लक्खीबाग में कहानियों का ‘तक धिना धिन’
आखिरकार कहानियों का ‘तक धिना धिन’ शुरू हो ही गया। यह उन कहानियों का सिलसिला है, जो खुद के साथ दूसरों के लिए भी जीना सिखाती हैं। खुशी की बात तो यह है कि इस पहल का आगाज उन बच्चों के बीच हुआ, जिन्होंने होश संभालने से पहले ही जिंदगी का मतलब सिर्फ और सिर्फ रोटी, पानी की तलाश सीखा था। वक्त तो किसी के लिए नहीं रूकता, इनके लिए भी नहीं रूका। फर्क केवल इतना रहा, वक्त के साथ ये जान गए कि जिंदगी उतनी आसान नहीं है, जितनी कि ये समझ रहे हैं। जीना है तो कुछ अलग करना होगा। इसके लिए स्कूल भी जाना होगा और पढ़ना भी होगा।
यह सब इनके माता पिता और इनकी समझ में इतनी आसानी से नहीं आ गया, जितना कि हम अंदाजा लगा रहे हैं। यह एक या दो दिन की मशक्कत नहीं बल्कि इनको सही राह पर लाने में नियो विजन के संस्थापक गजेंद्र सिंह रमोला के 11 वर्ष लग गए। आज यहां स्कूल और पढ़ाई पहले हैं और हर बच्चे के लिए जीवन एक मकसद बन गया है। गजेंद्र अपने खर्चे से यह सबकुछ कर रहे हैं। उनको कहीं से कोई मदद नहीं मिलती।
फिर से ‘तक धिना धिन’ की बात करते हैं। गजेंद्र जी से बात हुई और रविवार 25 नवंबर सुबह दस बजे का समय तय हो गया। हमें बताया गया था कि सुबह दस बजे तक हर हाल में आ जाइए। मैं और श्रेयन ठाकुर के साथ देहरादून रेलवे स्टेशन के पास लक्खीबाग इलाके में पहुंच गया। हमारी मुलाकात नियो विजन में पढ़ने वाले चंदन से हुई। करीब 14 साल के चंदन के साथ हम तंग गली से होते हुए उस जगह तक पहुंच गए, जहां शाम को 35 बच्चों की क्लास लगती है। मैंने इन तंग गलियों में डिब्बों की मानिंद बने कमरों और उनमें अपनी अपनी उम्मीदों के सहारे आगे बढ़ती जिंदगियों को देखा। करीब 50 मीटर तक सर्पीली गली में चलते रहे। हमें तो पूरी गली उस घर की तरह लगी, जिसमें बहुत सारे कमरे हैं और इनके दरवाजे सड़क पर खुलते हैं। यहां धूप नहीं दिख रही।
सीढ़ियां चढ़कर तीन छोटे- छोटे कमरों वाले घर में पहुंचे, जिसके दो कमरे क्लासेज के लिए हैं। कमरों को दीवारों को बच्चों ने पेंटिंग से सजाया है। वहां हमें मीना मिली, जो पहले इस स्कूल में पढ़ती थी और अब इन बच्चों को पढ़ाती है और देहरादून के किसी अस्पताल में जॉब करती है। नियो विजन के सहयोग से मीना ने बीएससी एनिमेशन किया है। गुंजा भी बीएससी एनिमेशन के फर्स्ट ईयर में है।
एक-एक करके ठीक दस बजे तक वहां 30 से अधिक बच्चे पहुंच गए और अनुशासन तो देखने लायक था। कहीं कोई शोर नहीं। बच्चों ने ‘तक धिना धिन’ की शुरुआत में पूरा सहयोग किया। किसी ने दरी बिछाई और किसी ने कुर्सियां रखीं। कोई पानी लेकर आया और किसी ने सफाई की। बच्चों से मुखातिब होते हुए गजेंद्र जी ने हमारा परिचय कराया।
बच्चों से पूछा गया कि कहानियां कौन सुनना चाहेगा। सभी ने हाथ ऊपर उठाकर अपनी सहमति प्रकट की। क्या आपको कहानियां पसंद हैं। सभी एक स्वर में बोले, जी। क्या आपमें से कोई कहानियां सुनाएगा, तो किसी का हाथ ऊपर नहीं उठा। क्या किसी को कोई कहानी नहीं आती। कहानी याद नहीं है या फिर सुनाना नहीं चाहते। एक बच्चे ने कहा, याद है, पर थोड़ी थोड़ी। हमने कहा, पूरी हम कर देंगे, शुरुआत तो करो।
बच्चे ने कहानी सुनाई, जिसका शीर्षक बताया, चालाक लोमड़ी। एक और कहानी सुनने को मिली, जिसका शीर्षक है- लालची कुत्ता। फिर सभी बच्चों को कहानियां याद आने लगीं और कहानियों का ‘तक धिना धिन’ गति पकड़ने लगा। हमने बच्चों के साथ ‘क्या मुझसे दोस्ती करोगे’ और ‘साहसी नन्हा पौधा’ को साझा किया। दस साल की लक्ष्मी गाने लिखती है। लक्ष्मी ने गाना सुनाया। छह साल की कुमकुम ने कविता सुनाई।
अगली बार शनिवार एक दिसंबर की शाम साढ़े छह बजे फिर होगा कहानियां का ‘तक धिना धिन’ नियो विजन के बच्चों के साथ। बच्चों ने हमसे वादा किया है कि वो खुद कहानियां लिखने की कोशिश करेंगे या फिर लिखकर ही लाएंगे। क्योंकि कहानियां संदेश देती हैं, कहानियां जीने की राह दिखाती हैं, कहानियां सोचने और समझने में मदद करती हैं। कहानियां सुनने और सुनाने के लिए हर वक्त तैयार रहना चाहिए। बचपन की कहानियों ने सपनों की सैर पर ही नहीं भेजा, बल्कि जिंदगी के मकसद पूरे करने के लिए जगाया भी है। फिर मिलते हैं…. तब तक के लिए खुशियों और शुभकामनाओं का ‘तक धिना धिन’…