- राजेश पांडेय
कुछ दिन पहले मछली पालन से स्वरोजगार की जानकारी आप तक पहुंचाई थी। श्यामपुर में सूरजमणि सिलस्वाल के करीब दो बीघा तालाब में लगभग दस हजार मछलियों का जिक्र किया था। मछली पालन से आर्थिकी पर सिलस्वाल जी से काफी बातचीत हुई थी। वहीं से जानकारी मिली कि अगर हम इंटीग्रेटेड फार्मिंग करें तो स्वरोजगार से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
इंटीग्रेटेड फार्मिंग का मतलब, सामान्य रूप से कहा जाए, तो एक दूसरे पर निर्भर एवं सहयोगी रोजगारपरक गतिविधियां। इंटीग्रेटेड फार्मिंग उत्तराखंड में बड़ी संख्या में हो रही है, पर मुझे तो आसपास के इलाके में जाकर यह सबकुछ समझना था।
डोईवाला ब्लाक के सिमलास ग्रांट में बत्तख पालन, मुर्गीपालन, मत्स्यपालन के साथ सब्जियों एवं फलों की खेती को देखने का अवसर मिला। युवा मोहित उनियाल के साथ, यहां वर्ष 2013 से चल रहीं बहादुर सिंह बोरा, सुरेंद्र सिंह बोरा और गजेंद्र सिंह की स्वरोजगारपरक गतिविधियों को समझा।
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हमारा मानना है कि ये गतिविधियां युवाओं को स्वरोजगार की ओर आकर्षित करती हैं, पर सरकारी विभागों एवं उपक्रमों से प्रोत्साहन की आवश्यकता तो हमेशा रहेगी। इसमें बीज, आहार, दवा, आर्थिक प्रोत्साहन, पानी की उपलब्धता, तकनीकी मार्गदर्शन, प्रशिक्षण, नियमित निगरानी, संसाधनों एवं बाजार तक पहुंच तथा सबसे महत्वपूर्ण नुकसान की स्थिति में मुआवजा यानी बीमा की व्यवस्था आदि का होना अत्यंत जरूरी है।
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सिमलास ग्रांट में स्वरोजगार के लिए जुटाई गई पूरी व्यवस्था आपको कुछ अभिनव करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। इसके लिए आपको यहां पहुंचकर सभी गतिविधियों को समझना होगा। इसमें पेश आने वाली चुनौतियों और अवसरों के बारे में जानना होगा। यहां तीन मुर्गी फार्म और मछलियों के तीन तालाब हैं। हर तालाब के पास बत्तखों के दल का भ्रमण हो रहा है।
तालाब के चारों और सब्जियों एवं फलों की पैदावार हो रही है। कद्दू, अरबी, तौरी, भिंडी, हल्दी, अदरक, आंवला, सतावर, तेज पत्ता, आम, पपीता, जामुन, अंगूर की पैदावार से आसपास हरियाली ही हरियाली है। यह सब कैसे, क्या इसमें रसायनों का प्रयोग होता है, जवाब मिलेगा नहीं। यहां मुर्गी फार्म का वेस्ट, तालाब की सफाई में निकलने वाला कचरा, तालाब का पानी, गोबर की खाद इस्तेमाल होते हैं, जो खेती के लिए काफी फायदेमंद हैं।
किसान बहादुर सिंह बोरा बताते हैं कि हमने गन्ने की फसल में गोबर के साथ इस खाद को भी इस्तेमाल किया, इससे पैदावार पर काफी फर्क पड़ा। मुर्गी फार्म का वेस्ट मछलियों का भोजन बनता है। इसके साथ ही, हम मछलियों के लिए निर्धारित आहार भी निर्धारित मात्रा में इस्तेमाल करते हैं।
यदि, हम रसायनिक खाद नहीं भी डालेंगे, तब भी मुर्गी फार्म के वेस्ट से पूरी फसल ले सकते हैं। बताते हैं कि एक बीघा में यदि गन्ना की फसल 60 कुंतल हो रही है। उसमें मुर्गी फार्म का वेस्ट खाद के रूप में इस्तेमाल किया, जो उत्पादन में 20 फीसदी तक बढोतरी हो सकती है।
उन्होंने बताया कि तीनों तालाब में लगभग 30 हजार मछलियां हैं, जिनमें रोहू, कतला, नैन, पंगास, कॉमन कॉर्प हैं।
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क्या आपको मालूम है कि पंगास (पंगेसियस) मीठे पानी में पाली जाने वाली दुनिया की तीसरी सबसे पड़ी प्रजाति है। यह प्रजाति 6 से 8 माह में एक से डेढ़ किलो की हो जाती है। वायु श्वासी होने के कारण कम घुलित आक्सीजन को सहने करने की क्षमता रखती है।
भारत में आंध्र प्रदेश पंगास का सबसे बड़ा उत्पादक प्रदेश है। इस मछली की मांग व्यापक है। इस प्रजाति में रोग निरोधक क्षमता अधिक है। झारखंड की जलवायु इस मछली के लिए अनुकूल है। Source- hi.Vikspedia.in
पंगास स्थानीय तौर पर पियासी मछली के तौर पर जानी जाती है। यह एक विदेशी मूल की मछली है। यह मूलतः थाइलैंड के मेकांग नदी में पाई जाती है। कैट फिश प्रजाति की इस मछली को थाई पंगास भी कहा जाता है।
