साइकिल भी शामिल थी। सार्वजनिक परिवहन में लोकल से लेकर दूर तक की यात्रा के लिए रोडवेज की बस, भाप से चलने वालीं छुक छुक रेलगाड़ियां ही होती थीं। हवाई जहाज की तो हम निम्न मध्यम वर्गीय परिवार सोच भी नहीं सकते थे, अगर दिख जाए तो बहुत अच्छा लगता था।
जहां इन दिनों देहरादून एयरपोर्ट है, वहीं थोड़ा दूर या पास, एक हवाई पट्टी होती थी, जिस पर दिल्ली से हवाई जहाज आता था। यह हवाई पट्टी ठीक ऋषिकेश रोड के समानांतर थी। टाइमिंग सही हो तो ऋषिकेश जाते समय यहां खड़ा हवाई जहाज देखा जा सकता था।
मुझे याद है कि हवाई जहाज आने से करीब आधा घंटा पहले एक अग्निशमन वाहन डोईवाला थाने से हवाई पट्टी पर पहुंच जाता था। जहाज जाने के बाद यह वाहन फिर थाने पर आकर खड़ा हो जाता था। अग्निशमन दल थाने पर ही तैनात रहता था।
आपको याद होगा, डोईवाला थाना पहले प्रेमनगर बाजार की एक बड़ी बिल्डिंग में था। इस बिल्डिंग के सामने शिवजी का मंदिर है, जहां एक पुराना कुआं और पिलखन का विशाल पेड़ है। हम बच्चे यहीं खेलते रहते थे। हमारी पूरी दोपहर यहीं गुजरती थी।
अग्निशमन दल के दारोगा जी, हम बच्चों को बड़ा स्नेह करते थे। उन्होंने हमसे पूछा क्या तुमने हवाई जहाज देखना है। हमने तुरन्त हां कर दी। क्योंकि हमने हवाई जहाज को कभी पास से नहीं देखा था, उसे तो हमेशा आसमां पर ही देखते थे।
दूसरे दिन, उन्होंने हमें फायर ब्रिगेड वाली गाड़ी में बैठाया और चल दिए हवाई पट्टी की ओर। डोईवाला बाजार में टन-टन-टन… की आवाज करती फायर ब्रिगेड की सवारी किस को नहीं लुभाएगी, हमें बहुत आनंद आया।
लगता है, उस दिन हम वीआईपी हो गए थे। उन्होंने हमें हवाई पट्टी से थोड़ा दूरी पर खड़ा किया और हिदायत दी कि यहां से कहीं मत जाना। सच मानो, उस दिन मैंने पहली वार हवाई जहाज को इतना नजदीक से देखा था।
आप भी कहोगे, फिर भटक गए, साइकिल से हवाई जहाज के सफर पर पहुंच गए। तो भैया, दुनिया भी ऐसा ही कर रही है, मैं कोई दुनिया से अलग हूं।
हम सभी को साइकिल आज भी पसंद है, पर क्या करें वक्त साइकिल की रफ्तार को पीछे छोड़ रहा है। आप पूछोगे कि वक्त तो आज भी उसी गति पर है, जैसे सैकड़ों साल पहले था।
आज भी वैसे ही चलता है यानी एक मिनट में 60 सेकेंड। सेकेंड भी वहीं हैं। तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पहले हमारी जरूरतें उतनी नहीं थी, जितनी आज हैं। जरूरतें कभी पूरी नहीं होतीं, यह तो अंतहीन हैं। हम इनके पीछे दौड़ रहे हैं, दौ़ड़ते रहेंगे, दौड़ते रहेंगे, तब तक दौड़ेंगे, जब तक कि इनको हासिल न कर लें। एक जरूरत पर विजय पाएंगे, तो दूसरी रिझाएगी, दूसरी को पा लेेंगे तो तीसरी रिझाएगी…दौड़ने का सिलसिला चौथी, पांचवीं. छठीं, सातवीं… अनंत की ओर तब तक जारी रहेगा, जब तक कि हम दौड़ना बंद न कर दें। जीवित रहते हुए तोयह दौड़ कभी खत्म नहीं होेने वाली, यहां साइकिल से नहीं बल्कि जेट वाली स्पीड से भी काम नहीं चलेगा।
आज साइकिल की जरूरत तो बच्चों और कुछ लोगों को ही है, जिनका काम केवल पढ़ना है या फिर खेल कूदना या फिर बेफिक्र होकर घूमना। साइकिल पर चलना मतलब किसी काम की कोई जल्दी नहीं है या फिर समय से पहले घर से चलो और समय पर अपने डेस्टिनेशन पर पहुंचो।
घऱ से थोड़ा दूर बाजार के काम निपटाओ, दोस्तों से मिलने जाओ, सुबह-शाम वॉक करके सेहत अच्छी करो, साइकिलें लेकर दोस्तों के साथ निकल पड़ो प्रकृति के सौंदर्य को देखने के लिए, दफ्तर घर से थोड़ा दूर है तो साइकिल से जाओ…।
आपके आसपास क्या हो रहा है, आप जिस रास्ते से होकर कहीं आते- जाते हो, वहां देखो क्या कुछ नया हुआ है, पहले स्पीड वाली कार और बाइक से आते-जाते, जो कुछ नया नहीं देखा, उसको पैडल चलाते हुए धीमी गति वाली साइकिल से देखो।
