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स्कूल यूनीफार्म में शादी की दावत और डांस की दीवानगी

बचपन की बातेंः जहां तक गाना सुनाई दे, वहां तक होता था हमारा डांस फ्लोर

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

बचपन में मुझे शादियों की दावत में जाने का शौक था। मैं घर पर शादियों के कार्ड आने का इंतजार करता था। यही हाल मेरे बेटे का है, वो भी मेरी तरह शादियों के कार्ड संभालकर रखता है और बताता रहता है कि आज वहां शादी है और कल वहां। विवाह समारोह में शामिल होने की उसकी लालसा को मैं अच्छी तरह समझ सकता हूं, क्योंकि मैं भी उस दौर से होकर गुजरा हूं।

क्या बच्चे शादी समारोह में दावत का लुत्फ उठाना चाहते हैं या फिर वो समझते हैं कि जिन्होंने आपको समारोह में आमंत्रित किया है, वो आपको अपनी खुशियों में शामिल करना चाहते हैं, इसलिए आपको उनका मान रखना चाहिए। मुझे मालूम है कि बच्चे बड़ों से ज्यादा मिलनसार होते हैं। वैसे अपनी बात बताऊं, मैं तो शादी की दावत का लुत्फ उठाने जाता था। बचपन में मैंने शादियों में वेडिंग प्वाइंट और आज जैसी सजावट नहीं देखी। उस समय तो शादियां घर के आंगन में या छतों पर या फिर खाली मैदान में पंडाल लगाकर संपन्न हो जाती थीं। टैंट वाले एक खास तरह के डिजाइन वाला शामियाना और गेट लगाते थे। रात में शादी स्थल को लड़ियों से सजाया जाता था। दिन में लड़ियों का काम बंदनवार करती थीं। अब तो बंदनवार भी डिजाइनर हो गईं, पहले रंगीन कागजों को तिकोने में काटकर सुतलियों पर चिपकाकर बंदनवार बना दी जाती थीं।

एक बात सुनकर तो आपको हंसी आएगी। आजकल के बच्चे इस बात पर विश्वास ही नहीं करेंगे। मेरे पड़ोस में शादी की दावत थी और मैं स्कूल के इंटरवल में खाना खाने के लिए सीधे दावत में पहुंच गया, वो भी स्कूल की यूनीफार्म में। मैंने ही क्या मेरे साथ के और बच्चों ने भी स्कूल की यूनीफार्म में शादियों की दावत का लुत्फ उठाया है। सभी जान रहे थे कि बच्चा सीधा स्कूल से आया है और यहां से सीधे स्कूल चला जाएगा। लोग भले ही यह सोच रहे होंगे, पर मेरे दिमाग में यह बात नहीं थी कि कौन क्या कह रहा है।

अधिकतर शादियों में मैंने पंक्तियों में बैठकर पत्तलों पर परोसा भोजन चखा है। बड़ा मजा आता था, हम लोग शादी वाले घरों के काम में भी हाथ बंटाते थे। कुछ नहीं मिला तो दावत में पानी ही पिला दिया। पूड़ियां बांट दीं। उस समय वेडिंग प्वाइंट का चलन नहीं था। एक समय ऐसा भी आया, जब हम सुनते थे कि वहां तो स्टैंडिंग खाना था। इस शब्द का सही अर्थ तो मैं नहीं समझ पाया, पर इतना समझ गया कि वहां पर खाना आपके पास आकर नहीं परोसा जाता, आपको व्यंजनों के स्टाल पर जाकर अपनी प्लेट में खाना स्वयं लेना है। आप अपने आसपास रखी कुर्सियों पर अपना खाना लेकर बैठ सकते हैं। अगर, आपका मन नहीं है तो आप खड़े होकर भी खाना खा सकते हैं।

अब तो घरों के पास मैदान नहीं हैं और न ही घरों की छतों पर शादी समारोह के लिए जुटाए जाने वाले तमाम तामझाम के लिए जगह हो पाती है। ऐसे में अब अधिकतर शादियां वेडिंग प्वाइंट में हो रही हैं। यहां जगह की कोई कमी नहीं है। शानदार सजावट वाले स्टेज, लाइट्स और डीजे का पूरा इंतजाम हो रहा है। हमारे बचपन के समय तो डांस करने के लिए डीजे और लाइट में चमकने वाले फ्लोर नहीं होते थे, इसलिए हम तो कहीं भी नाच लेते थे, बस गाना सुनाई देना चाहिए। समझ गए ना, जहां तक गाना सुनाई दे, वहां तक होता था हमारा डांस फ्लोर।

