राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
देहरादून में चकराता रोड पर घंटाघर से लगभग सौ मीटर दूरी पर, डॉ. यूसी चांदना का क्लीनिक है। आपका पूरा नाम डॉ. उत्तम चंद चांदना है। देहरादून के सबसे पुराने डॉक्टर हैं, जिनको प्रैक्टिस करते हुए 78 साल से अधिक हो गए हैं। आप वर्ष 1945 यानी आजादी से पहले से मरीजों को चेकअप कर रहे हैं।
सबसे खास बात तो यह है कि आपको मरीज एक रुपया भी फीस दे जाएं या फीस न भी दें, तब भी आप उनसे कुछ नहीं कहते। बताते हैं, “शुरुआत में जब प्रैक्टिस शुरू हुई तब डॉक्टर की फीस दो रुपया थी। उस समय लोगों के पास पैसा नहीं होता था, अगर कोई फीस न भी दे, तब भी हमने कुछ नहीं कहा।”
अंग्रेजी न्यूज पोर्टल द नार्दर्न गजेट के संपादक एसएमए काजमी ने डुग डुगी के लिए डॉ. चांदना से वार्ता की। एसएमए काजमी ने लगभग 35 वर्ष से अधिक समय तक देश के नामी अंग्रेजी अखबारों में वरिष्ठ पदों पर सेवाएं प्रदान कीं।
डॉ. चांदना अब थोड़ा कम सुन पाते हैं, लेकिन पुराने जमाने की जानकारियां, पुराने लोग उनको अब भी याद हैं। उन्होंने हाईस्कूल (उस समय मैट्रिक) की पढ़ाई बन्नू जिला( अब पाकिस्तान में है) में की थी। जन्म बन्नू में अप्रैल 1924 को हुआ था। बताते हैं, “मैट्रिक करने के बाद, हम देहरादून आ गए।”
“हरिद्वार स्थित ऋषिकुल आर्युवेदिक कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई की, यह कॉलेज उस समय मेडिकल की पढ़ाई का सबसे बड़ा केंद्र होता था।”
बताते हैं, “उस समय यानी 1945 के आसपास डॉक्टर की फीस दो रुपये थी, जो उस जमाने के हिसाब से ज्यादा था। गरीबी बहुत थी, लोगों के पास पैसा नहीं था। कई बार ऐसा भी होता था, चेकअप कराने वाले रोगी हाथ जोड़ लेते थे। हमने उनसे फीस नहीं ली। कोई एक रुपया देकर ही चला जाता था। क्या करते, उस समय के हालात को हम जानते थे। तांगा चलाने वाले व्यक्ति की एक दिन की आमदनी ही चवन्नी, अठन्नी, रुपया होती थी, उसमें भी उनको घोड़े को चारा, गुड़ आदि खिलाना होता था।”
“उस समय देहरादून में चार दवाखाने थे। बीमारियों में टीबी के केस ज्यादा थे। गरीब लोगों को टीबी की शिकायत अधिक थी, इसकी वजह भोजन में पोषण नहीं होना भी था। लेप्रोसी के पेशेंट भी थे। बाकी तो सीजनल बीमारियां थीं, जैसे बुखार, खांसी-जुकाम बगैरह।”
“पहले, क्लीनिक चकराता रोड पर दूसर तरफ था। क्लीनिक जिस भवन में खोला था, उसका किराया 35 रुपये प्रतिमाह होता था। यह किराया भी भारी लगता था। प्रतिदिन चार-पांच रुपये तक फीस मिल जाती थी। इस हिसाब से हमारे सभी खर्चे पूरे हो जाते थे। किराया भी चुका देते थे”, डॉ. चांदना हंसते हुए कहते हैं।
उन्होंने बताया, “ऐसा भी होता था, मरीज के पास दवा के पैसे नहीं होते थे, तो महिलाएं अपने कुंडल, कड़े रखने को कहती थीं। पर, हमने कभी कोई सामान नहीं रखा। कह देते थे, जब आपके पास पैसे हों, दे जाना। इनमें से अधिकतर लोग पैसे देकर गए।”
