कहानी संघर्ष कीः आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मधुर वादिनी के साथ पहाड़ की बात
टिहरी गढ़वाल के घनसाली क्षेत्र के पूर्वाल गांव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं मधुर वादिनी तिवारी
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग
टिहरी गढ़वाल के घनसाली क्षेत्र के पूर्वाल गांव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मधुर वादिनी तिवारी। जैसा नाम वैसे ही मधुर गीतों और काव्य रचनाओं का पाठ करती हैं मधुर वादिनी जी। आपके स्वरचित गीत पहाड़ के गांवों से पलायन, महिलाओं के संघर्ष, बुजुर्गों की बातों, खेत खलिहानों और बदलती जीवन शैली के साथ रिश्तों में बदलाव को रेखांकित करते हैं। जब आप गीतों को स्वरबद्ध करती हैं तो लगता है आपको सुनते जाओ, सुनते जाओ…।
देहरादून में एक साक्षात्कार में, मधुर वादिनी बताती हैं, कैसे उन्होंने गांव में उनकी बेटियों और महिलाओं को पढ़ाई लिखाई से जोड़ा, जो अक्षर भी नहीं पहचान पाती थीं और एक या दो कक्षा में ही स्कूल छोड़ दिया था।
उन्होंने एक किस्सा साझा किया-
“वर्ष 1992 में गांव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की जिम्मेदारी संभाली थी। ड्यूटी निभाने के साथ घर के कामकाज निपटाना, खेतीबाड़ी में हाथ बंटाना, घर और पशुओं के लिए दूर स्रोत से पानी लाना दिनचर्या का हिस्सा था।”
“उन दिनों मेरी बिटिया ने आंगनबाड़ी से प्राइमरी स्कूल में दाखिला लिया था। बेटा बहुत छोटा था। आंगनबाड़ी जाने से पहले स्रोत से पशुओं के लिए पानी भरना होता था। एक दिन पानी लेने स्रोत पर जाते समय, मैंने कुछ लड़कियों की बात सुनी। इनमें से एक लड़की अपनी सहेली से कह रही थी, तूने इस चिट्ठी में वो सबकुछ नहीं लिखा, जो मैंने तुझसे बोला था। दूसरी का जवाब था, जो तूने मुझे बताया, वो सबकुछ मुझे याद नहीं रहा, मैंने कुछ तेरी और कुछ बातें अपनी तरफ से लिख दीं।”
“उन दोनों लड़कियों की बातें सुनकर मैं सोचने लगी, क्या इसको लिखना पढ़ना नहीं आता होगा। करीब 16 साल की इस लड़की ने वास्तव में पढ़ाई नहीं की होगी। यह भी हो सकता है, इसका लेख अच्छा नहीं होगा, इसलिए अपनी सहेली को चिट्ठी लिखने को कहा होगा। मेरा मन यह जानने के लिए बेचैन हो गया कि यह लड़की चिट्ठी क्यों नहीं लिख पा रही है।”
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“मैंने विचार किया, इससे बात की जाए। पर, यह भी सोचने लगी कि यह मुझे जवाब न दे दे कि तुम छिपकर हमारी बातें सुन रही थीं क्या। मैंने पानी लाने के लिए स्रोत के तीन-चार चक्कर लगा दिए। लगातार यही सोचती रही कि यह लड़की चिट्ठी क्यों नहीं लिख पा रही है।”
“आखिरकार, मैंने उस लड़की के घर पहुंचकर पूछ ही लिया, तुम चिट्ठी क्यों नहीं लिख पाती। उसने कहा, मैं एक क्लास तक ही स्कूल गई थी, आप तो परिस्थितियों को जानते ही हो , कभी कॉपी नहीं होती तो कभी किताब या पेंसिल नहीं, तो कभी यूनिफार्म नहीं।”
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” मैंने उससे कहा, क्या तुम पढ़ना चाहती है, उसने तुरंत हां कर दी। पूछा, क्या आप मुझे पढ़ाओगे। मैं कहा, मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी, आज से ही। उसने कहा, ठीक है, मैं आपके घर आ जाती हूं। मैंने उससे कह दिया, जब समय होगा, तुम्हें पढ़ाऊंगी। तुम चाहो तो मेरे साथ अभी मेरे घर चल सकती हो। कॉपी, पेंसिल, किताब सबकुछ है मेरे पास।”
