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मैंने तो मैनेजर को पत्रकारों के इंटरव्यू लेते देखा है

अखबार में मैनेजमेंट बड़ा या फिर एडिटोरियल

अखबार में कौन बड़ा है, मैनेजर या फिर संपादक। यह बात केवल अखबारों में काम करने वाले जानते हैं। किसी अखबार के बारे में कहा जाता है कि यहां संपादकीय का जोर है और किसी में कहा जाता है यहां मैनेजरों की चलती है। अखबार तो समाचारों के लिए बिकता है तो यहां संपादक और उनकी टीम महत्वपूर्ण होनी चाहिए। पर, क्या असल में ऐसा है।

छोड़िए, इन बातों को, क्योंकि इन पर चर्चा करने से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। अखबारों में पहले विज्ञापनों को विराजमान किया जाता है और जगह बचे तो खबरों को। हमें इस बात पर बिल्कुल भी ऐतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम जानते हैं कि अधिकतर अखबार पूर्ण रूप से व्यावसायिक गतिविधि बन गए हैं। बुरा इसलिए भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि अखबारों को बड़े स्तर पर निकालने के लिए भारी भरकम खर्च होते हैं।

कहीं कहीं अखबारों में एडिटोरियल के कुछ लोग मैनेजरों की परिक्रमा भी करते हैं। वहां बड़े मैनेजर का खास होने का मतलब है कि संपादकीय के साथियों के साथ फुल पॉलिटिक्स। काम करो या न करो, पर बड़े मैनेजर को सूचनाएं देते रहो। बड़े मैनेजर, जिनको संपादकीय की एबीसीडी नहीं मालूम, वो खबरों पर भाषण देते हैं। वो बताते हैं कि पत्रकारिता क्या होती है, खबर कैसे लिखी जाती है।

उनको यह सब आधा अधूरा ज्ञान संपादकीय में रहने वाले उनके परिक्रमाधारी देते हैं। मैं उन लोगों को पत्रकार तो कतई नहीं मानता, जो स्वयं की तरक्की के लिए अपने ही साथियों को परेशान करते रहें। मैं कुछ अखबारों में बड़े मैनेजरों को एडिटोरियल के साथियों के साथ बहुत अच्छे से बात करते हुए भी देखा है।

मेरे ऊपर एक अखबार में लगभग नौ साल तक ट्रेनी होने का ठप्पा लगा था। मैं इस दाग को धो डालने के लिए बेचैन था। दाग ही कहूंगा, किसी भी व्यक्ति को नौ साल तक ट्रेनी वाले कॉलम में रखने का मतलब तो यही हुआ कि वो कुछ नहीं सीख पा रहा है। एक पुख्ता नजरिये से मैं खुश भी था, क्योंकि मेरे अनुभव बहुत शानदार थे, जिनको झेलने का मौका हर किसी को नहीं मिलता। मैंने इन वर्षों में पत्रकारिता और अखबार में नौकरी को भरपूर जीया। मेरे ऊपर किसी का ठप्पा भी नहीं था। कोई समझता रहे तो उसका क्या किया जा सकता है।

मैं दूसरे अखबार में जाने की कोशिश में लग गया। मैंने उसी अखबार में अपने एक वरिष्ठ से बात की, तो उन्होंने आश्वासन दे दिया कि तुम्हारी बात करा देता हूं। करीब एक माह बाद तय हुआ कि कुछ लोगों को उस अखबार के बड़े मैनेजर से मुलाकात करनी है। करीब पांच लोग, उनके आवास पर पहुंचे। कुल मिलाकर संपादकीय में नौकरी के लिए उन बड़े मैनेजर को इंटरव्यू देना था, जो खबर की चार लाइन लिखना तो दूर की बात, मुझे नहीं लगता कि खबर के बारे में कुछ सोच भी सकते थे। हे भगवान! क्या यह दिन भी देखने थे।

अपनी तनख्वाह बढ़वाने के लिए दूसरों का पैसा रुकवाने पर पूरा जोर

इंटरव्यू में बड़े मैनेजर ने वो कुछ सवाल किए,जिनका खबर और उससे संबंधी किसी काम से कोई वास्ता नहीं। यहां वहां की बातों के साथ इंटरव्यू समाप्त। हम अपने दफ्तर लौट आए। करीब एक माह बाद पता चला कि कुछ साथी तो बड़े मैनेजर के इंटरव्यू में पास होकर दूसरे अखबार में जाने के लिए विदाई ले रहे हैं। उन्होंने मुझे रिजेक्ट कर दिया या फिर दूसरी लिस्ट का हिस्सा बना लिया, मुझे सही सही जानकारी नहीं मिल पाई।

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मैं तो एक अखबार में काम कर ही रहा था। पर, बात फैल गई कि मैं भी इंटरव्यू देने वालों में शामिल था। मुझे अब ज्यादा दिन वहां टिकना नहीं था, इसलिए प्रयास और तेज कर दिए। एक दिन वहां के संपादक से ही बात हुई। वो संपादक मुझे और मेरे कार्य को अच्छी तरह जानते थे। मैंने उनके साथ एक अखबार में करीब एक साल से ज्यादा काम किया था। उनसे पता चला कि अखबार के निदेशक शाम को यूनिट पहुंचेंगे। नियत समय पर अपने दफ्तर से अस्पताल जाने का बहाना बनाकर मैं सीधा दूसरे अखबार की यूनिट में पहुंच गया और सीधा आफिस में प्रवेश कर गया। मुझे नहीं पता था कि अखबार के निदेशक उसी रूम में बैठे हैं।

