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‘कंगारू मातृत्व’ के सहारे बचाई जा सकती हैं लाखों नवजात ज़िन्दगियाँ

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने नवजात शिशुओं को, उनकी माताओं से अलग किए जाने के ख़तरों की तरफ़ ध्यान दिलाते हुए आगाह किया है। एक नए अध्ययन में दिखाया गया है कि नवजात शिशुओं को उनकी माताओं के साथ त्वचा स्पर्श सुनिश्चित करने से, एक लाख 25 हज़ार तक ज़िन्दगियाँ बचाई जा सकती हैं।

संयुक्त राष्ट्र समाचार में प्रकाशित रिपोर्ट में यूएन स्वास्थ्य एजेंसी के हवाले से कहा गया है कि बहुत से ऐसे मामले देखे गए हैं कि अगर किसी महिला को “कोविड-19” वायरस के संक्रमण की पुष्टि हो गई है या संक्रमण होने का सन्देह है, तो भी नवजात शिशुओं को, उनकी माताओं से अलग किया जा रहा है।
ऐसा किए जाने से, ऐसे शिशुओं के लिए, मौत का उच्च जोखिम और जीवन भर की स्वास्थ्य जटिलताओं का जोखिम पैदा किया जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और उसके साझीदारों द्वारा किया गया ये नया शोध, द लैन्सेट पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि कंगारू मातृत्व (माँ-बच्चे का त्वचा स्पर्श) देखभाल सुनिश्चित कराकर, एक लाख 25 हज़ार नवजात शिशुओं की जान बचाई जा सकती है।
ये तरीक़ा ख़ासतौर से उन नवजात शिशुओं के लिये बहुत अहम है जिनका जन्म समय से पहले ही यानि 37 सप्ताहों के गर्भ के बाद ही हो जाता है, या जिन बच्चों का वज़न ढाई किलोग्राम से भी कम होता है।
ऐसे मामलों में, कंगारू मातृत्व का तरीक़ा अपनाकर, नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में 40 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही, हाइपोथर्मिया के मामलों में 70 प्रतिशत, और गम्भीर संक्रमण होने के मामलों में 65 प्रतिशत की कमी देखी गई है।
रिपोर्ट लिखने वालों में शामिल, मलावी के स्वास्थ्य मंत्रालय में स्वास्थ्य मामलों की निदेशक डॉक्टर क्वीन ड्यूब ने फ़ायदे गिनाते हुए कहा है, “कंगारू मातृत्व देखभाल, छोटे व बीमार नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिये सबसे ज़्यादा असरदार तरीक़ों में से एक है।”
“हमारे विश्लेषण के अनुसार, नवजात शिशु को, कोविड-19 का संक्रमण लगने के ख़तरे की तुलना में, ये जोखिम कहीं ज़्यादा गम्भीर हैं।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफ़ारिश है कि माताओं को, अपने नवजात शिशुओं को, उन्हें जन्म देने के समय से ही, अपने साथ अपने कमरे में रखना चाहिए।
साथ ही, नवजात शिशुओं को माँ का दूध पिलाने के साथ-साथ, उनके साथ त्वचा स्पर्श भी सुनिश्चित करना चाहिए, यहाँ तक कि कोविड-19 के संक्रमण का सन्देह या पुष्टि होने के मामले में भी। इनके अलावा, संक्रमण की रोकथाम वाले उपायों को भी समर्थन दिया जाना चाहिए। साभार- संयुक्त राष्ट्र समाचार

 

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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