आज भी डॉ. चांदना प्रतिदिन चार घंटे यानी दोपहर में 12 से दो और फिर शाम को छह से आठ बजे तक क्लीनिक में मरीजों का चेकअप करते हैं। बताते हैं, “सुबह 11 बजे तक तैयार होकर क्लीनिक पहुंच जाता हूं।”
डॉ. चांदना के अनुसार, “देहरादून में आठ तांगे चलते थे। रेलवे स्टेशन और पोस्ट आफिस के पास जहां शौचालय है, वहां तांगा स्टैंड होते थे। ये तांगे रेलवे स्टेशन और राजपुर रोड के लिए चलते थे। वैसे, लोग पैदल चलना या फिर साइकिल की सवारी पसंद करते थे। उनको जब भी किसी रोगी को आपात स्थिति में देखने के लिए जाना होता था, वो साइकिल से ही जाते थे।”
“पहले, सड़कों पर लोग कम होते थे। पलटन बाजार खाली-खाली दिखता था। यह इसलिए भी, क्योंकि राजपुर, प्रेमनगर सहित पूरे शहर की आबादी ही 30 हजार के आसपास थी। रही बात गाड़ियों की, तो यहां चार टैक्सियां थीं, जिनमें से दो मसूरी आने-जाने में रहती थीं। एक चकराता का चक्कर लगाती थी और एक अन्य रूट्स पर चलती थी।”
“1947 में पार्टिशन के दौर में उनका परिवार राजपुर रोड पर गंगा राम अपार्टमेंट्स में रहते थे, जहां वर्तमान में चर्च भी है।”
“अमूमन हर घर में लीची के पेड़ होते थे। लीची बाजार में सस्ती मिलती थी। उस समय फलों और सब्जियों की बिक्री करने वाले लोगों की संख्या अधिक थी। फल टोकरियों में बिकते थे। दो साइज की टोकरियां पांच और दस सेर( एक सेर का मतलब 933 ग्राम) वजन की होती थीं। आठ आने में पांच सेर की एक टोकरी आम मिल जाते थे।”
बदलते मौसम पर बात करते हुए डॉ. चांदना कहते हैं, “अब तो बहुत गर्मी हो गई। यह बात सही है कि एक जमाने में देहरादून में पंखे भी नहीं चलते थे। एक साल तो घंटाघर पर बर्फ पड़ी थी। राजपुर में तो बर्फ हर साल पड़ती थी।”
बताते हैं, “जहां इन दिनों घंटाघर है, वहां बाग था, उसमें चाय का ढाबा था, जिसमें मामा का चाय का ढाबा कहा जाता था।”
डॉ. यूसी चांदना के ज्येष्ठ पुत्र 75 वर्षीय उमेश चांदना, जिन्होंने डीएवी पीजी देहरादून से पढ़ाई पूरी की। आप पिता के क्लीनिक के साथ ही अपना दवाखाना चलाते थे। कहते हैं, “मैं 1974-75 से ही पिता के कार्यों में सहयोग करने लगा। मैं सौभाग्यशाली हूं कि पिता के साथ कार्य करने का अवसर मिला। मेरे दादा जी की डिस्पेंसरी रोड पर टेलर की शॉप थी। पिता डॉ. यूसी चांदना ने बहुत मेहनत की और हमेशा रोगियों की सेवा के लिए बढ़ चढ़कर कार्य किया। कई परिवार ऐसे हैं, जिनकी तीसरी – चौथी पीढ़ी का उपचार डॉ.चांदना करते हैं।”
चकराता रोड के निवासी सुनील श्रीवास्तव बताते हैं, “उनके पिता जी डॉ.चांदना के पास ही उपचार कराते थे। मैं खुद और बेटा भी डॉ. चांदना के क्लीनिक में आते हैं। हमें इन पर विश्वास है, हमें आपकी दवाइयों से राहत मिलती है।”