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एक अंजान व्यक्ति को ऑफिस में प्रवेश करते ही उन्होंने सवाल किया, आप कौन। तभी वहां बैठे संपादक ने कहा, इनको बुलाया था। उन्होंने मेरा परिचय कराया। निदेशक ने मेरा बायोडाटा देखा और वही सवाल पूछा, जो मैं समझ रहा था। उन्होंने पूछा, इतने साल में जूनियर सब का पद मिला। मैंने कहा, जी। उन्होंने पूछा, क्या वजह रही होगी।

मेरा जवाब था, या तो मेरे में कोई कमी है, मैं इतने साल बाद भी प्रशिक्षण के लायक ही रहा। या फिर वो मुझे सीखा नहीं पाए, यह उनकी कमी हो सकती है। अगर, मैं किसी लायक नहीं हूं, तो उन्होंने मुझे लगभग नौ साल अपने संस्थान में क्यों रखा। मुझे महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां क्यों सौंपी। मुझे पैसे भी सब एडिटर जितने दे रहे हैं। उनका जवाब था, मैं समझ सकता हूं, आपके साथ क्या हुआ।

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उन्होंने पूछा, हमसे क्या चाहते हो। मैंने कहा, मुझे सब एडिटर की पोस्ट चाहिए। उनका कहना था, अभी आपको सब एडिटर नहीं बना सकते। जूनियर सब एडिटर की ही पोस्ट दे सकते हैं। हां, आप सही तरह काम करते रहे तो एक साल में सब एडिटर बना देंगे। संपादक ने आपके बारे में सबकुछ बता दिया है। उन्होंने मुझे लगभग दो हजार रुपये महीना बढ़ाकर ज्वाइनिंग देने के निर्देश संपादक जी को दिए। मैं खुशी खुशी उनको धन्यवाद कहकर फिर से अपने अखबार के दफ्तर में आकर ऐसे बैठ गया कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

किसी ने पूछा, अस्पताल क्यों गए थे। मैंने बताया, किसी से मिलने गया था। वो बोले, ठीक है वो। मैंने जवाब दिया, हां… वर्षों पुरानी बीमारी में आज ही कुछ राहत मिली है। बात आई गई, हो गई और मैं किसी दूसरे अखबार में नई पारी शुरू करने के लिए बेताब था। मुझे एक तारीख को ज्वाइन करने से पहले अखबार से इस्तीफा देना था। अनुभवियों ने पहले ही हिदायत दे दी थी कि पहले दूसरा अखबार ज्वाइन कर लेना और फिर अपने अखबार से इस्तीफा देना। मैंने एक ही दिन में दोनों काम निपटा दिए। इस हाथ ज्वाइनिंग और दूसरे हाथ इस्तीफा। तनख्वाह मेरे खाते में आ ही गई थी।

अपनी तनख्वाह बढ़वाने के लिए दूसरों का पैसा रुकवाने पर पूरा जोर

मैंने उस अखबार को छोड़ दिया, जिसमें बड़ा पत्रकार बनने का सपना लेकर पहुंचा था। वक्त के साथ, मुझे पता चल गया कि कोई अखबार आपको केवल पत्रकारिता या नौकरी का अनुभव कराता है। अखबारों में बड़े पद पर जाने के लिए परिक्रमा लगाना बहुत जरूरी है, वो भी उन लोगों की परिक्रमा लगाना, जो स्वयं किसी के आर्बिट में चक्कर लगा लगाकर बड़े पदों पर पहुंचे हैं। इन लोगों के बारे में यह बात सत्य है कि ये अपने अधीनस्थों से वही उम्मीद करते हैं, जो इनके बड़े अधिकारी इनसे करते हैं। ये चाहते हैं कि अधीनस्थ इनके ठीक उसी तरह चक्कर काटें, जैसे ये अपने अधिकारियों के चक्कर काटते हैं।

मेरे लिए यह बहुत सुखद बात यह रही कि मैंने एक संपादक की उपस्थिति में निदेशक को इंटरव्यू देकर किसी अखबार में एंट्री ली थी। मुझे किसी बड़े मैनेजर की कृपा का पात्र नहीं बनना पड़ा। यह तो उन बड़े मैनेजर के लिए परेशानी की बात थी, जो उनके रिजेक्ट किए गए व्यक्ति को एडिटोरियल में दाखिला मिल गया। उन बड़े मैनेजर और उनके एडिटोरियल के परिक्रमाधारी ने अपना क्या रूप रंग दिखाया, उसका भी जिक्र करूंगा।

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ठीक एक साल में मुझे सब एडिटर का खिताब मिल गया। करीब एक साल हुआ होगा कि उन बड़े मैनेजर ने एक छोटे से आयोजन में मुझ पर लगभग खीझ उतारते हुए पूछा, तुम हमारे यहां हो। वक्त ने मुझे भी मुंहफट बना दिया था, जो मन में होता था उसको जुबां पर ले आता था। इसलिए मैं करीब ढाई साल इनको अपने दम पर झेलता रहा। मैंने तपाक से जवाब दिया, करीब एक साल हो गया, आपको मालूम होना चाहिए। वो समझ गए कि यह कुछ और बोल देगा। इससे पहले ही किसी और से बात करने लगे।

अपनी तनख्वाह बढ़वाने के लिए दूसरों का पैसा रुकवाने पर पूरा जोर

आपको कल बताऊंगा कि अखबार में एडिटोरियल के कुछ लोग बड़े मैनेजर की शह पर अपने जूनियर साथियों से किस तरह का व्यवहार करते हैं। एडिटोरियल में रहने के बाद भी इनको पत्रकार नहीं मान सकता। पत्रकार तो वो होता है, जो अपने अखबार के माध्यम से जनसरोकारों के लिए काम करे। पत्रकारिता करने का मतलब यह कतई नहीं है कि आपको किसी से भी अभद्रता से बात करने का परमिट मिल गया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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