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Video- हम शर्मिंदा हैंः इसलिए एक दिन घस्यारी बनते हैं, बोझ उठाकर कुछ दूर चलते हैं

सिंधवाल गांव में एक बहन के साथ घास का गट्ठर उठाकर दो किमी. चले हम

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

उत्तराखंड में खासकर, पर्वतीय जिलों में पशुपालन और कृषि आजीविका के प्रमुख स्रोत हैं, इन्हीं से जुड़ा एक शब्द है- घस्यारी। इस शब्द पर आपत्ति भी व्यक्त की गई और विधानसभा चुनाव से पहले एक योजना भी प्रमुखता से लांच की गई। योजना धरातल पर है या नहीं, इससे कितनी महिलाओं को लाभ मिला, इस योजना से महिला सशक्तिकरण की अवधारणा कितनी मजबूत हुई।

ये सवाल महत्वपूर्ण हैं, जिन पर बात की जानी चाहिए, पर इससे पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि घस्यारी बनकर जीवन में कितना बदलाव आता है। क्या यह हर मौसम दिनभर जोखिम के बीच मेहनत करने वाली मातृशक्ति का दूसरा नाम है। क्या हम एक दिन के लिए ही सही घस्यारी बन सकते हैं। क्या हम उनके साथ पैदल चलकर, कुछ घंटे खेतों में पशुओं के लिए लाभकारी घास-पत्तियों की तलाश कर सकते हैं।  क्या हमारे में जोखिम और जंगली जानवरों की दहशत के बीच खेतों और जंगलों में चारा ढूंढने का हौसला है। क्या हम उनके बराबर श्रम कर सकते हैं, वो भी उस स्थिति में जब हमारा पारिश्रमिक निर्धारित ही न हो। क्या हम महिलाओं को इतना सशक्त कर सकते हैं कि वो अपने लिए कुछ समय निकाल सकें। क्या पहाड़ में पशुपालन और कृषि की रीढ़ महिलाओं के कार्यबोझ को कम किया जा सकता है।

एक दिन के लिए ही सही, हमने मातृशक्ति, हमारी बहनों और माताओं की दिक्कतों को समझने, महसूस करने के लिए घस्यारी बनने का फैसला लिया। हम यह भी जानते हैं कि घस्यारी शब्द पुरुषों के लिए नहीं बना है, यह शब्द स्त्रीलिंग है, इसलिए आम तौर पर माना जाता है कि पशुओं के लिए घास लाने का काम महिलाएं ही करती हैं, चाहे उनको कितने ही जोखिमों का सामना करना पड़े। यह बात इसलिए भी कह रहे हैं, क्योंकि हमने अधिकतर बार महिलाओं को ही घास के भारी बोझ लेकर चलते देखा है। पर, सिंधवाल गांव में हमने पुरुषों को भी पशुओं के लिए चारा जुटाते देखा। इसलिए कह सकते हैं, घास काटने का अकेला जिम्मा महिलाओं का नहीं है, जैसा कि घस्यारी शब्द से ध्वनि निकलती है।

देहादून जिला स्थित सिंधवाल गांव का एक हिस्सा। फोटो- राजेश पांडेय

हम सामाजिक मुद्दों के पैरोकार मोहित उनियाल, बच्चों की शिक्षा के लिए कार्य कर रही संस्था नियोविजन के संस्थापक गजेंद्र रमोला और युवा साथी पीयूष बिष्ट ‘मोगली’ के साथ ग्राम प्रधान प्रदीप सिंधवाल के सहयोग से सिंधवाल गांव पहुंचे।सिंधवाल गांव, देहरादून जिले की ग्राम पंचायत है, जो पूरी तरह पर्वतीय ग्राम पंचायत है और डोईवाला विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा है। सिंधवाल गांव जाने के लिए थानो से बिधालना नदी पर बहुचर्चित पुल को पार करके करीब दो किमी. आगे बढ़ना है। यानी यह ग्रामीण हिस्सा देहरादून जिला के पर्वतीय गांवों में सबसे नजदीक माना जाता है।हम मोहित उनियाल के साथ ‘हम शर्मिंदा हैं’ मुहिम के तहत हल्द्वाड़ी से धारकोट तथा कंडोली से इठारना तक की छह से आठ  किमी. तक की पैदल यात्रा पहले ही कर चुके हैं।

