हम शर्मिंदा हैंः इसलिए बच्चों के साथ बैग लेकर स्कूल तक आठ किमी. पैदल चले
- राजेश पांडेय
देहरादून के पर्वतीय गांवों के बच्चों की पीड़ा को महसूस करने के लिए हम उनके साथ, गांव से स्कूल तक करीब आठ किमी. पैदल चले। हम इन बच्चों के सामने इसलिए शर्मिंदा हैं, क्योंकि हमने आज तक इनके बारे में सोचा तक नहीं था। क्या ये हमारे बच्चों की तरह नहीं हैं। क्या हमें इनकी मुसीबतों को दूर करने के लिए पहल नहीं करनी चाहिए, और भी बहुत सारे सवाल हैं, जिनमें से अधिकतर के जवाब किसी के पास नहीं हैं।
बच्चों के साथ स्कूल तक जाने और तमाम चुनौतियों पर एक रिपोर्ट-
बच्चों ने मुझे पछाड़ दिया, मैं उनसे बहुत पीछे रह गया। वो मेरे से बहुत आगे थे, मैं ऊपर पहाड़ी से उनको देखकर अचंभे में पड़ गया, कि ये इतनी तेजी से वहां कैसे पहुंच गए। इसलिए तो मैंने उनको सलाम किया और कहा, कोई तुम्हें आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता। आखिर में, उन्होंने मुझसे कहा, सर… आप फेल हो गए, पर हमें तो आगे बढ़ना है…
हल्द्वाड़ी की सुबह, समय यही कोई सवा पांच बजे। कमरे से बाहर आते ही हमें दिखता है गौरण का टिब्बा, जिसकी सैकड़ों वर्ष पुरानी शान, आज भी बरकरार है। वो कभी बादलों के पीछे छिप जाता है और कभी बादल उसकी गोद में होते हैं। इसकी अपनी कहानी हैं, जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा।
हल्द्वाड़ी में सौंग की आवाज साफ सुनाई देती है। नदियों की आवाज, वहीं सुनाई देती है, जहां शांति हो, सुकून हो। मैंने कभी डोईवाला में सौंग की आवाज नहीं सुनी।
सोमवार (20 सितंबर, 2021) की सुबह छह बजे तक तैयार होकर अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ,अरुण नेगी के घर से चलकर उस रास्ते पर पहुंच गया, जहां से बच्चे स्कूलों की ओर कदम बढ़ाते हैं।
अरुण नेगी, हल्द्वाड़ी में ही रहते हैं। स्कूल जाते बच्चों से मुलाकात के लिए हम एक दिन पहले उनके घर पहुंच गए थे। रविवार रात बारिश बहुत तेज थी और थानो से लेकर हल्द्वाड़ी तक का हमारा सफर जोखिम में पूरा हुआ।
हम हल्द्वाड़ी गांव की आंगनबाड़ी के पास, बच्चों का इंतजार कर रहे थे और रास्ते में जौंक हमारा। हमारे पैरों पर जौंक का हमला हो गया, किसी तरह जौंक हटा रहे थे। करीब सात बजे तक एक भी बच्चा, स्कूल की ओर जाते नहीं दिखा। हमें जानकारी मिली, जहां हम खड़े हैं, वहां से बच्चों के घर बहुत दूर हैं।
इसी बीच हमारी मुलाकात राहुल सोलंकी से हुई, जो कक्षा 9 में पढ़ते हैं।
राहुल, खीरे (स्थानीय बोली में ककड़ी) से भरा कट्टा लेकर आ रहे थे। बताते हैं, पापा को शहर जाना है, यह लेकर। खीरा यहां से लोडर में जाएगा। राहुल रंगड़ गांव के स्कूल में पढ़ते हैं। उन्होंने बताया कि स्कूल छह किमी. दूर है। अब तैयार होकर स्कूल जाना है। गांव से छह बच्चे रंगड़ गांव जाते हैं। रंगड़ गांव टिहरी जिले में है, वहां जाने के लिए सौंग नदी पार करना पड़ती है।
कुछ देर में, हम देखते हैं स्कूल बैग टांगे हुए बच्चे, जिनमें बेटियां भी शामिल हैं, हमारी तरफ बढ़ रहे हैं। हमने उनसे कहा, हम भी आपके साथ, स्कूल चलेंगे। हम आपकी तरह ही बैग लेकर चलेंगे, इस रास्ते पर। हम भी महसूस करेंगे, आपके कष्ट को। आप भी तो हमारे लिए, हमारे अपने बच्चों की तरह ही तो हो।
