सौ साल से भी ज्यादा पुराने लाल डंडी वाले धान का बीज बोते हैं इस गांव के किसान
अब नहीं होती सालभर का खर्चा चलाने वाली अदरक की खेती
कोल गांव। राजेश पांडेय
टिहरी गढ़वाल के कोल गांव में 15 परिवार रहते हैं, आबादी यही कोई 75 के आसपास है। पहले कृषि यहां आजीविका का प्रमुख स्रोत था, जो अब दूसरे नंबर पर है। अब यहां अधिकतर लोग सरकारी सेवा से जुड़े हैं। खेतीबाड़ी कम हो गई, आधे से ज्यादा खेत बंजर हैं। गांव में रहने वाले 62 वर्षीय श्याम किशोर बिजल्वाण बताते हैं, जितने खेतों की रखवाली कर सकते हैं, उनमें ही फसल बोते हैं। बाकी खेतों से जब कुछ मिलना ही नहीं तो वहां समय खराब करने से क्या फायदा। उनकी खेती के सामने भी वही चुनौती है, जो पूरे पहाड़ में है।
बुजुर्ग किसान श्याम किशोर लगभग 50 साल पहले की खेती और वर्तमान के हालात का जिक्र करते हुए कहते हैं, हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है। उनकी और भाइयों की लगभग 40 बीघा खेती है। ऊपर के हिस्से के खेतों, जो वर्षा पर निर्भर हैं, को छोड़ दिया जाए, तो हमारे पास लगभग 18 बीघा खेती सिंचित है। ऊपर तो पहले भी पानी नहीं था, आज भी नहीं है। पर, हमने तो अपने आधे सिंचित खेतों को भी इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि वो हमारे बस से बाहर हैं। वहां रात को बारहसिंगा, सूअर और दिन में लंगूर बंदरों का हमला होता है।
खेती पर चिंता के साथ, श्याम किशोर कृषि के उन तरीकों पर बात करते हैं, जो उनको गर्व महसूस कराते हैं। वो धान की दो किस्मों लाल डंडी वाला धान और कस्तूरी को ही बोते हैं। लाल डंडी वाले धान का बीज सौ साल से भी ज्यादा समय से संरक्षित है। पहले उनके दादा-परदादा, पिताजी फसल काटने के बाद, बीज को अगले साल बोने के लिए रख लेते थे, अब वर्षों से इस काम को श्याम किशोर कर रहे हैं। धान ही नहीं, उनके पास सौ साल से अधिक समय का गेहूं का बीज भी है।
बताते हैं, लाल डंडी वाले धान से निकला चावल टेस्टी होता है। यह हजम जल्दी होता है। इसको खाने से कोई बीमारी भी नहीं होती- जैसे कि पेट में गैस बनना। अब इसका बीज मैदान में नहीं मिलेगा, पर यह हमारे गांव में हर घर में मिल जाएगा। इसका बारीक चावल होता है। हमारे पास इसका बीज रखा है। हम हाइब्रिड धान को इस्तेमाल नहीं करते। हालांकि, हाइब्रिड से उत्पादन ज्यादा होता है, पर यह हमें पसंद नहीं है। हमारे लिए पुराना धान ज्यादा अच्छा है।
“पहले लंबी वाली बासमती, राम जुवान, गोरखपुरी, रिखवा (चावल के दाने के मुंह पर थोड़ा काला होता था ), हंसराज, लाल डंडी वाला धान जैसी प्रजातियां बोई जाती थीं, ” श्याम किशोर बताते हैं। उनका कहना है, “हम पुराने समय से चला आ रहा बीज बहुत सावधानी से बोते हैं। इसकी क्यारियां दूसरे किस्म के धान से दूर रखते हैं, ताकि दूसरा धान इसकी क्यारियों में न पड़ जाए। मैं केवल दो तरह की किस्म- लाल डंडी वाला और कस्तूरी धान ही बोता हूं। ज्यादा किस्म बोने से सब मिक्स हो जाएगा। हम बीज घर का ही रखते हैं। बाहर से कुछ नहीं लाते। हाइब्रिड धान को लगाना तो दूर की बात, हम इसका चावल भी नहीं खाते।”