कभी हल्की, कभी तेज बूंदाबांदी के बीच सिंधवाल गांव पहुंचे। हम उन महिलाओं से मिलना चाहते थे, जो प्रतिदिन तड़के जागकर घर के जरूरी कामकाज निपटाती हैं और फिर दरांती-पाठल लेकर खेतों और जंगलों का रुख करती हैं।

गुलदार की दहशत, अब जंगल कम ही जा रहे

ग्रामीण अशोक सिंधवाल और उनकी पत्नी दीपा देवी बताते हैं, महिलाएं जंगलों का रुख कम ही कर रही हैं, यहां बघेरे (गुलदार) का डर बना है। अब तो लोग अपने खेतों से ही घास ला रहे हैं। अब तो बघेरा दिन में भी दिखाई दे रहा है। पास के जंगल में पांच-छह बघेरे देखे गए हैं। इसलिए महिलाएं जंगलों से घास नहीं ला रही हैं। घरों के पास ही भीमल की पत्तियां इकट्ठी की जा रही हैं।

इन दिनों भीमल ने दूर किया है चारे का संकट

खेती पशुपालन पर बातचीत के बाद हम सिंधवाल गांव के प्राइमरी स्कूल के पीछे से होते हुए आगे बढ़े। यह कच्चा रास्ता कौलधार गांव को जोड़ता है। कौलधार में स्थाई रूप से एक ही परिवार रहता है।

बूंदाबांदी के बाद थोड़ी देर के लिए सूरज दिखा। मौसम सुहावना हो गया, ऐसा लगा कि बारिश ने आसपास के पहाड़ों को स्नान करा दिया। ऊंचाई से आसपास की पहाड़ियां और गहराई में बिधालना दिख रही है और उसका पुल भी। पहाड़ों पर दूर-दूर तक बने घर दिख रहे हैं। बढ़ेरना, नाहींकलां गांव भी दिखते हैं।

हमारी मुलाकात सुधीर मनवाल से होती हैं, जो अपने खेत में भीमल के पेड़ पर चढ़े हैं और पत्तियों से भरी पतली टहनियों को काट रहे हैं। पास में ही उनकी मां पूरन देवी टहनियों को इकट्ठा कर रही हैं। थोड़ा बड़े तनों को छांटा जा रहा है, ताकि पशु इनको आसानी से चबा पाएं। सुधीर ने घर से करीब पांच किमी. दूर थानो गांव से इंटरमीडिएट किया है। बताते हैं, उनके पास एक जोड़ी बैल और गाय, भैंस, बकरियां हैं। कृषि भूमि भी है, पर जंगली जानवर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं।

देहरादून जिला के सिंधवाल गांव में सुधीर मनवाल भीमल के पेड़ की टहनियों को काटकर पशुओं के लिए चारा जुटाते हुए। फोटो- राजेश पांडेय

पूरन देवी बताती हैं, भीमल बड़े काम का पेड़ है, इसकी पत्तियां पशु बड़े चाव से खाते हैं। इसकी पतली टहनियों को इकट्ठा करके सुखा लो, ईंधन का काम करती हैं। उनसे ससुर जी, इसको पानी में भिगोकर रेशे बनाते थे। इसके रेशे बहुत मजबूत होते हैं। हम इसको जलाते हैं। हमने पूछा, आपके घर पर रसोई गैस है, जवाब था नहीं। हमारे पास पशु हैं, गोबर गैस प्लांट लगा है।

सुधीर बताते हैं,सर्दियों में जब चारे का संकट होता है, तब भीमल के पत्ते काफी राहत देते हैं। यह पशुओं के लिए पौष्टिक चारा है और पहाड़ पर भीमल बहुत है।

