उत्तराखंड में महिलाओं ने भाजपा को इसलिए नहीं हटाया सत्ता से
उत्तराखंड में यह पहला मौका है, जब जनता ने 20 साल से चले आ रहे ट्रेंड को तोड़ दिया
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
उत्तराखंड में यह पहला मौका है, जब जनता ने 20 साल से चले आ रहे ट्रेंड को तोड़ा है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव से 2017 तक कांग्रेस और भाजपा को बारी-बारी से सत्ता सौंपने का फैसला सुनाया जा रहा था, लेकिन इस बार जनता ने भाजपा को लगातार एक मौका और दिया है। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि महिलाओं ने इस बार मतदान में बढ़चढ़कर भागीदारी की और उनका मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा 67.20 फीसदी रहा। हालांकि, अगर 2002 के चुनाव को छोड़ दिया जाए तो उत्तराखंड के हर चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा ही रहा है।
2022 के चुनाव की बात करें तो माना जा रहा है, महिलाओं ने भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया। इसकी वजह महिलाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनसे जुड़ी विकास की उम्मीदों का माना जा सकता है। जब हम उम्मीद शब्द की बात करते हैं तो उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में रह रही महिलाओं के मुद्दों की ओर ध्यान दिलाता है। इसलिए यह साफ तौर पर बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि उत्तराखंड की नई सरकार की प्राथमिकता में महिलाओं के मुद्दे होने चाहिए, जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन के साथ ही उनके कार्यबोझ को कम करने से जुड़े हैं।
सवाल उठता है, क्या उत्तराखंड में भाजपा की पिछली सरकार ने महिलाओं के मुद्दों पर काम किया है, क्या अब उनके सामने कोई समस्या नहीं है, क्या उनका कार्यबोझ कम हो गया है, क्या शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क से जुड़ी दिक्कतें दूर हो गई हैं, क्या अब पहाड़ के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं को घरों से कई किमी. दूर स्थित जल स्रोतों की दौड़ नहीं लगानी पड़ रही है, क्या बच्चों को स्कूल के लिए कई किमी. पैदल नहीं चलना पड़ रहा है, क्या महिलाओं के पास अब अपने लिए समय है, क्या पहाड़ में पशुपालन और खेतीबाड़ी आजीविका के मजबूत स्रोत बन गए हैं कि किसी को पलायन की जरूरत ही महसूस नहीं हो रही है, पर हमारा मानना है कि अधिकतर दूरस्थ ही नहीं बल्कि राजधानी के पास के खासकर ग्रामीण इलाकों में भी ऐसा नहीं हो सका है। यदि इनमें से ऐसा नहीं हुआ तो फिर भाजपा को सत्ता में बरकरार रखने का फैसला क्यों लिया गया। आइए, इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश करते हैं-
वर्ष 2012 के चुनाव के बाद से कांग्रेस उत्तराखंड की सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। इसकी वजह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से उत्तराखंड को मिल रहे विशेष सहयोग एवं यहां केंद्र सरकार की बड़ी परियोजनाओं को माना जा रहा है। केदारनाथ एवं बदरीनाथ धाम पुनर्निर्माण परियोजना , कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना, ऑलवेदर रोड जैसे बड़े प्रोजेक्ट तथा राज्य में 2017 के बाद से केंद्र सरकार के संस्थानों की स्थापना, जैसा कि केंद्रीय सहायता को भाजपा की प्रदेश सरकार ने खुद को डबल इंजन की सरकार के रूप में प्रचारित किया है। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के लिए सीमित संसाधनों वाली राज्य सरकार को हर मौसम केंद्र सरकार के सहयोग की आवश्यकता होती है। केंद्र और राज्य में भाजपा सरकारें होने का लाभ उत्तराखंड को मिलता रहा है।