कोल गांव के करीब 49 वर्षीय किसान मनोज रावत बताते हैं, “हम धान को मशीन से नहीं निकालते, जबकि ट्रैक्टर मशीन गांव में आसानी से आ सकते हैं। हम बैलों से धान की मंडाई (threshing of paddy crop) करते हैं। यहां सभी किसान खेती में एक दूसरे की मदद करते हैं।”
किसान श्याम किशोर बताते हैं, लगभग 50 साल पहले पूरे कोल गांव में सौ-सवा सौ मन धान हो जाता था। अब तो पूरे गांव में 14 से 15 बीघा में धान ही बोया जाता है, जिसमें वो खुद तीन से साढ़े तीन बीघा में लाल डंडी वाला धान बोते हैं। एक बीघा में दो से तीन कुंतल धान निकल जाता है। कस्तूरी में भूसा ज्यादा निकलता है। एक कुंतल लाल डंडी वाले धान में लगभग 80 किलो चावल मिल जाता है, जबकि कस्तूरी में 65 से 70 किलो चावल मिल पाता है। अगर चिड़िया न चुगे तो एक बीघा में चार किलो बीज बोया जाता है।
बुजुर्ग किसान श्याम किशोर बताते हैं, “अभी गेहूं बोया है, फसल मिलते ही बीज को अगले साल के लिए अलग रख देंगे। गेहूं का बीज भी लगभग सौ साल से चल रहा है।”
धारा से हर मौसम मिलता है पीने और सिंचाई का पानी
कोल गांव में सबसे खास क्या है, के सवाल पर 62 वर्षीय श्याम किशोर कहते हैं, पानी का स्रोत सबसे खास है। यह स्रोत न जाने कितना पुराना है। मेरे पिता जी, दादा जी, सभी इसके बहुत पुराने होने की जानकारी देते हैं। हम तो कहेंगे, यह सैकड़ों साल पुराना है। यह हमारे गांव की खुशहाली, हरियाली का प्रतीक है। वो हमें एक जलधारा पर ले जाते हैं।
“हमने इसको कभी बंद नहीं देखा। सबसे खास बात तो यह है कि इसका पानी गरमियों में ठंडा और सर्दियों में गरम होता है। यह तो कुदरत ही जाने, पर गांव की खेती और पेयजल व्यवस्था इसी स्रोत पर निर्भर है। लगभग पांच-छह साल पहले घरों तक यहीं से पाइप लाइन पहुंची, पहले तो हम यहीं से पानी ले जाते थे। अब तो करीब एक साल पहले जल जीवन मिशन ( Jal Jeevan Mission) में बिछी नई लाइन से भी कनेक्शन मिले हैं। इससे ऊंचाई वाले क्षेत्र के उन घरों को पानी दिया गया, जहां तक पानी कम चढ़ता था। गर्मियों में बच्चे पूरा दिन स्रोत के पास ही बिताते थे, अब कुछ लोग रोजगार के लिए बाहर चले गए, इसलिए लोग कम हो गए। वैसे भी घरों तक पानी पहुंच रहा है, इसलिए धारा पर लोग कम आते हैं” मनोज बताते हैं।
मनोज हमें गांव से लगभग आधा किमी. दूर खुला हुआ टैंक दिखाते हैं, जिसमें स्रोत से पाइप के जरिये पानी भर रहा था। बताते हैं, यह सिंचाई के लिए भरा जा रहा है। हम टैंक को साफ रखते हैं, जब भी जरूरत होती है, यहीं से सिंचाई का पानी मिलता है। खासकर, गर्मियों में जब स्रोत पर पानी कम हो जाता है, तब टैंक में भरे पानी से सिंचाई करते हैं। कुछ और दूरी पर ढका हुआ एक ओर टैंक है, जिसमें घरों तक सप्लाई के लिए पानी भरा जा रहा है।