हमारे लिए टहनियों को छांटना कठिन टास्क

हमने कोशिश की, कि पाठल से भीमल की टहनियों को छांटा जाए, पर यह काम तकनीकी नहीं होते हुए भी, खासकर मेरे लिए कठिन था। गजेंद्र रमोला ने व्यावहारिक रूप से बताया कि पाठल से भीमल की टहनियों को कैसे छांटा जाता है। इस दौरान पूरन देवी ने हमें हिदायत दी कि कहीं आपके हाथ में चोट न लग जाए। बताती हैं, शुरू में पाठल व दरांती से हाथ में चोट लग चुकी है। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, इसलिए पेड़ पर नहीं चढ़ पातीं। पहले पेड़ पर चढ़कर टहनियों को छांटा है।

सुधीर बताते हैं, पेड़ पर चढ़कर चारा जुटाना कठिन है। बरसात में पैर फिसलने का खतरा रहता है। इसलिए यह बहुत सावधानी का काम है। मुझे अब इसकी आदत हो गई है।

बोझा लेकर पूरन देवी के साथ उनके घर पहुंचे

भीमल के पत्तों वाले बारीक तनों का इकट्ठा करके घर तक ले जाना हमारे लिए किसी बड़े टास्क से कम नहीं था। पहला टास्क था, इसको बांधना। रस्सी भी तनों को एक दूसरे पर लपेटकर बनानी थी। गजेंद्र रमोला कहते हैं, उन्होंने अपने गांव में घास का बोझ बनाने के लिए रस्सी बनाई है। वो दो पतले तनों को लेकर एक दूसरे पर लपेटकर रस्सी बनाते है। इस रस्सी पर पत्तियों से भरे तनों को रखकर बोझा तैयार करते हैं। पूरन देवी और सुधीर से अनुरोध किया कि मैं इसको आपके घर तक पहुंचाना चाहता हूं।

देहरादून जिला स्थित सिंधवाल गांव में पूरन देवी के साथ उनके घर तक चारा पत्ती का बोझ पहुंचाते हुए। फोटो- मोगली

उनका कहना था, यह हमारा रोजाना का काम है, आप थक जाओगे। हमारा कहना था, हम एक दिन तो आपके लिए यह काम कर सकते हैं। काफी अनुरोध के बाद, वो मान गए और हमने सिर पर रखकर चारा पत्तियों का बोझा उनके घर तक पहुंचाने का टास्क पूरा किया। फिलहाल हमारे लिए यह ज्यादा कठिन टास्क नहीं था, क्योंकि हमने पत्तियों को पेड़ से काटने और उनको इकट्ठा करने के लिए कोई मेहनत नहीं की थी। सुधीर का घर भी मुश्किल से 500 मीटर दूर था। हालांकि उनके घर तक का कुछ रास्ता पगडंडीनुमा था। हमने उनके घर तक केवल एक छोटा गट्ठर पहुंचाया था, पर पूरन देवी प्रतिदिन इस तरह के छह-सात गट्ठर जुटाती हैं। तब जाकर पशुओं के लिए चारा पूरा हो पाता है। इसके साथ ही, पशुओं का गोबर उठाना, गौशाला की साफ सफाई, पशुओं के लिए पानी का इंतजाम करना, उनकी सही तरह से देखरेख करना भी, पशुपालन के मुख्य कार्य हैं।

यहां नहीं बिकता दूध, बाजार बहुत दूर है

सुधीर बताते हैं, यहां दूध किसके पास बिक्री करें, सभी के पास पशु हैं। रही बात, शहर में दूध बेचने की तो इतनी दूर कौन जाएगा। बताते हैं, दूध घर में ही घी, मट्ठा, दही बनाकर इस्तेमाल करते हैं। बैलों को खेती के लिए पाला जाता है। यहां खेती के लिए ट्रैक्टर नहीं ला सकते। हल तो बैल ही खींचेंगे। घर पर सुधीर ने हमें अपने पशु दिखाए और चाय पिलाई। इस बीच बहुत तेज हवाओं के साथ खूब बारिश हुई। सुधीर ने खाना ऑफर किया, पर हमने फिर कभी भोजन करने का वादा किया और कौलधार गांव पहुंचने की इच्छा जताई।

