डुग डुगी अगस्त 2020
मैं बहुत छोटा था और मुझे कॉपियों पर यूं ही पेंसिल चलाने में बहुत मजा आता था। स्कूल में एडमिशन हो गया था। दो-तीन कॉपियों, रंग बिरंगे चित्रों वाली एक किताब और पेंसिल के साथ स्कूल का पहला दिन। मेरी मां मुझे यह सबकुछ बताती हैं। थोड़ा बहुत मुझे याद है। जिस स्कूल में मेरा एडमिशन कराया गया था, वह दो कमरों वाला था। नया-नया स्कूल था और बच्चे भी ज्यादा नहीं थे। आज जब भी वहां से होकर गुजरता हूं तो कभी कभार अपने पहले स्कूल की याद आ जाती है। स्कूल की जगह अब वहां एक दुकान है।
खैर, अब आपको अपनी पढ़ाई के बारे में बताता हूं। मुझे शुरुआत से लेकर आज तक पढ़ाई में बहुत ज्यादा होशियार नहीं माना जाता था। बचपन में होमवर्क मेरे लिए सबसे जरूरी था। पहले दिन से ही होमवर्क के नाम पर कॉपी पर कुछ लकीरें खींचने को मिल गईं थीं। मुझे बिन्दुओं को मिलाकर सीधी, तिरछी लाइनें बनानी थीं। मां मेरा हाथ पकड़कर मुझे यह होमवर्क कराती थीं। कभी कभी यह काम पड़ोस में रहने वाली दीदी को सौंप दिया जाता था।
शुरुआत में मैंने कभी लाइन खींचने में रूचि नहीं ली, क्योंकि एक बिंदु से दूसरे बिंदु को मिलाने में मुझे लगता था कि यह होमवर्क तो मुझे बांध रहा है। मैं तो अपने मन की करना चाहता था। मेरा मन तो कॉपी पर कहीं भी पेंसिल चलाने में लगता था। अपनी बनाई बेवजह की आकृतियों में वजह तलाशने की कोशिश भी मै करता था। मैंने क्या बनाया, इसका आकलन केवल मैं ही करता था। मुझे डांट के बाद मां का स्नेह भी मिलता था।
समय के साथ मैं सीख गया कि कॉपी पर अपने मन से पेंसिल नहीं चलानी। आपको तो वहीं सबकुछ करना है, जो टीचर और मां चाहते हैं। पूरी पढ़ाई भर मैं कुछ नियमों में बंध गया। मुझे स्कूल, क्लास, होमवर्क के फ्रेम में जड़ सा दिया गया। अब मैं कुछ आजाद हूं और अपने मन की बात आपसे कर रहा हूं। बात करते करते कहां चला गया मैं। एक बात बताऊं आपको… मैं पेंसिल बहुत खोता था। स्कूल से घर लौटता तो पेंसिल गायब। रोज-रोज पेंसिल खोने वाला मैं अकेला कोई था स्कूल में।इसलिए पेंसिल खोने में मुझे अपनी कोई गलती नजर नहीं आती थी।
मां मेरे लिए पेंसिल की अहमियत को समझती थीं। वो मुझे जिम्मेदार बनाना चाहती थीं। उन्होंने मेरी पेंसिल को दो टुकड़ों में बांट दिया। पहले से आधी हो चुकी पेंसिल में डोरी फंसाने की जगह बनाई और फिर पेंसिल को डोरी से मेरे हाथ पर बांध दिया।स्कूल जाते समय पेंसिल मेरे बैग में नहीं होती, वो तो मेरे हाथ पर डोरी से लटक कर स्कूल जाती।
बच्चे मेरे हाथ पर पेंसिल बंधी देखकर खूब हंसते। मैं भी क्या करता, मैं भी उन्हें देखकर मुस्करा देता। मुझे अपनी मां के इस अभिनव प्रयोग पर आज भी गर्व है। उस दिन के बाद कुछ और बच्चे भी हाथ पर पेंसिल बांधकर आने लगे। सच बताऊं, उस दिन के बाद से मेरी पेंसिल कभी नहीं खोई। जब भी डोरी टूटी, मुझे पता चल गया और मैंने पेंसिल को खोने नहीं दिया। मैं अपनी पेंसिल की खूब चिंता करने लगा। स्कूल यूनीफॉर्म की तरह पेंसिल को खुद ही हाथ पर बांधने लगा। इस तरह मैं छोटी सी उम्र में जिम्मेदार बन गया। मैंने अपने बचपन का यह किस्सा साझा करके यह बताने की कोशिश की है कि उस समय कुछ बताने और अहसास कराने के तरीके बड़े अभिनव थे।