बच्चे मुस्कराकर हमारी ओर देखकर बोले, चलो…। कितनी देर लगेगी स्कूल पहुंचने में, जवाब मिला- दो घंटे में पहुंच जाएंगे। बच्चों ने बताया, हम सबसे दूर से जाते हैं स्कूल, इसलिए हमें आधा घंटा देरी से पहुंचने पर डांट नहीं पड़ती।
बारिश से चार किमी. का कच्चा रास्ता खराब है। कहीं- कहीं पहाड़ी से गिरा मलबा बिखरा है और कहीं पानी भरा है। चीड़ के जंगल के बीच से होकर सुबह-शाम घर से स्कूल और स्कूल से घर की ओर निकलता है बच्चों का दल, जिसमें कक्षा छह से 12वीं तक के बच्चे शामिल हैं।
हल्द्वाड़ी में रहने वाले कक्षा आठ तक के बच्चे लड़वाकोट की ओर ढलान पर चले जाते हैं। वहीं, लड़वाकोट से आ रहे कक्षा नौ से 12वीं तक के बच्चे, धारकोट जाने वालों के साथ शामिल हो जाते हैं।
रास्ते में पलेड कलां का एक बच्चा, जो सातवीं में पढ़ता है, इस दल में मिल जाता है। कुछ और आगे बढ़े तो पलेड कलां की कुछ बेटियां मिल गईं, ये भी धारकोट इंटर कालेज में पढ़ती हैं। कुल मिलाकर, हम हल्द्वाड़ी, पलेडकलां, लड़वाकोट, पलेड के बच्चों के साथ चल रहे थे।
अपर तलाई वाले रुट से चित्तौर तथा बडेरना कलां, खुर्द और मझला से भी बच्चे धारकोट पहुंचते हैं। हमारी जानकारी के अनुसार, इन बच्चों की संख्या 43 है। इन गांवों से स्कूल तक की दूरी कम से कम छह से आठ किमी. है। कुल मिलाकर, बच्चों को कम से कम 12 से 16 किमी. पैदल चलना पड़ता है। वो हर मौसम में स्कूल आते हैं, बरसात और गर्मियों में उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा रहता है।
एक बिटिया ने बताया, हम सभी बच्चे छाते लेकर आते हैं। हमारे बस्ते, कापियां किताबें भींग जाते हैं। रास्ता तो आप देख ही रहे हो। अगर, रास्ता बन जाता है तो हम साइकिलों से भी यहां आ सकते हैं। हम गांव से कोई वैन बुक कर सकते हैं। इन खराब रास्तों पर हमें कौन स्कूल तक छोड़ेगा।
हमने बच्चों को, शार्टकट रास्तों से चलते हुए देखा। उन्होंने हमें भी आवाज लगाकर कहा, हमारे पीछे आओ, जरा संभलकर चलना। फिसलन है। पैरों को जमाकर ढलान पर उतरना। इन रास्तों में बरसात में पानी बहता है। यहां रास्ते के नाम पर पगडंडी कहो या फिर पानी बहने का निशान दिखाई देता है। हमें बेवजह उग आई झाड़ियों के बीच से होकर बच्चों के पीछे -पीछे चले। ढलान पर चीड़ की नुकीली पत्तियां, जिन्हें पिरूल कहा जाता है, रास्ते में बिखरकर फिसलन करती हैं।
जौंक बच्चों का पीछा नहीं छोड़ रही थीं। हमने देखा, बच्चे रास्ते में रुक रुककर पैरों और जूतों से जौंक निकालते रहे। कुछ बच्चों ने सैंडल और चप्पल पहनी थीं, ये बच्चे जौंक के लिए सॉफ्ट टारगेट हैं। जौंक को पैरों से अलग करने पर खून निकलता है। कुछ बच्चों के कपड़ों में खून के धब्बे लग गए।
बच्चे बताते हैं, इस रास्ते में जौंक का बहुत डर रहता है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब जौंक पैरों से खून नहीं निकालती।
कुछ ही दूरी चलकर, मैं हांफने लगा। इसकी वजह, मेरा पहाड़ों के कठिन रास्तों पर चलने की आदत नहीं है।
बच्चे जितना तेजी से आगे बढ़ रहे थे, हम उतना पीछे छूट रहे थे। हमें फिक्र थी कि बच्चों के स्कूल का समय न निकल जाए। मेरा ध्यान मोबाइल फोन पर गया, अभी आठ बजकर नौ मिनट हुए थे। बच्चों के पास, लगभग एक घंटा था। बच्चों ने बताया था कि नौ बजे तक स्कूल पहुंच जाएंगे। वैसे भी, उनके शिक्षक जानते हैं कि वो दूर से आते हैं, इसलिए हमें आधा घंटा बाद भी स्कूल पहुंचने की छूट है। थोड़ा लेट हो जाएं तो भी चलेगा।
