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क्या हर मौसम में बदलता है पेट में मौजूद जीवाणुओं का प्रोफाइल

मौसम के साथ हमारे खानपान, परिधान और जीवनशैली में परिवर्तन होता रहा है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, के आधार पर हमारी सभी तरह की गतिविधियां चलती हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति के पेट में मौजूद सूक्ष्म जैविक संरचना भी परिवर्तित होती है। यह मौसमी खानपान के अनुसार होती है। यह चक्र नियमित तौर पर चलता है, लेकिन अब मनुष्य बेमौसमी आहार ग्रहण करने लगा है, जिससे पेट में मौजूद सूक्ष्म जैविक संरचना का चक्र गड़बड़ाने लगा है, जो रोगों को बढ़ावा देता है।

आप जो भी कुछ खाते हैं, उस पर आपके पाचनतंत्र में मौजूद लाखों की संख्या में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं का जीवन निर्भर करता है। वैज्ञानिक भी लंबे समय से इसी तथ्य पर बात कर रहे हैं कि खाद्य पदार्थ पेट के सूक्ष्म जीवों पर प्रभाव डालते हैं। नये अध्ययन से मालूम हुआ कि दुनिया के कुछ बचे हुए शिकारी समुदायों के पेट में मौजूद सूक्ष्म जीवाणु मौसम के चक्र के अनुसार अपना प्रोफाइल बदलते हैं।

यानी सूखे और बरसात व ठंड ( गीले मौसम) में ये अलग-अलग विशेषता वाले होते हैं। यह तथ्य शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद कर सकता है कि पेट में मौजूद जीवाणु मौसम के अनुसार खानपान पर निर्भर करते हैं। तंजानिया के शिकारी समुदाय हड़जा आबादी पर हुए शोध के बाद यह निष्कर्ष सामने आया है।

वर्ष 2013 और 2014 के बरसात और शुष्क मौसम के दौरान, तंजानिया की रिफ्ट वैली में रहने वाले करीब 200 हड़जा पर एंथ्रोपॉलोजिस्ट स्टेफनी सॉनोरर व ओक्लाहोमा यूनिवर्सिटी के उनके सहयोगियों ने रिसर्च की।  उन्होंने पाया कि हड़जा के पेट में आधुनिक पश्चिमी देशों के लोगों की तुलना में जीवाणुओं की अधिक किस्में हैं, जिनकी वजह से हड़जा कोलोन कैंसर, कोलाइटिस, क्रोहन डिजीज से ग्रस्त नहीं हैं। इनके पेट में मौजूद बैक्टीरिया फाइबर वाले आहार को तोड़ने में अभ्यस्त हैं।

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औद्योगिक देशों में अधिकतर लोगों के विपरीत हड़जा मौसम के अनुसार भोजन ग्रहण करते हैं। बरसात व सर्दियों में वो जामुन और शहद का स्वाद चखते हैं। शुष्क मौसम में जानवरों का शिकार करते हैं। सालभर पर्याप्त स्टार्च वाले कंद मूल सालभर खाते हैं। यह जानने के लिए क्या हड़जा मोइक्रोबायमी मौसम के साथ बदलती है।

टेरलिंगुआ, टेक्सास स्थित मानव खाद्य परियोजना के निदेशक जेफ लीच और कैलिफोर्निया के पालो ऑल्टो में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के सूक्ष्म जीव विज्ञानी जस्टिन सोनेनबर्ग व उनके सहयोगियों ने 188 हड़जा लोगों के स्टूल के नमूने इकट्ठे किए। लीज ने खुद के स्टूल का नमूना भी लिया।

इन स्टूल नमूनों के आरएनए के विश्लेषण में सोनेनबर्ग और उनके सहयोगियों को वर्षा और ठंडे (गीले मौसम) की तुलना में हड़जा के सूखे मौसम के नमूनों में एक खास तरह के पैटर्न वाले जीवाणुओं की मौजूदगी मिली। गीले मौसम में इनकी संख्या कम हो गई, लेकिन अगले शु्ष्क मौसम में इनकी संख्या फिर बढ़ गई। यह पहला साक्ष्य था, जो यह बताता है कि पेट में सूक्ष्म जीवाणुओं की मौजूदगी मौसमीय चक्र पर आधारित है।

इस शोध पर और बारीकी से कार्य करते हुए सोनेनबर्ग ने इन सूक्ष्म जीवाणुओं में एंजाइम का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि शुष्क मौसम के दौरान लिए नमूनों में प्लांट कार्बोहाइड्रेट- डाइजेस्टिंग एंजाइम की मात्रा सामान्यतः ज्यादा थी। यह एक चौकाने वाली बात थी, क्योंकि हड़जा शुष्क मौसम में मांस ज्यादा और पौधे कम ही खाते हैं।

हड़जा पर 13 साल तक अध्ययन कर चुकीं लास बेगास स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नेवादा की एंथ्रोपॉलोजिस्ट एलिसा क्रिटेंडन का कहना है कि शोधकर्ताओं ने इस बात का जिक्र नहीं किया कि स्टूल के नमूने देने से पहले हड़जा समूदाय के लोगों ने क्या खाया था। आहार और व्यवहार का डेटा दिए बिना इस शोध को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता है। इसको निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए और डेटा की जरूरत है।

वह इस बात से सहमत हैं कि स्टडी बताती है कि प्राचीन समय में मानव के पूर्वजों के पेट में मौजूद सूक्ष्म जीव किस तरह मौसमीय पौधों और जानवरों की उपलब्धता से प्रभावित होते होंगे। यह ठीक उसी तरह से होगा, जैसा वर्तमान में सामूहिक रूप से शिकार करने वाले हड़जा समुदाय में है। यह शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद करेगा कि प्राचीन समय में लोग कहां रहते थे और क्या खाते थे, या यूं कहें कि उनके भोजन में कौन से पोषक तत्व मौजूद थे।

मानव के पेट ने प्राकृतिक खाद्य चक्रों के साथ एक “बैरीयथम” विकसित किया है, जो मौसम के अनुसार है। इनसे अलग रहने वाले लोगों के माइक्रोबियम इस खाद्य चक्र से बाहर हो सकते हैं। हालांकि अभी इसके लिए पर्याप्त जानकारी नहीं है, जो यह बता सके कि यह हमारे पेट को किस तरह प्रभावित करता है। हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि हड़जा में पैतृक रूप से यह जीवाणु मौजूद नहीं हैं। या यूं कहे कि हड़जा हमारे से ज्यादा आधुनिक हैं। 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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