श्याम किशोर बताते हैं, पानी बहुत शानदार है, इससे हाजमा सही रहता है। भूख अच्छी लगती है। यह मीठा पानी है। हमारे रिश्तेदार यहां के पानी की खूब तारीफ करते हैं।
आलू है कुछ खास, मांगते हैं लोग पर हम बेचते नहीं
“यहां की सभी फसलें खास हैं, धान, गेहूं, आलू, प्याज। पर, अब खेती कम हो रही है। लगभग 50 साल पहले पूरे गांव में 30 या 35 कुंतल आलू होता था। हमारी मंडी ऋषिकेश और देहरादून थे। ज्यादातर ऋषिकेश ही जाते थे। थानो की मंडी हमारे लिए विपरीत दिशा में थी। यहां का आलू बहुत टेस्टी है,” श्याम किशोर बताते हैं।
“अब पूरे गांव में लगभग 15 से 20 कुंतल आलू उत्पादन होता है। उनके खेतों में लगभग दो से ढाई कुंतल तक फसल मिल जाती है। हम आलू बेचते नहीं, यह हमारे सालभर के खाने, रिश्तेदारों को देने में ही खपत हो जाता है। हमारी सभी फसलें जैविक हैं और मिट्टी कुछ ऐसी है कि आलू ही नहीं दूसरी फसलें भी टेस्टी हैं। खेतों में केवल गोबर ही डालते हैं, आज तक यूरिया या किसी तरह का कैमिकल नहीं डाला।” किसान मनोज बताते हैं, “आसपास से कई लोग हमारे पास आलू खरीदने आते हैं, पर हम नहीं बेचते।”
कनखल, नरेंद्रनगर तक घोड़ों पर जाता था धान
किसान श्याम किशोर के अनुसार, “पहले धान खूब होता था, जिसे बेचने के लिए नरेंद्रनगर, हरिद्वार के कनखल तक ले जाते थे। किसानों के पास अनाज ढोने के लिए घोड़े होते थे। पहले, हमारे पास खेती भी बहुत थी, पर अब मात्र 18 बीघा पानी की क्यारियां हैं, इसमें से आधी बंजर पड़ी हैं। जंगली जानवर खेती को नुकसान पहुंचाते हैं, इसलिए यहां खेती करना ही बंद कर दिया। पहले इतने अधिक जंगली जानवर नहीं थे। बंदरों को पकड़ने वाले आते थे।”
“वैसे भी, हम लोग गांव के पशुओं को चराने के लिए जंगल ले जाते थे। पशुपालक दिनभर पशुओं के साथ जंगल में रहते थे। जंगली जानवर गांवों की सीमाओं के पास नहीं आते थे। वहीं, खेती बहुत ज्यादा थी, सभी परिवार कृषि पर निर्भर थे, इसलिए दिनरात खेतों में ही रहते थे। रात को, ओढे़ (मचान) में चारपाई डालकर रहते थे। खेतों की रखवाली होती थी। अब तो कृषि पर निर्भरता कम हो रही है, इसलिए खेतों को बंजर छोड़ा जा रहा है।”
बताते हैं, “पहले यहां अदरक की खेती भी बहुत होती थी। हम अदरक बेचने देहरादून जाते थे। जिस समय लोगों के पास पैसा नहीं होता था, तब खेतों से अदरक निकालकर साल-छह महीने का खर्चा निकाल लेते थे। पर, अब यहां अदरक खत्म ही हो गया। करीब दस साल से इसमें कीड़ा लगना शुरू हुआ, अब हम अदरक नहीं बोते।”
92 साल की गायत्री देवी ने बताया, पहले कैसे होती थी खेती
किसान श्याम किशोर की माता जी, 92 वर्षीय गायत्री देवी बताती हैं, “हमारा गांव पहले बहुत अच्छा था, अब भी अच्छा है, पर पहले की तरह ज्यादा लोग गांव में नहीं रहते। खेतीबाड़ी बहुत अच्छी होती थी, सबकुछ अनाज, दालें, सब्जियां खूब होते थे। उड़द की दाल, मंडुवा की कोई कमी नहीं थी। यहां से हरिद्वार, गढ़वाल तक अनाज घोड़ों पर लादकर ले जाते थे।” गायत्री देवी कहती हैं, “उनको अपना गांव बहुत अच्छा लगता है, शहर अच्छा नहीं लगता।”