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सड़क के इंतजार में बहुत पीछे रह गया उत्तराखंड का कोटा गांव

  • मोहित उनियाल

माँ गंगा के तट मुझे हमेशा से लुभाते रहे हैं, इसकी वजह यहां तन और मन को रीचार्ज करने वाली ऊर्जा का होना है । जब भी मन करता है, ऋषिकेश से आगे गंगा के रेतीले तटों पर कुछ समय बिताने के लिए आतुर रहा हूं । एक बार फिर मौका मिला और अपने घुमक्कड़ दल के साथ पहुंच गया गूलर क्षेत्र में ।

ऋषिकेश से चार धाम हाईवे पर होते हुए गूलर पहुंचे और फिर वर्षों पहले बने पुल से होते हुए गंगा नदी के उस पार पौड़ी गढ़वाल जिले के यमकेश्वर ब्लाक में प्रवेश किया।

यहां से हम पहुंचे सिरासू गांव, जो मां गंगा की पावन धारा के सानिध्य में पल और बढ़ रहा है ।

गंगा की अविरलता और भारत के करोड़ों निवासियों की जीवन रेखा में गहरा संबंध है ।

हमें यहां से कोटा गांव की राह पकड़नी थी । सिरासू के पास गंगा तट पर वीडियो शूट किए जा रहे थे, हमें जानकारी मिली कि वीडियो शूट करने के लिए चंडीगढ़, देहरादून, दिल्ली तक से लोग यहां आए हैं।

यहां पास में ही झूला पुल की लोकेशन इनको ज्यादा आकर्षित करती है । प्री वेडिंग शूटिंग के लिए यह लोकेशन ज्यादा प्रसिद्ध है । यह नये जमाने की बात है, पर यहां प्राचीन काल से चली आ रही जीवन पद्धतियों को आगे बढ़ाने की पहल भी दिखती है।

गंगा नदी के तटीय क्षेत्र योग और अध्यात्म को भी प्रोत्साहित करते हैं । यहां गंगा की लहरों के साथ उठती शांत हवाएं मन को आनंदित करती हैं और प्रकृति की गोद में जीने का अहसास होता है।

कोटा के लिए जाते हुए रास्ते में मिले अमन सिंह राणा, जो क्लास 11 के छात्र हैं और पौड़ी गढ़वाल जिला के कोटा गांव में रहते हैं । कोटा गांव यमकेश्वर ब्लाक का एक छोटा सा गांव है, जो विकास की राह में बहुत पीछे रह गया।

इसकी वजह क्या है, यह हम सभी जानते हैं, इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे।

हां, तो हम बात कर रहे थे अमन की, जिनका स्कूल उनके गांव से लगभग साढ़े पांच किमी. दूर सिरासू गांव में है । सिरासू से कोटा तक जाने के लिए खड़ी चढ़ाई पार करनी होती है । सिरासू गंगा नदी से लगता गांव है ।

यमकेश्वर ब्लाक के कोटा गांव का घर। इस गांव तक सड़क नहीं बनी। फोटो- मोहित उनियाल

कुल मिलाकर अमन स्कूल जाने और आने के लिए रोजाना 11 किमी. पैदल चलते हैं, जिसमें साढ़े पांच किमी. की थकाने वाली खड़ी चढ़ाई है। मैं पर्वतीय इलाकों में घूमता रहा हूं, पर इस चढ़ाई पर कई जगह सांसे फूलने लगी।

अमन बताते हैं कि पढ़ाई जारी रखनी है, इसलिए मुश्किलों से नहीं घबराना है। स्कूल और घर तक आने जाने में दो से ढाई घंटे लग जाते हैं। बरसात में दिक्कतें होती हैं, पर इसमें वो कुछ नहीं कर सकते।

कोटा गांव में दसवीं तक की पढ़ाई के लिए विद्यालय है । यहां विद्यालय भवन का निर्माण भी हो रहा है। जिसमें कुल 22 छात्र हैं । 11वीं व 12वीं के लिए सिरासू गांव और फिर ऋषिकेश महाविद्यालय में पढ़ाई होती है।

डिग्री की पढ़ाई के लिए बच्चों को ऋषिकेश में ही किराये पर ही कमरा लेकर रहना होता है।

यहां तक निर्माण सामग्री लगभग डेढ़ या दोगुनी कीमत पर पहुंचती है । सीमेंट के दो बैग खच्चर से पहुंचाने का भाड़ा 400 रुपये है । इसलिए यहां निर्माण लागत ज्यादा है।

कोटा गांव के सीढ़ीदार खेतों में जैविक उत्पादन की संभावनाएं हैं, पर यहां खेती वर्षा पर निर्भर है। अनाज को बाजार तक पहुंचाने के लिए सड़क नहीं है। स्थानीय ग्रामीण बड़ी मुश्किल से फसल को बाजार तक पहुंचाते हैं। फोटो- मोहित उनियाल