वहीं, नरेंद्र मोदी भी उत्तराखंड से गहरा लगाव रखने की बात हर भ्रमण पर कहते हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में भी उत्तराखंड पर केंद्र की विशेष निगरानी रही। इस दौरान घरों तक मुफ्त राशन पहुंचना और स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से महिलाओं को आजीविका के संसाधनों से जोड़ना, ब्याजमुक्त ऋण की व्यवस्था, उज्ज्वला योजना, किसान सम्मान निधि, ग्रोथ सेंटरों की स्थापना सहित कई ऐसी योजनाएं हैं, जो सीधे तौर पर महिलाओं को लाभ पहुंचाती हैं। यही वजह है कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उनके कैबिनेट मंत्री तक केंद्र सरकार के कार्यों और परियोजनाओं के नाम पर चुनाव प्रचार कर रहे थे। स्थानीय मुद्दों पर अधिकतर बार चुपी ही साधी गई।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल, जो स्वयं उत्तराखंड की श्रीनगर सीट से चुनाव हार गए हैं, का कहना है कि प्रदेश में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा। हालांकि गोदियाल कहते हैं, मैं इसमें कोई बुराई नहीं समझता, क्योंकि उन्होंने नरेंद्र मोदी को अपनी ताकत समझा और उनके नाम पर चुनाव लड़ा। यह जनता का निर्णय है और हम जनता के निर्णय को स्वीकार करते हैं।
राज्य में भाजपा का चुनाव प्रचार, जो अयोध्या में राममंदिर निर्माण, केदारनाथ- बदरीनाथ धाम पुनर्निर्माण, कुंभ मेला आयोजन, कांग्रेस के मुस्लिम प्रेम को प्रचारित करने पर भी केंद्रित था, जिसका उसको चुनाव में भरपूर लाभ हासिल हुआ। पूर्ण बहुमत के बाद भी तीन मुख्यमंत्री बदलने का भाजपा को चुनाव में कोई नुकसान नहीं हुआ। साथ ही, भाजपा ने अपने पूर्व मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में लिए गए उन फैसलों को बदलवा दिया, जो धार्मिक गतिविधियों को लेकर थे, इनमें देवस्थानम बोर्ड और कुंभ मेला आयोजन से संबंधित रहे। भाजपा ने पूर्व सैनिकों एवं सेवारत सैनिकों, शहीदों के परिवारों को सुविधाएं तथा उनके सम्मान को भी अपने चुनाव अभियान में शामिल किया।
ऐसा नहीं था कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी चुनाव में महिलाओं की शक्ति को नहीं समझ पाए। कांग्रेस ने महंगाई को मुद्दा बनाकर महिलाओं के प्रति सहानुभूति दर्शाकर उनका मत हासिल करने की पहल की। कांग्रेस और आप ने महिलाओं के लिए कई बड़ी घोषणाएं कीं। फिर भी उनको सत्ता से बाहर रहना पड़ा। बड़ी घोषणाएं करने वाली आम आदमी पार्टी का राज्यभर में एक भी विधायक नहीं बना, यहां तक की गंगोत्री सीट पर पार्टी के मुख्यमंत्री चेहरे अजय कोठियाल को भी हार का सामना करना पड़ा। वहीं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत,जो अघोषित तौर पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री चेहरा थे, को लालकुआं सीट पर हार झेलनी पड़ी।
इस चुनाव में उत्तराखंड में महंगाई सहित बुनियादी सुविधाओं के मुद्दे गायब होने के बाद भी भाजपा को खासकर महिलाओं का वोट हासिल हुआ, वो इसलिए क्योंकि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखती हैं, इसलिए उनका वोट भाजपा को गया।उत्तराखंड में मोदी नाम ने राज्य के भाजपा प्रत्याशियों के लिए बड़ी संजीवनी का काम किया।
अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान लोगों से बातचीत में पता चलता है कि उनको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से काफी उम्मीद है। कई बार ऐसा देखा गया कि लोग स्थानीय भाजपा प्रत्याशियों से नाराज दिखाई दिए, लेकिन वो वोट नरेंद्र मोदी के नाम पर देंगे, ऐसा कहते सुने गए। वो कहते हैं, अपना वोट देश के नाम पर उसी प्रत्याशी को देंगे, जिसको नरेंद्र मोदी चुनाव में खड़ा करेंगे। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर वोटों की संभावनाओं को अपने पक्ष में करने के लिए चुनाव प्रचार की रणनीति तय की है।
उत्तराखंड विधानसभा में बढ़ी महिला प्रतिनिधियों की संख्या