सिंधवाल गांव में पूरन देवी, सुधीर मनवाल और अनीता देवी के साथ। फोटो- मोगली

बारिश के बाद ठंड बढ़ गई। थोड़ी देर में धूप निकल आई। इस बीच सुधीर की चाची जी अनिता देवी हमारे लिए चाय लेकर आईं। ग्राम भ्रमण के दौरान हमने अक्सर महसूस किया, यहां आपको बिना कुछ खाए, कम से कम चाय पिलाकर जरूर विदा किया जाता है। सुधीर अपने व्यस्त समय के बाद भी हमें कौलधार गांव तक ले गए।

कौलधार गांव में आंगन तक घूम जा रहा बघेरा, अब तो दिन में भी दिख रहामौसम अच्छा हो गया। लगभग डेढ़ किमी. और आगे कौलधार गांव पहुंच गए। कौलधार में बिजेंद्र सिंह और शकुंतला देवी रहते हैं। वो यहां स्थाई रूप से रहते हैं, परिवार के अन्य सदस्य रोजगार के सिलसिले में बाहर रहते हैं।

देहरादून के कौलधार गांव में बिजेंद्र सिंह पशुओं को लेकर जंगल जाते हुए।फोटो- राजेश पांडेय

बिजेंद्र पशुपालन एवं कृषि करते हैं। बताते हैं, पहले वो पशुओं को पास ही जंगल में छोड़कर आ जाते थे। सूर्यास्त से पहले पशु खुद घर पहुंच जाते थे। चरने वाले पशुओं की यह खासियत होती है कि वो समय पर अपने घर लौट आते हैं। पर, अब उनको जंगल में पशुओं के साथ ही रहना पड़ता है। गांव में बघेरा (गुलदार) आ रहा है। उनके आंगन तक पहुंच जाता है। अब तो दिन में भी दिख रहा है। बघेरे ने हफ्तेभर में गांव में ही एक दर्जन से अधिक बकरियां मार दी।

देहरादून के कौलधार से विधालना नदी का विह्मंम नजारा। फोटो- राजेश पांडेय

बिजेंद्र सिंह के आवास के सामने बड़ा सा आंगन है, जिससे बिधालना का विह्मंम नजारा पेश आता है। इन दिनों नदी में पानी नहीं है। सुधीर बताते हैं, बरसात में यह भरकर बहती है। दूर-दूर तक पानी ही पानी दिखता है। वो हमें वहीं से नाहींकलां, हल्द्वाड़ी, बढ़ेरना गांवों वाले पहाड़ दिखाते हैं।

कौलधार गांव में शकुंतला देवी कुछ दिन पहले घास लेने गई थीं, फिसलने से पैर में चोट लग गई। फोटो- राजेश पांडेय

बिजेंद्र सिंह की पत्नी शकुंतला देवी कुछ दिन पहले घास काटते समय फिसल गई थीं, जिससे उनके पैर में चोट लग गई। बताती हैं, कुछ दिन से घास नहीं ला पा रही हूं। उनके पति बिजेंद्र सिंह ही पशुओं के लिए चारा पत्ती इकट्ठा कर रहे हैं। पशुओं को चराने भी ले जाते हैं।

पेड़ पर चढ़कर चारा काटना खतरे से भरा टास्क

कौलधार गांव में ही थोड़ा आगे किरन देवी पशुओं के लिए चारा इकट्ठा कर रही थीं। किरन का घर सिंधवाल गांव में है, जो कौलधार से लगभग दो किमी. है। करीब 28 वर्षीय किरन भीमल के पेड़ पर चढ़कर पत्तियों से भरी टहनियां काट रही थीं। तेज हवा में पेड़ तेजी से हिल रहा था। किरन काफी सावधानी से चारा पत्तियां इकट्ठा कर रही थीं। बताती हैं, पेड़ों पर चढ़कर टहनियां काटने में खतरा तो है। सबसे ज्यादा दिक्कत तेज हवा चलने से होती है। यहां तो हमेशा हवा चलती रहती है।

देहरादून जिला के सिंधवाल गांव में किरन देवी, भीमल के पेड़ पर चढ़कर चारा पत्ती इकट्ठा करते हुए। फोटो- मोगली

