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गढ़वाल की कवि ने सुनाया एक किस्साः उस दिन भालुओं से भी नहीं डरी मैं

नवोदित रचनाकार ममता जोशी को स्कूल में बच्चे कबीरदास कहते थे

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग

“2006 की बात है, जनवरी का महीना था, उस समय मेरी सगाई हो गई थी। करीब तीन माह बाद अप्रैल में मेरी शादी होनी थी। मां हैदराबाद गई थीं और मैं लेखवार गांव मायके में थी। हमारे पास एक भैंस थी, जिसके लिए चारा पत्ती लेने के लिए मैं गांव की दस- बारह महिलाओं के साथ जंगल गई थी। हम सभी बैठकर बातें कर रहे थे कि अचानक भालुओं का दल अपने पास से होकर गुजरता देखा। हम सभी घबरा गए। यह नहीं कि सभी शांत होकर उनसे दूरी बना लें, हम सभी शोर मचाते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे। मैंने भी दौड़ लगा ली, इस आपाधापी में मेरी चप्पलें पता नहीं कहां छूट गईं। मेरे पास घास पत्ती बांधने के लिए एक रस्सी थी, वो भी वहीं कहीं गिर गई।”

नवोदित रचनाकार ममता जोशी, जिनका उपनाम स्नेहा है, डुग डुगी के टॉक शो में, उस किस्से को साझा कर रही थीं, जो उनको गांव की याद दिलाता है।

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ममता जोशी बताती हैं, “कुछ देर बाद हम सभी फिर एक जगह इकट्ठा हो गए। मुझे अपनी चप्पलों से ज्यादा उस रस्सी के गुम होने का दुख सता रहा था। वो इसलिए कि मुझे डर था कि मां पूछेगी, रस्सी कहां है, मैं क्या जवाब दूंगी। उस समय बच्चों को माता पिता से डांट पड़ने का काफी डर होता था। अब वो बात नहीं है। मैंने अपने साथ वाली महिलाओं से कहा, मेरे साथ चलकर रस्सी ढूंढवा दो।”

उन्होंने कहा, “अब हम नहीं जाते वहां, क्या पता भालू वहीं घूम रहे हों। पर, मैंने तो जैसे ठान लिया था, रस्सी तो ढूंढ कर रहूंगी। महिलाएं कह रही थीं, कोई बात नहीं, दूसरी रस्सी बन जाएगी। हम अपनी चुन्नियों से रस्सी बनाकर तेरा घास पत्ती बांध देंगे। पर मैं तो जैसे जिद लगा बैठी, नहीं मुझे तो वही रस्सी चाहिए, नहीं तो मां क्या कहेगी। महिलाओं ने आपस में बात करते हुए कहा, तुझे डर नहीं लगता, तो क्या करें, अकेली ही चली जा।”

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“मैं अकेली ही चल दी, उस जगह की ओर, जहां हमने भालुओं को घूमते देखा था। महिलाएं तो दयालु होती हैं, वो भी मेरे साथ चल दीं। वो कह रही थीं, इस बेचारी की मां भी घर पर नहीं है, हमें ही इसकी मदद करनी होगी। मैंने रस्सी को ढूंढ निकाला। मेरा ध्यान चप्पल पर नहीं था। मैं बिना चप्पल कई किमी. पैदल चलकर घर पहुंची। पर, उस दिन के बाद से मैंने कभी जंगल की ओर रुख नहीं किया।”

“आज जब मैं इस वाकये को याद करती हूं तो स्वयं पर खूब हंसने का मन करता है। मां छह माह बाद घर लौटीं, क्या मां घर आते ही उस रस्सी के बारे में पूछतीं। मेरी तो शादी का समय था, जब मां को रस्सी याद आती, तब तक तो मैं अपनी ससुराल में होती।”

स्कूल में कबीरदास कहते थे बच्चे

ममता बताती हैं, “वो शर्मीले स्वभाव वाली छात्रा रही हैं। क्लास में बहुत कम बात करना, उनको शिक्षकों से सवाल पूछने में भी हिचक होती थी। पर, हिन्दी के शिक्षक राकेश पोखरियाल जी की प्रेरणा से और उनके पढ़ाने के तरीकों ने मुझे काफी प्रभावित किया।”

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“एक दिन पोखरियाल सर कबीरदास के दोहे पढ़ा रहे थे। उन्होंने क्लास में बच्चों से एक दोहे का अर्थ पूछा, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने दोहे का अर्थ बता दिया। इस तरह उन्होंने चार दोहों के अर्थ पूछे, मैंने चारों दोहों के अर्थ बताए। उन्होंने मुझे शाबासी दी और उस दिन के बाद से मैं कक्षा हो या स्कूल की सभा, हर सवाल का जवाब देने में सबसे पहले हाथ उठाती थी।”

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ममता कबीर दास के दोहे स्वरबद्ध सुनाती हैं। कहती हैं, “स्कूल में बच्चे मुझे कबीरदास नाम से पुकारने लगे। वो कहते थे, देखो कबीरदास आ रहे हैं। बच्चे मुझे दीदी प्रणाम करते। हालांकि, तब तक मैं न तो कविताएं लिखती थी और न ही गीत। हां, मुझे गाने और गुनगुनाने का शौक बचपन से ही था। स्कूल के मंचों पर प्रतिभाग करती थी।”

कोरोना के समय शुरू कीं काव्य रचनाएं

“कोरोना संक्रमण के समय सभी लोग घरों पर ही थे, इस बीच आवाज साहित्यिक संस्था, जिसका डिजीटल पेज वरिष्ठ शिक्षक एवं साहित्यकार डॉ. सुनील थपलियाल संचालित करते हैं, ने रचनाकारों के लिए बेटी की अभिलाषा विषय पर एक रचना आमंत्रित की थी।”

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“मैंने एक रचना 30 पंक्तियों की लिखी। मुझे प्रतियोगिता के नियमों की जानकारी नहीं थी, जिसमें 24 लाइन या इसस कम पंक्तियों में रचनाएं मांगी गई थी। पर, इस कविता पर मुझे सांत्वना पुरस्कार मिला। डॉ. थपलियाल ने नवोदित रचनाकार होने के नाते प्रोत्साहित किया। इसके बाद मैं रचनाएं लिखने लगीं, जो भी समझ में आता, लिखती हूं।”

ममता जोशी ‘स्नेहा’ की वर्तमान में लगभग 300 रचनाएं हैं, जिनमें पहाड़ की पीड़ा है। पलायन से खाली हो रहे गांवों की व्यथा दिखती है। मां और मायके के साथ आपकी रचनाएं महिलाओं के संघर्ष को भी रेखांकित करती हैं।

आपकी रचनाएं पांच साझा संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं। वर्तमान में पहाड़ की पगडंडियां टाइटल से उनका एक काव्य संग्रह ऋषिकेश के काव्यांश प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है। उम्मीद है कि इसी साल नवंबर में किताब प्रकाशित होगी।

हम यहां रहते हैं-

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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