दिन की बारात में कोई ज्यादा इंतजाम नहीं होते थे, पर रात को बारात निकालने के लिए रोशनी की बहुत जरूरत होती थी। मैंने रात की बारात को पेट्रोमैक्स के सहारे आगे बढ़ते देखा है, जिसमें एक गैस मेंटल लगा होता था, का इस्तेमाल किया जाता था। पेट्रोमैक्स कैरोसिन( मिट्टी का तेल) से रोशनी देता था। कुछ युवा इनके सहारे बारात को रोशनी दिखाते थे। लाउडस्पीकर पर गायक बारात के गाने गाता है और गीतों को बैंडबाजों की धुनों से सजाया जाता है। बैंड बाजा यानी चलता फिरता आर्केस्ट्रा।  बारात का एक गाना बहुत मशहूर है… आज मेरे यार की शादी है…।

रही बात फोटोग्राफी की, तो वो उस परिवार के लोगों की ही होती थी, जिनके यहां शादी होती थी। शादी वाले परिवार का एक व्यक्ति कैमरामैन को यह बताने के लिए उसके साथ होता था कि किसकी फोटो खींचनी है और किसकी नहीं। यह काम वह इशारे में करता था। कैमरामैन भी बहुत समझदारी से लोगों को केवल फ्लैश चमकाकर खुश करते थे। क्योंकि वो जमाना रील का था, आज की तरह डिजीटल का नहीं कि कितनी भी फोटो खींच लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। फोटो रील महंगी आती थीं और फोटो खींचने के तुरंत बाद आप नहीं देख पाते थे कि क्या खींचा है। फोटो का पता तो नैगेटिव बनने के बाद चलता था। नैगेटिव देखकर ही बताया जाता था कि किस फोटो को बनाना है और किसको नहीं।

अब तो दूर कहीं देश विदेश में बैठकर ही रिश्तेदार शादी समारोह का लाइव देख सकते हैं। फोटो तो एक क्लिक पर दुनियाजहां में शो कर दो। दुनिया में हो रहे बड़े बदलाव के साक्षी हैं हम। जब तकनीकी का कमाल नहीं था, तब हमारा जीवन कैसा था और अब जब तकनीकी कमाल कर रही है तो हमारा जीवन कैसा है, को हमसे अच्छा कौन जान सकता है।

हां, एक बात और, शादी समारोह में जाने से आपको बहुत सारे ऐसे परिचित मिल जाते हैं, जिनसे आपकी मुलाकात कम ही होती है। वैसे इस भागदौड़ की जिंदगी में किसी के पास समय ही नहीं है कि केवल मुलाकात करने भर के लिए किसी के घर जाए। अब तो बिना मतलब कोई किसी से फोन पर बात नहीं करता। कहते हैं कि फुर्सत किसके पास है।

हां, तो मैं बचपन में शादी समारोह में शामिल होने की बात कर रहा था। हमने शादियों में जमकर डांस किया। हम इस बात से पूरी तरह बेपरवाह थे कि कोई यह कह रहा होगा कि इसको डांस करना तो नहीं आता, यूं ही ठुमके लगा रहा है। पहले कहीं दूर शहर से आई बारात के स्वागत के अच्छे खासे इंतजाम होते थे। बारातियों के ठहरने का इंतजाम किसी विद्यालय भवन, पंचायत घर में किया जाता था। कहीं कहीं तो पड़ोसी बारातियों के लिए अपने एक-दो कमरे खाली कर देते थे। कहते थे, एक दिन की तो बात है, बारातियों कौन सा रोज रोज आते हैं। नजदीकी शहर से आने वाली बारात तो दावत के बाद वापस लौट जाती थी।

बारात में जो लोग रात को रुकते थे, उनको फिल्में दिखाने के लिए वीसीआर (वीडियो कैसेट रिकार्डर) पर फिल्में दिखाई जाती थीं। एक रात में तीन या चार फिल्में दिखा दी जाती थीं। हम बच्चे जो घरातियों में शामिल थे, भी एक या दो फिल्में देख लेते थे। उस दौर में हम बच्चे वीसीआर वालों का बहुत सम्मान करते थे, वो साइकिल पर कलर टीवी, वीसीआर और कुछ कैसेट्स के साथ आते थे। पूरी रात चार फिल्में दिखाने के लिए यही कोई 120 या 150 रुपये लिया करते थे। नई पुरानी सभी फिल्में ऑन डिमांड मिल जाती थीं।

मेरा तो बस इतना ही कहना है कि आपको कोई आमंत्रित करता है तो शादी समारोह में जरूर जाइएगा। बच्चों को जरूर लेकर जाना, क्योंकि समारोह का बच्चे सबसे ज्यादा लुत्फ उठाते हैं और उनको सामाजिक कार्यों में भागीदारी का मौका मिलता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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