वो बताती हैं, आज सुबह से ही बारिश थी, इसलिए घास लेने के लिए घर से थोड़ा देरी से निकलीं। उनके साथ और महिलाएं भी होती हैं, पर आज कुछ महिलाएं बारिश की वजह से नहीं आईं। पर, पशुओं के लिए चारा तो रोज ही जुटाना होता है। इन दिनों भीमल खूब है, यह पशुओं के लिए पौष्टिक घास है।

कम से कम पांच घंटे लगते हैं चारा पत्ती इकट्ठा करके लाने में

किरन ने इंटरमीडिएट तक शिक्षा हासिल की है और सिंधवाल ग्राम पंचायत की उपप्रधान भी हैं। बताती हैं, सुबह पांच बजे जाग जाते हैं। बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने सहित घर परिवार के बहुत सारे कामकाज निपटाने के बाद चारा पत्ती इकट्ठा करने निकलते हैं। सुबह दस बजे से लेकर कभी कभार तो शाम तीन बजे तक घर लौट पाते हैं। चारे के लिए दो से चार किमी. तक दूर जाना पड़ जाता है। कुल मिलाकर दिन में लगभग छह-सात घंटे पशुपालन के लिए हैं। जनप्रतिनिधि होने के नाते गांव के प्रति जिम्मेदारियां भी हैं।

हमारे आग्रह पर किरन ने हमें सिखाया, पाठल की मदद से टहनियों से छोटे तनों और पत्तियों को कैसे अलग किया जाता है। पर, एक दिन में कोई कैसे सीख सकता है। गजेंद्र रमोला तो अपने गांव में घास पत्तियां काटते रहे हैं, पर मोहित उनियाल और मुझे यह सब सीखना था। हमने उन टहनियों और तनों को इकट्ठा करने में ध्यान लगाया, जो पेड़ से काटकर नीचे गिराए गए थे। हमने करीब एक छोटा गट्ठर बनाने में किरन को सहयोग किया।

किरन ने बताया, उन्हें ऐसे ही करीब आठ छोटे गट्ठर अभी और बनाने हैं। सभी नौ गट्ठरों का एक बड़ा बोझा तैयार करना है। तब जाकर पशुओं के लिए एक दिन का चारा जुट पाएगा। इस दौरान एक बार फिर तेज हवाओं के साथ बारिश होने लगी। किरन ने हमसे कहा, उनको करीब तीन घंटे और लगेंगे।

देहरादून जिला के कौलधार गांव में भीमल की टहनियों से चारा पत्ती इकट्ठा करते मोहित उनियाल और गजेंद्र रमोला। फोटो- राजेश पांडेय
मातृशक्ति के संघर्ष के सामने हम कुछ भी नहीं

हम मातृशक्ति के संघर्ष के सामने नतमस्तक हो गए, क्योंकि हम उनके समान मेहनत नहीं कर सकते थे। मैं अपनी बात करूं तो घर में खुद एक गिलास पानी लेकर नहीं पी सकता। घर के किसी कामकाज में कोई योगदान नहीं देता। लैपटॉप पर कुछ लिखनेभर को अपनी मेहनत बताता हूं, पर मुझे लगता है कि श्रम के मामले में, इन माताओं, बहनों से हमेशा पीछे रहा हूं। हमने उनसे कहा, हम इंतजार करेंगे, आप हमें बता दीजिएगा।

तेज हवा और बारिश में भी इकट्ठा किया चारा पत्ती

हम पास ही बिजेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। किरन ने तेज हवा और बारिश में भी चारा पत्ती इकट्ठा की। जिस समय हम बिजेंद्र सिंह के घर पर चाय की चुस्कियां ले रहे थे, किरन भीमल की टहनियां छांट रही थीं। पशुपालन के लिए उनकी कड़ी मेहनत बरसात, सर्दियों, गर्मियों में अनवरत जारी रहती है। यह इसलिए, क्योंकि पशुओं को भूखा नहीं रखा जा सकता।