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बच्चे बताते हैं, हमारे टीचर बहुत अच्छे हैं। पहली क्लास हमारे पहुंचने पर ही शुरू होती है। वो हमारा इंतजार करते हैं। पढ़ाई ठीक ही चल रही है। घर और स्कूल के बीच दौड़भाग में थक जाते हैं। घर पर पढ़ाई सही से नहीं हो पाती।
बच्चों को घर के काम भी करने होते हैं। हल्द्वाड़ी में बच्चों को घरों से करीब एक से डेढ़ किमी. स्रोत तक पानी भरने जाना पड़ता है। सुबह- शाम उनकी ड्यूटी स्रोत पर लगती है। इसमें पढ़ाई प्रभावित होती है। हालांकि, परिवार के और लोग भी, पानी ढोते हैं।
पलेड गांव के एक बच्चे से पूछा, बस्ते में क्या है। उसने बताया, किताबें, कॉपियां, टिफिन और पानी की बोतल। आज आप इंटरवल में क्या खाने वाले हो। बच्चे ने जवाब दिया, आज मम्मी ने टिफिन में पतोड़ (अरबी के पत्तों और बेसन से बनने वाला पकौड़ा) रखे हैं। ये बच्चे सुबह नाश्ता करके स्कूल के लिए निकलते हैं। उनके बैग में लंच बॉक्स और पानी की बोतल बहुत महत्वपूर्ण हैं।
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एक बच्चे के सवाल ने हमें मुश्किल में डाल दिया, उनका कहना था कि अभी तो आप ढलान पर चल रहे हो। पर, हमें तो वापस घर लौटना है, इतनी ही चढ़ाई चढ़कर। आज बारिश नहीं है और धूप भी ज्यादा नहीं है। बरसात और गर्मियों में हमें काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। हमें अहसास हुआ कि हमने बच्चों की पूरी दिक्कतों एवं कठिन श्रम का केवल एक तिहाई हिस्सा ही महसूस किया।
एक जगह मैं बच्चों से काफी पिछड़ गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि मैं फोटो खींचने में व्यस्त हो गया था। बच्चे शॉर्टकट रास्ते से होते हुए आगे बढ़ गए थे। मैं ढलान पर तेजी से चलने की कोशिश में फिसलते फिसलते बचा। मैंने झाड़ियों का कसकर पकड़ लिया। तभी एक बच्चे आयुष की आवाज सुनाई, वो मेरे लिए रुक गया था। उसने कहा, सर, थोड़ा संभलकर चलो।
एक महत्वपूर्ण बात, जो समझ में आई, वो है इन बच्चों का उत्साह। इतने कठिन संघर्ष के बाद भी, उनके चेहरों पर थकान, निराशा को नहीं देखा। वो खुशी खुशी, हंसकर बात कर रहे थे। स्कूल जाते हुए बहुत खुश दिख रहे हैं। अपनी बात भी रख रहे हैं। उनके पास सपने हैं, इच्छाएं हैं, आगे बढ़ने के लिए कुछ करना चाहते हैं ये सभी बच्चे।
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सभी मेधावी बच्चे हैं। सभी बेटे-बेटियां पढ़ लिखकर भारतीय सेना में शामिल होना चाहते हैं। उनकी इच्छा सेना में जाकर देश का नाम रोशन करने की है। बच्चों से उनके सपनों, इच्छाओं को जानकर बहुत खुशी हुई। इनमें से एक बच्चा कहता है, सर आर्मी में जाने की तैयारी तो हम कर ही रहे हैं। रोज 16 किमी. चलते हैं। इस पर सभी बच्चे हंसने लगे।
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इनके लिए ऑनलाइन और ऑफलाइन क्लास, दोनों ही चुनौतीपूर्ण हैं। इनके गांव में मुश्किल से ही नेटवर्क मिलता है। कोविड-19 के दौरान, ऑनलाइन क्लास मुश्किल से ही अटेंड कर पाए।
कच्चे रास्ते पर हमें लड़वाकोट स्कूल जाने वाले शिक्षक जितेंद्र जी मिले, जिनको दूर से देखते ही बच्चे बहुत खुश दिखे। कहने लगे, सर… वो देखो हमारे सर आ रहे हैं। उनसे भी बात करो। जितेंद्र करीब 22 किमी. दूर भोगपुर से बाइक पर स्कूल जाते हैं।
पांच शार्टकट, कहीं पथरीला, कहीं दलदल वाला, कहीं समतल, कहीं ऊंचा नीचा, तो कहीं सड़क पार करके आखिरकार दो घंटे के सफर के बाद बच्चे धारकोट गांव में पहुंच गए।