स्पीड के जमाने में स्लो मोशन, आपको अटपटा लगेगा, पर जब भी समय हो या समय निकालकर स्लो हो जाओ। बदलती दुनिया का दीदार करो। सच मानिए, स्लो मोशन आपके अपने आसपास की आर्थिक गतिविधियां दिखाएगा, सामाजिक परिवर्तन को बताएगा, बदलते ट्रेंड के दर्शन कराएगा, कहीं खुशी तो कहीं गम से मिलाएगा, यहां कहीं चमक दिखेगी तो कहीं फीकापन तो कहीं आप देखोगे कि वर्षों बाद भी कुछ नहीं बदला, पर कहीं आप कहोगे, यहां तो सबकुछ बदल गया।
मुझे याद है, मेरे बड़े भाई ने स्कूल के पास की एक दुकान से 50 पैसे प्रति घंटा किराये पर साइकिल लेकर चलाई। पहले साइकिलें किराये पर मिलती थीं। एक घंटा मतलब समझ गए न, क्लास से बंक करके। ये 50 पैसे भी चीज खाने के लिए मिलते थे कभी कभार। भाई को बाजार से चीज खाने का शौक नहीं था, इसलिए उस पैसे को साइकिल की सवारी में इन्वेस्ट किया।
मैं तो साइकिल चला नहीं पाता था, इसलिए घर पर भाई की शिकायत कर दी। फिर क्या साइकिल की सवारी में इन्वेस्टमेंट पर रोक लग गई। हमारे घर पर कोई साइकिल से आता तो भाई की खुशी चेहरे पर दिखती। चुपके से उनकी साइकिल पर गली का एक चक्कर लगाना तो बनता था।
मैंने भी साइकिल चलाने की शुरुआत कैंची से की। कैंची यानी एक हाथ से साइकिल का डंडा पकड़ना और दूसरे से हैंडिल को। कैंची में सड़क पर पूरा ध्यान रखना होता है और पैडल को कभी क्लॉक वाइज और कभी एंटी क्लॉक घुमाना होता है। यह प्रयोग केवल मोहल्ले की गली में हो सकता था या फिर खाली मैदान में।
कई बार सड़क पर गिरा, घुटने छिल गए। पर हम हिम्मत नहीं हारने वाले थे, हम सीखकर ही दम लेंगे, ऐसा हमने तय कर लिया था। हाथ पैर छिल जाएं, पर साइकिल को नुकसान नहीं होना चाहिए, इस बात का पूरा ध्यान था, क्योंकि साइकिलें या तो टपाई हुई होती थीं या फिर उधार की।
एक बात और, मोहल्ले में हमारी उम्र के ही कुछ बच्चे, साइकिल चलाने में एक्सपर्ट माने जाते थे, वो हमें कैंची से लेकर गद्दी पर बैठकर साइकिल सिखाने तक का दम भरते थे। हमारी साइकिल सीखने की ट्रेनिंग के दौरान वो पीछे पीछे दौड़ते हुए सीधे चलाओ, पैडल घुमाओ, हैंडल ढंग से पकड़ो, इधर-उधर मत देखो, सामने गड्ढा है देखकर चलो… जैसे इंस्ट्रक्शन देते थे।
मैंने डिग्री कालेज की पढ़ाई तक साइकिल खूब चलाई। ट्यूशन पढ़ने और पढ़ाने के लिए साइकिल से जाता था। मैंने अपनी साइकिल से कस्बे की सभी गलियों को नापा है। अपने आसपास के गांवों को घूमा है। बचपन से युवावस्था तक साइकिल चलाने में कभी थकान महसूस नहीं की। साइकिल मुझे बहुत प्यारी थी। नौकरी के सिलसिले में जब घर से दूर जाना पड़ा तो साइकिल की जरूरत कम ही महसूस करता।
जीवन को आगे बढ़ाने के लिए मैं जिस स्पीड को जरूरी समझ रहा था, उसमें मेरी साइकिल फिट नहीं हो पा रही थी, ऐसा मेरा मानना था। इस स्पीड में अपने आसपास होते बदलाव को नहीं देख पाया। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मैं स्वयं को भी नहीं समझ पाया। मैंने स्पीड बढ़ाकर सबकुछ पाने के चक्कर में वो सबकुछ या इनमें से कुछ को खो दिया, जिनकी अपने अस्तित्व के लिए मुझे बहुत जरूरत थी- वो है सेहत, सुकून, शांति, संयम, समझ, संवेदना, सहयोग, सहजता, संस्कार, सहृदयता, शक्ति चाहे मन की या तन की या और भी बहुत कुछ, जो भी आपकी समझ में आए।
आज वर्षों बाद फिर से उस साइकिल को याद कर रहा हूं, जो मुझे ये सबकुछ सीखा सकती थी, वो भी बिना की हड़बड़ी और बेसब्री के।
Keywords:- Best Bicycle, Cycle shops in Uttarakhand, Best Cycle Brands, Gear system in Cycle, Specification of Best cycle, How to purchase best cycle, Top 10 cycle brands, cycle for kids, Kids shops, History of Cycle, Origin of cycle, भारत में साइकिल का इतिहास, दुनिया के दस प्रमुख साइकिल ब्रांड, साइकिल की खरीदारी के समय किन बातों का ध्यान रखें, साइकिल स्वास्थ्य के लिए क्यों जरूरी, साइकिल चलाने के फायदे, साइकिल चलाने के नियम, साइकिल की सवारी, साइकिल की कहानी, बच्चों की साइकिल, साइकिलों की कीमत, सबसे महंगी साइकिल,The most expensive bicycle