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अखबारों में युवाओं से पहाड़ तुड़वाने वाले, उनकी दिक्कतों पर हो जाते मौन

आपको बता रहा था कि अप्रैल 1999 की रात दो बजे मंडी के बस स्टैंड पर मैं अपनी अटैची और बिस्तरबंद के साथ मौजूद था। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि कहां जाऊं। एक बार मन थोड़ा सा दुखी हुआ, पर क्या करता। मुझे मां औऱ पिता की याद आई, क्योंकि अभी तक घूम फिर कर शाम और रात को उन्हीं के पास पहुंच जाता था। मुझे मालूम था कि मेरे पापा और मां भी उस रात नहीं सो पाए होंगे। उस समय मोबाइल फोन भी नहीं थे, जो मेरी लोकेशन और हालात को जान सकते। उनकी बेचैनी तो सुबह मेरे फोन से ही दूर होती, इसलिए वो सुबह का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
मैं पहली बार अपने घर से बाहर निकला था, यह सोचकर कि बाहर तो चुनौतियां होती हैं, पर पत्रकार बनना औऱ उससे कहीं ज्यादा कम उम्र में किसी जिले का इंचार्ज बनने का अवसर कहां मिलता है। यह सोचते हुए ही मैं यह साहस कर बैठा। मैंने सुना था कि सपने वही होते हैं, जो खुली आंखों से देखे जाते हैं। सपने वहीं हैं,जो आपको सोने न दें। पत्रकारिता में बहुत आगे बढ़ने के लिए ही तो मैं रात दो बजे पूरी तरह जाग्रत होकर एक अंजाने शहर में अंजान बनकर खड़ा था।
मेरे पास उस शहर का एक लैंडलाइन नंबर था और इतना पता था कि बस स्टैंड के पास थोड़ा चढ़ाई चढ़कर सरकारी गेस्ट हाउस में पहुंच सकते हैं। गेस्ट हाउस में कुछ दिन रहने का बंदोबस्त हो सकता है। आप तो पत्रकार बनकर गए थे, इसलिए गेस्ट हाउस में ज्यादा दिन रहने पर भी कोई नहीं टोकेगा। उस समय बस स्टैंड पर कुछ ही लोग यहां वहां बैठे थे। कुछ ऑटो रिक्शा वाले पूछकर चले गए थे कि कहां जाना है। मैं करीब आधा घंटा अवाक सा खड़ा रहा और फिर बिस्तरबंद पर बैठ गया। सोचता रहा कि कब तक बैठा रहूंगा, अभी सुबह होने में देर है।
मैंने एक ऑटोवाले से कहा, गेस्ट हाउस जाना है, क्या पैसे लोगे। वह बोला, 15 रुपये। मैंने कहा ठीक है, ले चलो। कुछ ही देर में गेस्ट हाउस के गेट पर थे। मैंने गेट पर आवाज लगाई, पर किसी ने नहीं सुना। यह अच्छा हुआ कि ऑटोवाले को रोक रखा था। अगर वो चला जाता तो मैं उस सुनसान इलाके में डर ही जाता। उसी ऑटो से बैरंग बस स्टैंड पर पहुंचा। करीब तीन घंटे इंतजार के बार फिर गेस्ट हाउस पहुंचा और इस बार केयर टेकर ने खुशी खुशी एंट्री दे दी। वो बहुत भले व्यक्ति थे। गेस्ट हाउस का किराया था आठ रुपये रोजाना।
मैंने मन ही मन तय कर लिया कि जब तक नये शहर में किराये पर कमरा नहीं मिल जाता, तब तक यहीं विराजमान रहूंगा। आखिरकार, मैं इस शहर में किसी अखबार का इंचार्ज जो बनकर आया हूं। इतनी भी नहीं चलेगी तो क्या फायदा किसी अखबार में काम करने का। कभी ढाबे और कभी गेस्ट हाउस में खाने का मन भी बना लिया। गेस्ट हाउस में खाने के पैसे अतिरिक्त दूंगा।
थोड़ा धूप खिली और ऊंचाई पर स्थित गेस्ट हाउस से मैंने देखा, उस खूबसूरत शहर को, जो व्यास नदी के तट पर बसा है। वाह, क्या शहर है और मैंने मन ही मन उन लोगों को धन्यवाद किया, जिन्होंने मुझे यहां भेजने में मदद की थी। उस समय तो मैं इन लोगों के बारे में यही सोच रहा था।
गेस्ट हाउस से ही घर पर फोन किया और खुशी-खुशी बता दिया कि मैं सही सलामत हूं। रहने और खाने की व्यवस्था हो गई है। मेरे पापा ने कहा, अगर अच्छा नहीं लग रहा है तो वापस चला आ। मैं अभी कमा रहा हूं, कोई दिक्कत नहीं है। कंपीटिशन की तैयारी करना, मुझे पता है कि अच्छी नौकरी मिल जाएगी। मेरी कसम खा, तुझे वहां अच्छा तो लग रहा है न।