वर्षा आधारित खेती पर निर्भर कोटा गांव में जैविक खेती की संभावनाएं हैं । यहां की उपजाऊ मिट्टी में मक्का, मंडुआ, जौ, गेहूं, धान, मटर, आलू, झंगोरा, मसूर, अदरक, हल्दी होती है । पहाड़ के दूसरे गांवों की तरह यहां भी जंगली जानवर फसलों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

हमें एक ग्रामीण से यह सुनकर बड़ा अचरज हुआ, कि इतनी खड़ी चढ़ाई चढ़कर हाथी कैसे पहुंच रहे होंगे । ग्रामीणो ने ही बताया कि पहले गंगा किनारे जहां राफ्ट कैंपिंग होती थी, वो जगह हाथियों का गलियारा थी, अब कैंपिंग नहीं हो रही है, इसलिए हाथियों को यहां तक आने का रास्ता साफ मिल रहा है ।

पौड़ी गढ़वाल के यमकेश्वर गांव में स्थित कोटा गांव जाते हुए रास्ते से ऐसा दिखता है गंगा नदी का अनुपम नजारा। फोटो – मोहित उनियाल

जंगलों से होते हुए यहां पहुंचने वाले हाथी फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं ।

हम एक बुजुर्ग महिला से मिले, जो फसलों को जानवरों से बचाने के लिए शानदार तरीका अपनाती हैं । उन्होंने खेत में खड़े पेड़ पर कनस्तर बांधा है । कनस्तर को बांधने वाली रस्सी का एक सिरा उनके घर तक पहुंचा है ।

जैसे ही वो रस्सी को अपनी ओर खींचती हैं, कनस्तर पेड़ से टकराकर जोर आवाज करता है, जिसके शोर से डरकर जानवर खेतों से भाग लेते हैं । खेत में जानवरों के आने की आहट होते ही, इस रस्सी को खींचकर कनस्तर बजा दिया जाता है ।

बुजुर्ग उदय सिंह को अपने गांव में बहुत अच्छा लगता है। कहते हैं कि गांव तक सड़क पहुंचने का सपना पूरा नहीं हो पाया । यहां से कई परिवार ऋषिकेश, गूलर, सिरासू, श्यामपुर, मोतीचूर, भानियावाला, देहरादून जाकर बस गए ।

कोई रोजगार के सिलसिले में यहां से चला गया और किसी ने बच्चों की पढ़ाई के लिए गांव छोड़ दिया । हमें तो यही रहना है । हमने हाईवे पर देखा था कुछ लोगों ने जैविक अनाज, अदरक, हल्दी, आलू के स्टाल लगा रखे हैं, इनमें से कई लोग कोटा गांव के भी हैं, जो प्रतिदिन गांव से वहां पहुंचते हैं ।

कोटा गांव के भ्रमण के दौरान लेखक मोहित उनियाल

बताते हैं कि उपज को सड़क तक पहुंचाने के लिए खच्चरों का सहारा लिया जाता है । इसके बाद बाजार तक गाड़ी से पहुंचाते हैं । इसलिए उपज की लागत बढ़ जाती है।

कोटा से सीधा हाईवे पर पहुंचने के लिए दूसरा रास्ता भी है, यह लगभग साढ़े छह किमी. का है । इस रास्ते में एक गदेरा भी पड़ता है। बरसात में इस मार्ग का इस्तेमाल नहीं करते। कोटा से फूलचट्टी तक के मार्ग को ग्रामीण सड़क के रूप में बदलता देखना चाहते हैं ।

ग्रामीणों ने बताया कि सबसे पास का स्पताल लक्ष्मणझूला या फिर ऋषिकेश ही है । किसी भी आपात स्थिति में मरीजों को कुर्सी पर बैठाकर या डंडी कंडी के सहारे सड़क तक पहुंचाते हैं । महिलाओं को प्रसव के लगभग एक माह पहले ही ऋषिकेश भेज दिया जाता है, ताकि आपात स्थिति में इलाज मिल जाए ।

यह गांव सड़क नहीं बनने की वजह से पलायन की ओर बढ़ रहा है । घर खाली हो रहे हैं और आबादी संसाधनों वाले स्थानों की ओर रूख कर रही है । पर्वतीय इलाकों में पलायन का दबाव ऋषिकेश, देहरादून जैसे शहरों पर देखने को मिल रहा है, जहां संसाधन सीमित हैं ।

इस स्थिति में ये शहर गांवों तक फैल रहे हैं । देहरादून शहर का फैलाव नगर निगम के रूप में कई गांवों तक हो गया । इस वजह से बालावाला, मियांवाला, नत्थनपुर, डोईवाला के पास भानियावाला, ऋषिकेश से लेकर रायवाला तक सहित कई ऐसे ग्रामीण इलाकों में शहरीकरण का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है ।

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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