बारिश थमी तो हम फिर से किरन देवी के पास पहुंचे। तब तक उन्होंने पूरे नौ गट्ठर तैयार कर दिए थे, जो अलग-अलग जगहों पर रखे थे। उन्होंने इन सभी का एक ही बोझा बनाना चाहा, जिसका वजन लगभग 40-50 किलो से कम नहीं होगा। हमने उनसे आग्रह किया कि आप दो बोझ बनाओ। आज एक दिन ही सही, हम ये आपके घर तक पहुंचाएंगे।

नौ गट्ठर का एक बोझ लेकर दो किमी. का पैदल सफर, हम आधा भी नहीं उठा पाए

किरन ने कहा, आप रहने दीजिए, मैं अकेले ही इसको ले जा सकती हूं। हमारे काफी आग्रह के बाद उन्होंने दो बोझे बना दिए। पहले वाला बोझ, जो मैं उठा नहीं सका। मुझ आभास हो गया था, इसको उठाकर सौ मीटर भी चल जाऊं तो गनीमत होगी। गजेंद्र रमोला मेरी शक्ल देखकर तुरंत समझ गए कि यह बोझा उठाना इनके बस की बात नहीं है। उन्होंने खुद के सिर पर वो बोझा उठाया और मुझे इससे कम वजन का बोझा उठाने की सलाह दी।

इस छोटे बोझ को उठाना, मेरे पास अंतिम विकल्प था। मैंने पूरी ताकत लगाई और बोझ को सिर पर रख लिया। पगडंडीनुमा ढलान पर पैरों को जमा जमा कर रखते हुए मैंने गजेंद्र रमोला के पीछे पीछे चलना शुरू किया। करीब दो मीटर चलकर बिजेंद्र सिंह के आंगन पर पहुंच गए। जहां मैंने इस अंदाज में बोझा रख दिया, मानों बहुत मेहनत करने के बाद विश्राम का समय आ गया है।

देहरादून जिला के सिंधवाल गांव में किरन देवी के साथ उनके घर तक चारा पत्ती का बोझ ले जाते हुए। फोटो- गजेंद्र रमोला

यहां से लगभग दो किमी. किरन देवी के घर पहुंचना था। बड़ा वाला बोझ मोहित उनियाल के सिर पर रखा गया और छोटा बोझ मेरे सिर पर। हम आगे बढ़ गए, गजेंद्र रमोला और किरन हमारे साथ-साथ चल रहे थे,ताकि किसी दिक्कत में हमें सहयोग किया जा सके। करीब एक किमी. चलने के बाद मोहित उनियाल का बोझा किरन देवी ने संभाल लिया।

मोहित ने यह बोझ किरन देवी को इसलिए दिया, क्योंकि वो मेरी मदद करना चाहते थे। वो मेरी तरफ आगे बढ़े। मैंने उनसे कहा, मैं इसको ले जा सकता हूं। अभी कोई दिक्कत नहीं है। उन्होंने कहा, किसी भी तरह की परेशानी होगी, तो बोझा मुझे दे देना। मोहित, गजेंद्र और मोगली ने मेरा उत्साह बढ़ाया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बोझा लेकर किरन देवी के घर तक पहुंच गया। बड़ी खुशी हुई कि हम एक दिन के लिए ही सही किसी घस्यारी बहन के बोझ को कुछ हल्का कर पाए।

कौलधार गांव से सिंधवाल गांव तक चारा पत्ती का बोझ ले जाते हुए मोहित उनियाल। फोटो- गजेंद्र रमोला
पशुपालन और कृषि करने वाली महिलाएं करतीं 16 घंटे श्रम

किरन बताती हैं, चारा इकट्ठा करने के लिए घर से करीब पांच घंटे दूर रहने के दौरान बच्चों की चिंता रहती है। पूरे समय सोचती रहती हूं कि बच्चे क्या कर रहे होंगे। हालांकि, मेरी सास शकुंतला देवी, देवरानी रिंकी बच्चों को ख्याल रखते हैं। जब हमने पशु पाले हैं, तो उनको पर्याप्त चारा उपलब्ध कराना हमारी प्राथमिकता है। बताती हैं, पशुपालन के साथ, घर के अन्य कामकाज, बच्चों को पढ़ाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है।