मेरे पापा कलक्ट्रेट में जॉब करते थे। वो जानते थे कि किसी प्राइवेट नौकरी में मात्र ढाई हजार पर नौकरी करने वाले किसी शख्स को उसकी कंपनी कितना महत्व देगी। उनको यह भी पता था कि मैं तनख्वाह बढ़ने की झूठी बात कहकर अंजान शहर में पहुंचा था। मैं तो उस समय अखबार में काम करना बड़े सौभाग्य की बात मान रहा था, इसलिए पापा को मना ही लिया था। मुझे बस में बैठाने डोईवाला चौराहे तक आए पापा की आंखें नम हो गई थीं।
सुबह तैयार होकर, उन शख्स से फोन पर बात की, जिनके सहारे मुझे शहर में अपने अखबार को विस्तार देना था। मैं स्वेटर पहनकर पैदल ही पैदल पूछता पाछता, सरकारी अस्पताल के पास पहुंच गया। उन्होंने मुझे वहीं मिलने के लिए कहा था। वो बुजुर्ग व्यक्ति थे। उन्होंने मुझसे कहा, तुमने स्वेटर क्यों पहना है। मैंने कहा, मुझे किसी ने बताया था कि यहां का मौसम ठंडा रहता है। मैं तो अपने साथ रजाई भी लेकर आया हूं। गेस्ट हाउस में रखी है। वो हंसते हुए बोले, दिन में यहां की गर्मी झेली नहीं जाएगी। मैंने तुरंत स्वेटर उतारकर हाथ में ले लिया। उन्होंने मुझे कुछ लोगों से मिलवाया और मेरे लिए किराये के कमरे और दफ्तर की बात की। उन्होंने मुझे काफी सहयोग किया।
उनके साथ पूरा शहर घूमा। बाजारों के नाम जाने और लोगों से मुलाकात की। धीरे धीरे मैं काफी लोगों से जान पहचान बना गया। किताबों की उस दुकान पर भी मेरी मित्रता हो गई, जहां सभी अखबार बिकते थे। उन दुकानदार ने मुझे दफ्तर के लिए एक कमरा दिला दिया। कई कमरे देखे और बाद में पुलिस चौकी के सामने चाय की दुकान के ऊपर बना कमरा पसंद आया। अखबार को जमाने आय़ा था, तो पत्रकारों औऱ लोक संपर्क अधिकारी से मिले बिना कैसे रह सकते हैं।
लोक संपर्क अधिकारी का दफ्तर और वहां का रीडिंग रूम, पत्रकारों का ठिकाना था। जब वहां कुछ पत्रकारों का पता चला कि अखबार ने देहरादून से एक लड़के को इंचार्ज भेजा है, तो उनको बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। उनमें से कुछ वरिष्ठ तो यह मान रहे थे कि उनमें से ही किसी को यह जिम्मेदारी मिलेगी। एक ने तो पूछ ही लिया था इंचार्ज साब भी बाहर से आएंगे या यहीं से।
मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूं सामाजिक सरोकारों की बात करने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकार ऐसे भी होते हैं, जिनकी सोच सिर्फ और सिर्फ अपने तक सीमित होती है। वो नहीं चाहते कि किसी युवा को आगे बढ़ने का मौका मिले। वो तो युवाओं को अपने आर्बिट में चक्कर काटता देखना चाहते हैं।
मैंने यूपी से पहुंचे फर्नीचर, कंप्यूटर, स्कैनर की बदौलत अपना आफिस जमा लिया। मेरे पास अगर नहीं था, तो लैंडलाइन फोन और खबरें भेजने के लिए मॉडम। बिना फोन के अखबार का दफ्तर अधूरा था। बहुत कोशिश की और बार-बार निर्देश, आदेश देने वाले अधिकारियों को पीसीओ से फोन किए तो जवाब मिला कि यह प्रयास तो तुम्हें ही करने हैं। यह तक कह दिया गया कि फोन तो लगाना है, कैसे भी लगाओ। पर किसी ने अतिरिक्त सरकारी शुल्क जमा कराकर तत्काल फोन लगाने के लिए न तो वित्तीय व्यवस्था कराई और न ही मेरी बात को आगे बढ़ाया। अखबार निकालने का समय नजदीक आ रहा था।