दक्षिण के तटीय क्षेत्रों एवं बंगाल में इसका पालन बड़े पैमाने पर हो रहा है। उत्पादन की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण मछली है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में 25 टन से अधिक उत्पादन की क्षमता होती है। एक कांटे की होने के कारण मछली खाने वालों में यह काफी लोकप्रिय हो चुकी है। Source- fisheries.uk.gov.in
बोरा जी, बताते हैं कि हमारे पास 15 बत्तख हैं, जो तालाब में काई नहीं जमने देती और ऑक्सीजन के स्तर को बनाए रखती हैं। बत्तख तालाब में घूमती हैं, इससे मछलियों का मूवमेंट बढ़ता है। मूवमेंट होने से मछलियों की ग्रोथ होती है।
तालाब में ऑक्सीजन का लेवल बनाए रखना बहुत जरूरी है। इसके लिए एक उपाय और करते हैं, वो है तालाब के पानी को मोटर लगाकर पाइप में बाहर खींचना और फिर तालाब में ही प्रवाहित कर देना।
सिमलास ग्रांट निवासी किसान सुरेंद्र सिंह बोरा असम राइफल से सेवानिवृत्त हैं और स्वरोजगार के लिए पारंपरिक खेतीबाड़ी के साथ खास तरह की इंटीग्रेटेड फार्मिंग को चुना है। बताते हैं कि कृषि विभाग ने मुर्गी पालन शुरू कराया।
उनके पास देशी मुर्गियां भी हैं, जिनके अंडे और मीट की खपत स्थानीय स्तर पर ही हो जाती है। इसके बाद उनको मत्स्यपालन के लिए तालाब बनाने को आर्थिक प्रोत्साहन मिला था।
उन्होंने बताया कि यहां लगभग 2000 स्क्वायर मीटर से ज्यादा के तीन तालाब हैं। प्रोत्साहन से स्वरोजगार के लिए अपनी भूमि पर मत्स्य एवं मुर्गी पालन शुरू कर दिया।
कुछ वर्ष पहले पंगास (सिंगल कांटे वाली) मछली के बीज मत्स्य पालन विभाग ने निर्धारित कीमत पर उपलब्ध कराए थे।
उनके अनुसार, कि पंगास यहां की मछली नहीं है। इसके बीज यहां स्थानीय स्तर पर नहीं मिलते। इस प्रजाति की मछली के बीज (एक से तीन इंच तक के मछली के बच्चे) नार्थ ईस्ट या फिर पश्चिम बंगाल से मंगाए जाते हैं।
छह माह में यह बिक्री के लिए तैयार हो जाती है। यदि सही तरीके से देखरेख की तो इसको पालना काफी फायदे का सौदा होता है।
उनका कहना है कि दस हजार मछलियों के लिए प्रतिदिन लगभग 30 किलो दाना डालते हैं। इसकी खुराक अधिक होती है। मत्स्य पालन विभाग छह कुंतल तक खरीद पर 50 फीसदी तक सब्सिडी देता है।
मत्स्य पालक सुरेंद्र सिंह सरकारी सिस्टम के शुरुआती सहयोग पर खुशी तो जताते हैं, पर इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि मत्स्यपालन विभाग का रुख अब अच्छा नहीं है। पहले हमें पंगास का बीज उपलब्ध कराने वाले विभाग का कहना है कि अपने स्तर से व्यवस्था करो।
बोरा जी, कहते हैं कि सरकारी सिस्टम तो विदेश तक से बीज उपलब्ध करा सकता है, किसान कहां जाएगा। हमने सरकारी प्रोत्साहन से तालाब पर खर्चा किया, मछली पालन को स्वरोजगार चुना, अब हमें मझधार में छोड़कर जाना ठीक नहीं है। हमने पंगास का बीज अपने स्तर पर व्यवस्था करके कोलकाता से मंगाया। यह हमें एक की जगह दस रुपये का मिला।
उनका कहना है कि केवल आहार देकर काम नहीं चलेगा। किसान को मछली पालन के लिए सभी जरूरी संसाधन चाहिए। सबसे बड़ी दिक्कत पानी की है। हम ट्यूबवैल लगाने के लिए सब्सिडी चाहते हैं, पर कोई सुनवाई नहीं।
उन्होंने बताया कि मछलियों में किसी प्रकार का रोग होने की स्थिति में विभाग का सहयोग मिलता है। हम अपने स्तर पर भी दवा की व्यवस्था करते हैं। उनका कहना है कि यहां अधिकारी आते हैं, पर प्रोत्साहन एवं पुरस्कार हमारे लिए नहीं हैं।
इंटीग्रेटेड फार्मिंग के माध्यम से स्वरोजगार को बढ़ाया जा सकता है। अन्य युवाओं को भी रोजगार उपलब्ध करा सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मुर्गी पालन, बकरी पालन, मत्स्य पालन से तैयार उत्पाद की बाजार तक पहुंच अच्छी है।
बहादुर सिंह बताते हैं कि बाजार से उनके मुर्गी फार्म तक गाड़ी पहुंचती है। मछलियों की खपत भी स्थानीय बाजार में हो जाती है।
कुल मिलाकर, सावधानियां बरत कर इंटीग्रेटेड फार्मिंग की जाए तो यह लाभ का स्वरोजगार है। पर, सरकारी स्तर पर सहयोग की आवश्यकता तो हमेशा रहती है, चाहे मार्गदर्शन हो या फिर संसाधनों की पूर्ति।
अगली बार फिर मिलते हैं, किसी और पड़ाव पर। तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाएं।
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