पशुपालन और कृषि करने वाली महिलाओं को प्रतिदिन 16 घंटे श्रम करना पड़ता है। अपने लिए उनके पास समय कम होता है। अखबार-किताब पढ़ने, टीवी पर फिल्म या धारावाहिक देखने, संगीत सुनने के लिए उनके पास समय ही नहीं है। सिंधवाल गांव में बिजली, पानी की दिक्कत नहीं है, पर उन गांवों में पशुपालन से जुड़ी महिलाओं का श्रम और अधिक बढ़ जाता है, जहां उनको दो-दो किमी. पैदल चलकर स्रोत से पानी ढोना पड़ता है। उनके पास तो समय ही नहीं होता।

देहरादूम जिला के सिंधवाल गांव में किरन देवी की सास शकुंतला देवी, दादी सास उज्ज्वला देवी जी के साथ गजेंद्र रमोला, मोहित उनियाल व ग्राम प्रधान प्रदीप कुमार सिंधवाल। फोटो- मोगली
आठ घंटे मेहनत पर भी आजीविका का मजबूत स्रोत नहीं है पशुपालन

किरन देवी की सास शकुंतला देवी (60 वर्ष) बताती हैं, वो भी घास लेने जाती हैं। पर, अब पहले की तुलना में कम घास ही ला पाती हैं। उनके पशु प्रतिदिन तीन लीटर दूध देते हैं, जो घर में ही इस्तेमाल होता है। पशुपालन में मेहनत बहुत है, पर यह आजीविका का बड़ा जरिया नहीं है। ज्यादा पशु तभी पाले जा सकते हैं, जब गांव से थानो बाजार तक सही सड़क हो, ताकि दुग्ध बिक्री की संभावना बढ़े। पशुपालन में यह मेहनत इसलिए है, ताकि दूध खरीदने के लिए यहां से लगभग तीन-चार किमी. दूर थानो न जाना पड़े।

30 किमी. तक नहीं पहुंची घस्यारी कल्याण योजना

किरन देवी बताती हैं, उनको घस्यारी कल्याण योजना की जानकारी नहीं है। न ही उनके गांव में ऐसी कोई योजना आई है। यहां तो सभी महिलाएं चारा पत्ती लेने के लिए खेतों या पास ही जंगल में जाती हैं। महिलाओं को जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है।

सामाजिक मुद्दों के पैरोकार मोहित उनियाल का कहना है, पशुपालन में मातृशक्ति की मेहनत को देखा। छोटी बहन किरन देवी ने तीन-चार घंटे की अथक मेहनत से चारा-पत्ती का बोझ तैयार किया। हम उस बोझ का आधा हिस्सा भी नहीं उठा पाए, जिसको लेकर किरन रोजाना दो-तीन किमी. पैदल चलती हैं। मैं तो उनको सलाम करता हूं। पशुपालन में काफी मेहनत होती है, जो पूरी तरह महिलाओं की मेहनत पर निर्भर करता है। पशुपालन में मातृशक्ति के श्रम को कम करने के लिए नये नजरिये से कार्य करने की जरूरत है। घरों के पास हरा चारा उगाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। चिंता इस बात की है, कहीं श्रम एवं समय ज्यादा लगने की वजह से गांवों में पशुपालन कम न हो जाए, जैसा कि देखने को मिलता रहा है।

उनियाल का कहना है, हम शर्मिंदा है, मुहिम लगातार जारी रहेगी। यह मुहिम इसलिए भी है, क्योंकि हम बच्चों एवं महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए उतनी तेजी से कार्य नहीं कर पाए, जितनी की आवश्यकता है। वर्षों पहले जिन मुद्दों पर बात होती थी, वो आज भी हो रही है।

देहरादून जिला के गांव कौलधार में मोहित उनियाल और गजेंद्र रमोला। फोटो- राजेश पांडेय