“मैं अपनी बिटिया को अक्षर ज्ञान करा रही थी, उसको भी पढ़ाना शुरू कर दिया। उससे कहा, अ से ज्ञ तक लिखो। उसने बहुत सुंदर राइटिंग में लिखा। जब अक्षर जोड़कर शब्द पढ़ने की बात आई तो वह अक्षरों की पहचान नहीं कर पाई। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इसने अ से ज्ञ तक केवल रटा हुआ है।”
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“अब उसने प्रतिदिन पढ़ना शुरू किया। चार-पांच माह में लिखना, पढ़ना सीख गई। थोड़ा बहुत अंग्रेजी, हिसाब में जोड़ना, घटाना, गुणा करना, भाग देना सीखा। इसके बाद, उसको अनौपचारिक शिक्षा केंद्र से पांचवी की परीक्षा पास कराई। वो अब चिट्ठी लिखना जान गई थी।”
“मेरे कहने पर उसने मुझसे वादा किया है कि वो मुझे चिट्ठी लिखेगी। उसकी शादी हो गई है और वो मुझे चिट्ठी लिखती है। यह किस्सा इसलिए बता रही हूं कि पढ़े लिखे लोग, उन सभी को साक्षर एवं शिक्षित बनाने के लिए प्रयास करें, जो स्कूल नहीं जा रहे हैं या लिखना पढ़ना नहीं जानते।”
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मधुरवादिनी कहती हैं, “आंगनबाड़ी कार्यकर्ता होना, मेरे लिए गर्व की बात है। मैं अपने गांव में ही रहकर महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों के लिए कार्य कर रही हूं। अधिकतर वक्त महिलाओं और बच्चों के साथ बीतता है। हमें बीएलओ की जिम्मेदारी भी मिली है। ग्रामसभा के कई गांवों तक पैदल ही जाना होता है। धूप हो, बरसात हो या सर्दियां या बर्फबारी ही क्यों न हो, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती हैं। आखिरकार, जमीनी स्तर पर हमारे कार्यों और हमारे द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों से देश के विकास की राह तैयार होती है।”
” कभी गांवों के खेतों से ऊंचे नीचे खेतों से होकर, कभी पगडंडियो से होकर, कभी धूप में बैठकर सुस्ताते हुए, कभी धारों का पानी पीकर यात्रा करनी पड़ती है। कई बार जंगली जानवरों से भी सामना हुआ है। रास्ते में जंगली बड़ी छिपकलियां मिलना तो आम बात है।”
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बताती हैं, “किसी एक जानकारी के लिए दूरस्थ गांवों में बार-बार जाना पड़ता है। महिलाओं के पास फोन तो मिल जाता है, पर उनमें से कई महिलाओं को फोन नंबर नहीं पता होता। उनको केवल इतना पता होता है कि फोन कैसे चलाना है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उनके फोन से अपने फोन में नंबर मिलाने की कोशिश की तो फोन रीचार्ज नहीं मिला। बच्चे उनके फोन में लॉक लगा देते हैं। महिलाएं बहुत मेहनत करती हैं, उन पर खेतीबाड़ी, पशुपालन, परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी होती है।”
” हम महिलाओं को शिक्षा का महत्व बताते हैं, उनको कौशल विकास के लिए प्रेरित करते हैं। स्थानीय संसाधनों पर आधारित उत्पाद बनाने, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई करने, सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत कौशल विकास का प्रशिक्षण लेकर आजीविका की गतिविधियों से जुड़ने की बात बताते हैं। ”
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मधुवादिनी बताती हैं, “बच्चों की पढ़ाई लिखाई, उनको अच्छी तरह से तैयार करने आंगनबाड़ी, स्कूल भेजना महिलाओं की जिम्मेदारी है।”
“यह बहुत दुख की बात है कि शराब का नशा बड़ी बुराई बनकर पुरुषों को जकड़ रहा है। नशे के खिलाफ तो एक लड़ाई लड़नी होगी। नशे पर रोक लगनी चाहिए। नशे का दुष्प्रभाव पूरा परिवार झेलता है। गरीबी का एक बड़ा कारण नशा भी है।”