अब वो स्कूल के गेट पर थे। उनके हाथों को सैनिटाइज किया गया। सभी बच्चों ने अपनी-अपनी कक्षाओं में प्रवेश किया।
इसके साथ ही हल्द्वाड़ी गांव से स्कूल तक हमारी यह पैदल यात्रा भी संपन्न हो गई।
हमें अभी ओर यात्राएं करनी हैं…
इस यात्रा में, बच्चों से कभी चलते-चलते, कभी रुककर, समस्याओं और समाधान भी बात हुई। वहीं, कुछ सवालों भी हैं, जिन पर काम करना किसी भी सरकारी सिस्टम के लिए कोई बड़ी बात नहीं है।
1. स्कूल की भागदौड़ से बचाने को, क्या इन बच्चों के लिए स्कूल के पास ही बोर्डिंग की व्यवस्था नहीं की जा सकती।
2. जब तक सड़क नहीं बन जाती, तब तक के लिए क्या ऑनलाइन माध्यम से गांव में ही स्कूल नहीं लग सकता। कोविड के दौर में तो, ऑनलाइन कक्षाओं से पढ़ाई का खूब दावा किया गया था।
जब वीडियो कान्फ्रेंसिंग पर विकास कार्यों की समीक्षा की जा सकती है, तो यहां वर्चुअल क्लास क्यों नहीं लगाई जा सकती। डिजीटल इंडिया का नारा तो यहां भी सफल होना चाहिए।
3. जब राज्य में बड़ी -बड़ी टनल बनाई जा रही हैं, क्या इनके गांवों तक सड़क नहीं पहुंच सकती। क्या इन बच्चों के गांवों तक सड़क एवं पानी सहित अन्य सुविधाएं नहीं पहुंचनी चाहिए।
4. जब तक सड़क नहीं बनती, तब तक क्या वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर इन बच्चों को कच्चे रास्ते तक वैन से स्कूल आना-जाना नहीं कराया जा सकता।
5. स्कूल जाने वाली बेटियों को साइकिलें देने, ऑनलाइन क्लास के लिए छात्र-छात्राओं को टैबलेट देने के दावे सरकारें करती रही हैं, पर क्या किसी ने सोचा है कि साइकिलें और टैबलेट तो यहां तभी सफल हो पाएंगे, जब गांव से स्कूल तक सड़क होगी और इंटरनेट नेटवर्क सही होगा।
6. क्या इन बच्चों के पौष्टिक भोजन की व्यवस्था स्कूल में नहीं की जा सकती।
7. क्या हॉस्टल में रहने, भोजन -पानी की सुविधाएं प्रदान करके, इन बच्चों को खेल प्रशिक्षण में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।
8. जब हल्द्वाड़ी गांव में बिजली की व्यवस्था है तो वहां की पेयजल पंपिंग योजना सोलर से क्यों जोड़ी गई।
9. क्या ये बच्चे हम सभी के लिए, अपने बच्चों की तरह नहीं हैं। क्या इनकी दिक्कतों को दूर करने के लिए हमें प्रयास नहीं करने चाहिए।
राजीव गांधी पंचायत राज संगठन के प्रदेश संयोजक मोहित उनियाल साफ तौर पर स्वीकार करते हैं, राजनीतिक दलों ने इन गांवों में सुविधाओं का आधार केवल वोट को माना है, इसलिए यहां वर्षों से चली आ रही समस्याओं का समाधान नहीं हो सका।
वो सवाल उठाते हैं, क्या राजनीतिक दलों, सरकारी सिस्टम, जन प्रतिनिधियों, मीडिया, सिविल सोसाइटीज सहित उन सभी लोगों को शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, जो जनहित के कार्यों के बड़े- बड़े दावे करते हैं। राजधानी से लेकर छोटे बड़े शहरों, गांवों के रास्तों पर लगे होर्डिंग उन क्षेत्रों को चिढ़ाते हैं, जहां के बच्चे केवल स्कूल तक पहुंचने, पानी इकट्ठा करने की दौड़ में अपना अधिकतर समय बिताने को मजबूर हैं।
हमारी इस यात्रा में कोई भी वो व्यक्ति शामिल हो सकता है, जो वास्तव में इन गांवों में सुविधाएं नहीं पहुंचने पर शर्मिंदगी महसूस करता है। चाहे, वो व्यक्ति किसी भी राजनीतिक दल से हो, संस्था, व्यावसायिक उपक्रम, जनप्रतिनिधि या नौकरशाह ही, क्यों न हो।
फिर मिलते हैं, एक और स्टोरी के साथ…।