नियोविजन संस्था के संस्थापक गजेंद्र रमोला कहते हैं, मैं ग्रामीण परिेवेश में पला बढ़ा हूं। कृषि एवं पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। पशुपालन के बिना कृषि नहीं हो सकती। पर, हम देख रहे हैं, गांवों में खेती की भूमि को बंजर छोड़ा जा रहा है, क्योंकि फसलों को जंगली जानवर बर्बाद कर रहे हैं। चारा पत्ती का संकट सामने आ रहा है। महिलाओं को अपने घरों से कई किमी. पैदल चलकर, जोखिम उठाकर चारा इकट्ठा  करना पड़ रहा है। गांवों से पलायन हो रहा है, ऐसे में जब गांव खाली हो जाएंगे तो पशुपालन कहां होगा। पहले पशुओं के लिए चारा घर के पास मिल जाता था। एक-एक परिवार से कई लोग पशुओं की देखरेख में लगे होते थे। अब वक्त बदल रहा है, गांवों में लोगों की संख्या कम हो रही है। यह पशुपालन के लिए चिंता की बात है।

नार्दर्न गैजेट के संपादक वरिष्ठ पत्रकार एसएमए काजमी बताते हैं, मुख्यमंत्री घस्यारी कल्याण योजना की जानकारी उन महिलाओं तक आवश्यक रूप से पहुंचानी चाहिए, जिनके लिए योजना बनाई गई है। योजना का लाभ हासिल करना सरल हो। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनके कार्यबोझ को कम करना होगा। खासकर, पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका के प्रमुख स्रोत कृषि एवं पशुपालन के संदर्भ में किसी भी योजना या नीति बनाने से पहले वहां व्यापक स्तर पर अध्ययन होना आवश्यक है। वहां की आवश्यकताओं को जानना बहुत जरूरी होगा।

पशुपालन आर्थिक मजबूती का आधार तो आंकड़ें चिंताजनक क्यों

उत्तराखंड सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (2020-21) के अनुसार, राज्य में लगभग 14 लाख परिवार ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं, जिनमें से अधिकतर का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन है। हालांकि कृषि क्षेत्र में बढ़ते मशीनीकरण के कारण पशुओं विशेषकर बैल का महत्व कम हुआ है, लेकिन पर्वतीय जनपदों में छोटे खेत तथा जैविक कृषि को देखते हुए इनका महत्व बना है।

रिपोर्ट कहती हैं, पशुपालन ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार होने के साथ साथ ग्रामीण परिवारों की आजीविका का कृषि क्षेत्र के साथ सहायक स्रोत है। कृषि क्षेत्र ग्रामीण परिवारों के लिए भोजन का आधार है तो सहायक गतिविधियों लोगों की आय सृजन का माध्यम है। यह आय लोगों में क्रय शक्ति बढ़ाती है, जो उद्योग तथा सेवा क्षेत्र के उत्पादों के लिए मांग को बढ़ाती है।

एक ओर सरकार के स्तर पर पशुपालन को आर्थिक मजबूती के महत्वपूर्ण बताया जाता है, वहीं उत्तराखंड में 2012 की पशुगणना की तुलना में 2019 के आंकड़ें चिंताजनक स्थिति को पेश करते हैं। गोवंश एवं महिषवंशीय (भैंस) की संख्या में 9.20 फीसदी की कमी आई है। हालांकि राज्य में क्रास ब्रीड पशुओं की संख्या 15.92 फीसदी की बढोतरी हुई है, जो कि अधिकतर डेयरी फार्मिंग में पाले जाते हैं। पर्वतीय गांवों में अधिकतर पशु स्वदेशीय नस्ल के हैं, जिनकी संख्या 2019 की पशुगणना में 2012 की तुलना में 15.96 फीसदी कम हुई है। कुल मिलाकर राज्य में सात साल के भीतर गोवंशीय पशुओं में 7.67 फीसदी तथा महिषवंशीय में 12.30 फीसदी की कमी आई है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में तीन लाख से अधिक महिलाओं के सिर से घास का बोझ हटाने के तहत 2021-22 में 1200 कृषकों के माध्यम से 15000 मीट्रिक टन सायलेज का उत्पादन किया जाना था।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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