गुलदार, जिसे सामान्य रूप से लोग बाघ कहते हैं, से आमना सामना होने का एक किस्सा साझा करते हुए मधुरवादिनी तिवारी बताती हैं, ” करीब दस साल पहले की बात है। सर्दियों का महीना था, शाम के यही कोई तीन-चार बजे होंगे। आंगनबाड़ी के कार्य से घनसाली गई थी। वहां से लौट रही थी, ड्राइवर ने जगदीगाड़ में गाड़ी रोक दी। मैंने कहा, मुझे तो आगे पूर्वाल गांव तक जाना है, उसने कहा, बस यहीं तक, इससे आगे नहीं जा पाऊंगा। गलती मेरी थी, क्योंकि मैंने भी उससे नहीं पूछा था कि वो कहां तक जाएगा।”
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” मैं इस आत्मविश्वास में रही, मेरे पास एक थैले के अलावा कोई भारी सामान तो है नहीं, पैदल ही चली जाऊंगी। इतना तो हम पहाड़ के लोग पैदल चलते रहते हैं। उस गाड़ी वाले ने मुझसे कहा, तीन सौ रुपये में आपको गांव तक छोड़ दूंगा। मैंने उसे साफ मना कर दिया। उसने कहा, थोड़ा संभलकर जाना आप। मैंने उससे कहा, मुझे पता है अपने गांव का रास्ता।”
” पर, मैं कुछ भुलावे में थी। अंथवाल गांव सहित दो-तीन गांव पार करने थे मुझे। यह तो पता था, पर सुनसान पहाड़ का रास्ता, इसके बारे में मैंने नहीं सोचा था। मैं चली जा रही थी, रास्ते में कोई नहीं दिख रहा था। अचानक मुझे झाड़ियों में हलचल दिखी। किसी जानवर की पूंछ दिखाई दी। सोचा, यह बिल्ली होगी।”
” थोड़ी ही देर में बड़ी बिल्ली यानी बाघ मेरे से कुछ दूरी आगे रास्ते पर छलांग लगाते हुए नीचे ढलान पर नजर आया। मैं बुरी तरह घबरा गई। मैंने अपने बड़ों से सुना है, सांप की घेरा और बाघ का फेरा तो पहाड़ में लगता रहता है।”
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“यह घटना मैंने आज तक परिवार में भी किसी को नहीं बताई। आज पहली बार इस साक्षात्कार में साझा कर रही हूं। मैंने घर जाकर इसलिए नहीं बताया था, क्योंकि वो मुझे कभी अकेले बाहर आने-जाने नहीं देंगे।”
बताती हैं, ” मैं गांव छोड़ सकती थी, मुझे देहरादून या दूसरे शहरों में नौकरी मिल सकती थी, पर मुझे गांव पसंद है। यहां आबोहवा और अपना तिमंजिला मकान, जिसे हम तिपुर बोलते हैं। मेरा कमरा तीसरी मंजिल पर था, जहां मैंने शादी के बाद बीए की पढ़ाई की। अगर हम गांव छोड़ देते तो यह तीन मंजिला पुराना मकान खंडहर बन जाता, इसमें तमाम तरह की घास उग जाती। हम हर त्योहार गांव में मनाते हैं।”
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” आज भी गांव में धान, गेहूं, राजमा, मंडुआ, झंगोरा और सब्जियां उगाते हैं। गांव से सब्जियां,सिलबट्टे पर पीसा गया नमक बच्चों के पास शहर में लेकर आते हैं। गांव की खुश्बू शहर तक लेकर आते हैं। कुछ दिन शहर में रहकर फिर गांव लौट जाएंगे।”
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” शादी 18-19 साल की उम्र में हो गई थी। उस समय भी, मैं घर के सभी कार्य जानती थी। पशुपालन, खेतीबाड़ी में हाथ बंटाना, स्रोत से पानी लाना, खाना बनाना, सबकुछ। मुझे सास का बहुत स्नेह मिला। मैं घास की छोटी सी गठरी भी ले आती तो वो पड़ोस में सबको दिखाती और मेरी तारीफ करती। कहती, मेरी बहु को पशुओं को पालने, खेती में रूचि तो है। हमारे लिए यही काफी है। मैं बीए में पढ़ रही थी। घर के कामकाज निपटाकर और पढ़ाई करने के बाद देर में सोती थी। सबसे देरी सुबह छह बजे सोकर उठती, पर उन्होंने कभी नहीं कहा। उन्होंने हमेशा सहयोग किया।”