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बेंगलुरु की झील में झाग के पीछे घरेलू शैंपू और डिटर्जेंटः स्टडी

आईआईएससी बैंगलोर के सेंटर फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीज से जुड़े शोधकर्ताओं ने किया अध्ययन

इंडिया साइंस वायर

बेंगलुरु की बेलंदूर झील बरसात के दिनों में भरी मात्रा में विषाक्त झाग उगलने के लिए सुर्खियां बटोरती रही है। झील से निकलने वाला झाग आसपास के इलाकों में फैलकर आवागमन जैसी दैनिक गतिविधियों को भी बाधित कर देता है। दुर्गंध की समस्या और आँखों के लिए एक अप्रिय दृष्य प्रस्तुत करने वाला यह विषाक्त झाग जलीय पारिस्थितिक तंत्र को भी क्षति पहुंचाता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बैंगलोर के सेंटर फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजीज (सीएसटी) से जुड़े शोधकर्ताओं की एक टीम ने इस झाग के बनने के कारणों का अध्ययन और विश्लेषण किया है।

उल्लेखनीय है कि बेलंदूर झील में अप्रत्याशित रूप से भारी मात्रा में बनने वाली झाग की व्याख्या करने और नियंत्रण के उपाय करने के लिए कई सिद्धांतों को सामने रखा गया है, फिर भी साल दर साल यह समस्या विकराल होती जा रही है।

“हमारे शोधकर्ता वास्तविक कारकों की पहचान करने के लिए पिछले चार वर्षों से लगातार इस झाग की निगरानी कर रहे हैं,”आईआईएससी द्वारा जारी विज्ञप्ति बताती है।

इस बड़ी झील में हर दिन भारी मात्रा में कार्बनिक-अकार्बनिक कचरा और मैला प्रवेश करता है। इस अनुपचारित कचरे को पसरने में लगभग 10-15 दिन लगते हैं। इस अवधि में कार्बनिक कचरे का एक हिस्सा ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में कीचड़ के रूप में सतह पर जा बैठता है।

मुख्य अनुसंधान वैज्ञानिक, सीएसटी, चाणक्य एचएन कहते हैं – “चूंकि झील में नया अनुपचारित कचरा निरंतर रूप से प्रवेश करता रहता है इसीलिए कचरे में पहले से घुले घरेलू डिटर्जेंट जैसी चीजों में पाए जाने वाले पृष्ठसक्रिय कारकों (सरफेक्टेंट्स) का विघटन नहीं हो पाता है। बजाय विघटित होने के, ये उल्टा तलछट में पहले से एकत्रित हुए कीचड़ में जा धंसते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे इनकी मात्रा में वृद्धि होती चली जाती है। कभी कभी यह झील में प्रवेश करने वाली मूल मात्रा से 200 गुना तक अधिक हो जाती है। ”

यह स्पष्ट है कि झाग बनने की मात्रा में वृद्धि भारी बारिश के बाद ही होती है। भारी वर्षा रात भर शहर से बड़ी मात्रा में पानी झील में लाती है। पानी की उच्च मात्रा का प्रवाह सरफेक्टेंट्स से भरे कीचड़ को मथता है, डिटर्जेंट और शैम्पू जैसे संचित रासायनिक यौगिकों को कीचड़ से अलग करता है, और पुनः इसे घोल में वापस लाता है, जिससे यह झाग के लिए तैयार हो जाता है।

“पानी की एक बाल्टी में मुट्ठी भर वाशिंग पाउडर डालने पर उत्पन्न होने वाले परिदृश्य की कल्पना करें! ऐसी अनुकूल परिस्थितियों में झाग का बनना निश्चित है,” चाणक्य स्पष्ट करते हुए बताते हैं।

“जैसे ही बारिश के कारण झील में पानी का स्तर बढ़ता है,रासायनिक यौगिकों की बड़ी सांद्रता वाला अतिरिक्त पानी झील के आउटलेट में 25 फीट की गहराई तक रिसता है, जिसमें फंसी हवा से बुलबुले बन जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण घटना है जो सरफेक्टेंट्स से भरे पानी को झाग में बदल देती है,” सीएसटी में एसोसिएट प्रोफेसर लक्ष्मीनारायण राव कहते हैं।

टीम ने झील से पानी के नमूने एकत्र किए, विभिन्न मापदंडों का विश्लेषण किया और झील के विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ वर्ष के अलग-अलग समय में सरफेक्टेंट्स की रासायनिक संरचना में परिवर्तन को रेखांकित करने के लिए एक लैब मॉडल विकसित किया। विश्लेषण के क्रम में घरेलू वाशिंग पाउडर और शैंपू में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले एक प्रकार के सर्फेक्टेंट को झाग पैदा करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले तत्व के रूप में चिन्हित किया गया।

शोधकर्ताओं के अनुसार -“झाग बनने और उसकी स्थिरता के लिए कुछ बैक्टीरिया युक्त ठोस पदार्थ भी जिम्मेदार हो सकते हैं। हालांकि इसकी पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए आगे और अध्ययन करने की आवश्यकता है। ”

अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि झील में अनुपचारित कचरे के प्रवेश को रोकना, सर्फेक्टेंट और कीचड़ के निर्माण, उनके मंथन और उसके परिणामस्वरूप बनने वाले झाग को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है। कम से कम बारिश से पहले – प्रदूषित झील में जमा कीचड़ हटाने और उसके उचित निपटान से भी इस समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

आईआईएससी द्वारा वित्त पोषित यह अध्ययन साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुआ है।

इंडिया साइंस वायर से साभार

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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