2002 और 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद, इस बार निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या पहले और दूसरे निर्वाचित सदन में चार के मुकाबले दोगुनी हो गई है। 2012 और 2017 में चुनी गई दो विधानसभाओं में केवल पांच महिलाएं थीं। इस बार 2022 में आठ महिलाएं विधानसभा पहुंची हैं, जिनमें भाजपा से शैलारानी रावत (केदारनाथ), रेखा आर्य (सोमेश्वर), सविता कपूर (देहरादून कैंट), रेणु बिष्ट (यमकेश्वर), ऋतु भूषण खंडूड़ी (कोटद्वार) व सरिता आर्य (नैनीताल) तथा कांग्रेस से अनुपमा रावत (हरिद्वार ग्रामीण) व ममता राकेश (भगवानपुर) शामिल हैं। सत्तारूढ़ भाजपा में छह महिला विधायक होंगी, जिनमें से एक मौजूदा कैबिनेट मंत्री रेखा आर्या हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेस ने केवल पांच महिलाओं मसूरी से गोदावरी थापली, भगवानपुर से ममता राकेश, रुद्रपुर से मीना शर्मा, लैंसडौन से अनुकृति गुसाईं, हरिद्वार ग्रामीण से अनुपमा रावत तथा भाजपा ने आठ महिलाओं, जिनमें केदारनाथ से शैलारानी रावत, कोटद्वार से ऋतु भूषण खंडूड़ी, देहरादून कैंट से सविता कपूर, खानपुर से कुंवरानी देवयानी, यमकेश्वर से रेणु बिष्ट, पिथौरागढ़ से चंद्रा पंत, सोमेश्वर से रेखा आर्य, नैनीताल से सरिता आर्य शामिल हैं, को टिकट दिया था।
कांग्रेस की दो ही महिला प्रत्याशी विजय हो सकीं, जिनमें भगवानपुर से ममता राकेश और हरिद्वार ग्रामीण से अनुपमा रावत शामिल हैं।कांग्रेस उम्मीदवार अनुकृति गुसाईं लैंसडाैन से चुनाव हार गईं। अनुकृति पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की पुत्रवधु हैं।
वहीं, भाजपा उम्मीदवार ऋतु भूषण खंडूड़ी पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) बीसी खंडूड़ी की बेटी हैं, जिन्होंने कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ जीतकर अपने पिता की 2012 में कोटद्वार सीट पर हुई हार का बदला लिया है। कांग्रेस के टिकट पर विजेता अनुपमा रावत पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की बेटी हैं, जिन्होंने कैबिनेट मंत्री यतीश्वरानंद को हराकर अपने पिता की 2017 में हरिद्वार ग्रामीण क्षेत्र में हार का बदला लिया है। पहली बार की विजेता देहरादून कैंट से भाजपा की सविता कपूर हैं। सविता कपूर पूर्व विधायक स्वर्गीय हरबंश कपूर की पत्नी हैं।
इस बार चुनाव लड़ने वाले कुल 632 उम्मीदवारों में 63 महिलाएं चुनाव लड़ रही थीं। इनमें से आठ महिलाओं ने जीत हासिल की है, तो यह उत्तराखंड में एक अच्छा संकेत है। राजनीतिक दल अगले चुनावों में निश्चित रूप में और अधिक महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारने के लिए मजबूर होंगे।
राज्य में महिलाओं की स्थिति
उत्तराखंड में महिलाओं की स्थिति की। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में महिलाओं की आबादी 49.48 लाख है, जबकि पुरुषों की संख्या 52.38 लाख है।
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राज्य की 71 फीसदी महिला आबादी गांवों में निवास करती है। राज्य की 65 फीसदी आबादी की आजीविका कृषि है। राज्य में 64 फीसदी महिलाएं अपने खेतों में कृषि करती हैं, वहीं 8.84 फीसदी महिलाएं दूसरों के खेतों में परिश्रम करती हैं।
यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने खेतों में परिश्रम करने वाली महिलाओं को श्रम का मूल्य नहीं मिल पाता। न तो उनका खेतों पर स्वामित्व है और न ही अपने ही खेतों में मेहनत करने का कोई श्रम लेती हैं। जबकि अधिकतर महिलाएं, उन कृषि क्षेत्रों में कार्य करती हैं, जो वर्षा जल पर आधारित हैं।
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जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है। जलस्रोत सूखने, कृषि उत्पादन प्रभावित होने, चारा नहीं मिलने, फल-सब्जियों की खेती प्रभावित होने से महिलाएं सबसे ज्यादा दिक्कत में आती हैं। समय पर बारिश नहीं होने से खेती पर प्रतिकूल असर भी महिलाओं के लिए किसी आपदा से कम नहीं होता। वहीं, भूस्खलन, बाढ़, सूखे से भी कृषि भूमि प्रभावित होती है।
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पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के साधन नहीं होने की वजह से पुरुष अपने घर-गांवों से पलायन करते हैं, तो घरों में रह रहीं महिलाओं पर परिवार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है। वो भी उस स्थिति में जब उनके पास न तो पर्याप्त अधिकार होते हैं और न ही वित्तीय स्वतंत्रता।