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90 साल के मेहनतकश बुजुर्ग से सुनी डोईवाला की वर्षों पुरानी कहानी

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग

बुजुर्ग राम सिंह, जिनको सभी लोग मास्टर जी के नाम से पुकारते हैं, डोईवाला (Doiwala) की इंदिरा कॉलोनी में रहते हैं। इंदिरा कॉलोनी ऋषिकेश रोड से राजीव नगर- केशवपुरी जाते हुए सबसे पहले पड़ने वाले मोहल्ले का नाम है।

राम सिंह अपनी उम्र 90 वर्ष बताते हैं, मैं तो यह कहूंगा कि उनके पास 90 वर्ष के अनुभवों का खजाना है। हाट मैदान के पास डुगडुगी स्कूल (Dug Dugi School) से निकलते ही उनको बड़ी टोकरियां बनाते हुए देखा। टोकरियां बनाने का कच्चा माल, शहतूत की डंडिया उनके पास रखी थीं। बड़ी मेहनत से इन डंडियों को जुटाया है। इनको पाठल से छीलकर टोकरियां बनाने के लिए तैयार करना वास्तव में बड़ी मेहनत और सावधानी का काम है।

बताते हैं, वर्षों से यह काम कर रहे हैं, उनके पिता भी टोकरियां बनाते थे। पिता से ही काम सीखा। वैसे, उन्होंने कई वर्षों तक बैंड टीम में काम किया। वो छोटा बैंड बजाते थे। तभी से उनको लोग मास्टरजी के नाम से जानते हैं।

जब मैं उनसे बात कर रहा था, कई लोग मास्टर जी नमस्कार… कहते हुए वहां से गए। बताते हैं, एक दिन में दो टोकरी ही बना पाते हैं। पूरा दिन तो डंडियां इकट्ठी करने में निकल जाता है। ये टोकरियां शादी विवाह या मिठाइयों की दुकानों में पकवान रखने, सामान ढोने में इस्तेमाल होती हैं। खेती, पशुपालन में भी इनका प्रयोग होता है। कहते हैं, वो तो अच्छा है कि डोईवाला और आसपास शहतूत के पेड़ अभी भी मौजूद हैं। वैसे यहां कभी शहतूत के बहुत सारे पेड़ होते थे।

शहतूत की पत्तियां रेशम के कीटों को खिलाई जाती हैं। डोईवाला और आसपास के गांवों में रेशम के कीट पालना, कई परिवारों की आजीविका का जरिया था। मुझे तो लगता है कि रेशम माजरी नाम भी कहीं रेशम उद्योग की वजह से तो नहीं पड़ा। खैर, इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी तो नहीं है।

हां, मैंने सुना है कि डोईवाला नाम कैसे पड़ा। किसी ने बताया था कि अंग्रेजों के जमाने में यहां मिस्टर डोई रहते थे। वो रेशम का उद्योग चलाते थे। इस क्षेत्र में मिस्टर डोई काफी प्रसिद्ध थे, इसलिए यहां का नाम डोईवाला पड़ गया। पर, मेरे पास इस बात को सही मानने की कोई वजह नहीं है। मैं तो बस, इतना जानता हूं कि डोईवाला नाम की एक और जगह है। हरियाणा के यमुनानगर जिले की छछरौली तहसील में डोईवाला नाम का एक गांव है।

बुजुर्ग राम सिंह, जिनकी उम्र 90 वर्ष है, शहतूत की डंडियों की टोकरियां बनाते हैं। राम सिंह आत्मनिर्भर हैं और प्रेरणास्रोत भी। फोटो- डुगडुगी

खैर, हम बात कर रहे थे राम सिंह जी से। राम सिंह पूरा दिन मेहनत करके दो टोकरियां बना लेते हैं। एक टोकरी की कीमत है 150 रुपये, यानी रोजाना 300 रुपये मिल जाते हैं। कहते हैं, कभी एक टोकरी भी नहीं बिकती और बिकने को चार-चार बिक जाती हैं। एक दिन तो चार टोकरियों के लिए डंडियां जुटाने में ही लग जाता है। यह उनके श्रम का पूरा मूल्य तो नहीं है, पर वो आत्मनिर्भर हैं।

मैंने देखा, राम सिंह टोकरी बनाने के लिए शहतूत की छीली हुई डंडियों का गोल आकार में बेस बनाते हैं। जरा सी पकड़ ढीली होने का मतलब है कि डंडियां छिटक कर हाथ से छूट जाएं। पूरी ताकत लगाकर डंडियों को कसना होता है। बताते हैं, डंडियां छीलते समय चोट लगने का खतरा रहता है।

90 साल के आत्मनिर्भर बुजुर्ग से मुलाकात में अतीत के पन्नों को न पलटा जाए, ऐसा नहीं हो सकता। वो बताते हैं, उनका जन्म डोईवाला में हुआ। डोईवाला में रास्ता नहीं था। जहां इन दिनों डोईवाला का चौराहा है, वहां गूलर के पेड़ खड़े थे। हरियाली बहुत थी।

दुकानें भी बहुत कम थीं। कच्ची दुकानें होती थीं। ऋषिकेश जाने के लिए तो रास्ता ही नहीं था। हरिद्वार वाले कच्चे रास्ते से होकर ही ऋषिकेश जाते थे। यहां से अकेले जाने में डर लगता था।

सौंगनदी पर स्लीपर यानी लकड़ियों का पुल था। बताते हैं, पक्का पुल कब बना, पुराने खंडहर हो चुके पुल पर उसकी तारीख लिखी होगी। नदी में पानी ज्यादा होने पर उनके पिता लोगों को पुल पार करने में मदद करते थे।

देहरादून, हरिद्वार जाने के लिए बैलगाड़ियां या इक्का दुक्का छोटी बसें होती थीं। घमंडपुर के राजा और सेठ सुमेरचंद जी की गाड़ियां चलती थीं। देहरादून बैलगाड़ियों से अनाज मंडी ले जाते थे। काफी लोग साइकिलों पर भी देहरादून जाते थे। पत्थर बिछाकर कच्चा रास्ता बनाया गया था।

बताते हैं, डोईवाला का मिल रोड, आज की तरह घना नहीं था। यहां गांवों से लाए गए मक्के की मंडी सजती थीं। चीनी मिल उस समय सेठ माधो लाल हवेलिया जी की होती थी। बहुत छोटी मिल थी यहां। उन्होंने बताया, जहां इन दिनों कोतवाली है, वहां अमरुद का बाग होता था, जिसमें उन्होंने काम किया।

बुजुर्ग राम सिंह कहते हैं, उनके पुराने दोस्त अब नहीं रहे। बताते हैं, उनका स्कूल लच्छीवाला में था, जो आज भी है। लच्छीवाला का प्राइमरी स्कूल बहुत पहले का है। डोईवाला रेलवे स्टेशन भी बहुत पुराना है। डोईवाला बाजार से होकर एक नहर जाती थी। अब नहर तो रही नहीं, इसमें घरों, दुकानों से निकला नालियों का गंदा पानी बहता है।

बताते हैं, जब पुराने डोईवाला की यादें ताजा होती हैं तो पुराने दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं। पुराना समय आज से ज्यादा अच्छा था।

 

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राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन कर रहे हैं। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते हैं। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन करते हैं।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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