वो तो अच्छा हुआ कि इससे पहले चंडीगढ़ में अखबार के मालिक के साथ ही पत्रकारों की मीटिंग बुलाई गई। अखबार के मालिक बहुत अच्छे व्यक्ति थे। उनको आज भी दिल से नमन करता हूं। वो अपने अखबार के ट्रेनी से भी बात करते थे। उनके लिए वरिष्ठ से वरिष्ठ और ट्रेनी तक एक समान थे। उन्होंने मुझसे पूछा, राजेश, तुम्हें कोई दिक्कत है। क्या तुम खबरें भेजने के लिए तैयार हो। मैंने हिम्मत बांधी और साफ साफ कह दिया, मेरे दफ्तर में फोन नहीं लगा। बुकिंग करा दी, पर फोन लगने में बहुत समय लगेगा। तत्काल के लिए 15 हजार रुपये शुल्क जमा होगा। मुझे नहीं मिल रहे, सबको बता दिया।
उस समय मैं बहुत खुश हुआ, जब उन्होंने अपने पीए से कहा कि पता नोट करो और कल सुबह 15 हजार का चेक राजेश को पोस्ट कर दो। तीन दिन में मुझे चेक मिल गया और दो दिन में एकाउंट से पैसे निकालकर फोन लगवा लिया। जबकि मुझ पर बार-बार किसी न किसी बहाने रौब जमाने वाले वरिष्ठ इस मामले में कोई मदद नहीं कर पाए थे।
खैर, अखबार शुरू हुआ और पहले दिन ही एक बार फिर मालिक का फोन। कैसे हो राजेश। कितना मैटर दे दोगे, मैंने कहा, सर रोजाना आधा पेज। उनका कहना था, आधा पेज नहीं, कुछ ही खबरों से ही शुरू करो। धीरे-धीरे बढ़ाना खबरों की संख्या। उन्होंने, मेरा उत्साह बढ़ाया और मुझे बेस्ट ऑफ लक कहा।
अब अखबारों के कुछ अफसरों की बात करते हैं। पुराने समय के इन अधिकारियों के व्यवहार संबंधी हालात में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। कुछ तो अपने ट्रेनी से बामुश्किल ही बात करते होंगे। समाचार संकलन संबंधी उनकी दिक्कतों से उनका कोई लेना देना नहीं होता। मेरी समझ में यह नहीं आता कि यह व्यवहार संबंधी दिक्कत है या उनकी व्यावसायिक मजबूरी, जिसमें किसी अखबार के संपादक की भूमिका वरिष्ठ अधिकारी सी होती है।
मेरा मानना है कि अखबार के दफ्तर से लेकर दूरस्थ इलाके में रिपोर्टिंग कर रहा हर व्यक्ति साथी और सहयोगी होता है। वो इसलिए भी कि अगर, वो खबरें नहीं भेजेंगे, वो खबरों को संपादित नहीं करेंगे, वो फोटो नहीं खीचेंगे, वो पेज नहीं बनाएंगे तो अखबार कैसे निकलेगा। एक दिन पेज बनाने वाले साथी नहीं आएं तो अखबारों के दफ्तर में हलचल मच जाएगी।
एक किस्से के साथ, आज की बात को विराम देता हूं। मैं एक अखबार में लगभग 12 साल के करियर में उप संपादक था। उप संपादक को पेज बनाने का जिम्मा भी दिया जाता है, जबकि कायदा तो यह कहता है कि उप संपादक का काम केवल खबरों का संपादन और पेज के ले आउट में सहयोग करना होता है। उसे पेज भी बनाना चाहिए, यह मैंने अपनी पत्रकारिता की किताब में नहीं पढ़ा था। हो सकता है, मैं गलत हूं।
नौकरी करनी थी तो पेज भी बनाते थे। मैं पेज बनाने में कभी अच्छा नहीं रहा।
दूसरे दिन शाम को मेरे पेज की समीक्षा करते हुए संपादक ने मुझे मेरी गलतियां गिनाना शुरू कीं। टेबल पर रखा पेज देखते हुए मैं संपादक के सामने नहीं होकर,उनकी कुर्सी के नजदीक तक पहुंच गया। इसका कारण उनकी टेबल बहुत ज्यादा बड़ी नहीं थी। इससे उनके भीतर का अफसरपन जाग्रत हो गया और मुझसे तेजी से बोले, सामने आकर बात करो। मेरी गलती सिर्फ इतनी थी कि मैं पेज पर कुछ बताते समय उनकी कुर्सी के पास तक पहुंच गया था। उस समय मैंने अच्छे से महसूस किया कि यहां सहयोगी या साथी बताने की बात केवल ढोंग है। यहां तो परिक्रमा चलती है और परिक्रमा की चाह वालों में अहं ब्रह्मास्मि सा दंभ पलता है, किसी में थोड़ा है और किसी में ज्यादा और कहीं तो अति हो रखी है।
यह आगे भी जारी रहेगा, क्योंकि मैंने आपसे वादा किया है। मैं बहुत साहस बटोरकर यह बातें लिख रहा हूं। कंप्यूटर के सामने ज्यादा देर बैठने की हिम्मत होती तो एक साथ सबकुछ लिख डालता।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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