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अभी भी देहरादून दूर है इन महिलाओं के लिए

घर परिवार, खेतीबाड़ी, पशुपालन की जिम्मेदारियों की वजह से समय नहीं निकल पाता

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

“मेरी शादी करीब 14 वर्ष पहले हुई थी, उसी समय सामान की खरीदारी के लिए देहरादून शहर गई थी, तब से लेकर आज तक देहरादून नहीं जा पाई। घर परिवार और खेतीबाड़ी, पशुपालन की जिम्मेदारियों की वजह से समय नहीं निकल पाता। जब हमारे बच्चे बड़े हो जाएंगे, देहरादून जरूर जाएंगे। ” ढाकसारी गांव की रेखा देवी ने, हमारे एक सवाल पर यह जवाब दिया। हमने उनसे पूछा था कि, क्या आप कभी देहरादून गई हैं।

ढाकसारी गांव की महिलाओं के साथ संवाद में रेखा देवी के इस जवाब ने हमें चौंका दिया, क्योंकि देहरादून उनके गांव से लगभग 35 किमी. की दूरी पर है और परिवहन के साधन भी उपलब्ध हैं। गांव से करीब पांच किमी. दूर थानो से सार्वजनिक बस सेवा भी संचालित होती है। विधालना के पुल तक रास्ता थोड़ा कठिन है, पर वहां से थानो तक सड़क ठीकठाक है। रेखा ही नहीं संगीता और मधु ने भी हमें यह जानकारी दी कि उन्होंने देहरादून शहर नहीं देखा।

ढाकसारी गांव की महिलाएं खेतों में ही भोजन के बाद कुछ समय आराम के वक्त मोबाइल फोन देखते हुए। फोटो- राजेश पांडेय

संगीता देवी बताती हैं, महिलाएं सुबह पांच बजे से रात्रि दस बजे तक घऱ परिवार, खेती, पशुपालन की जिम्मेदारियां निभाती हैं। हमारे पास अपने लिए समय नहीं होता। अगर आपको अपने लिए कुछ समय मिल जाए तो क्या किताबें पढ़ेंगे, टीवी देखेंगे या गीत संगीत सुनेंगे, पर संगीता कहती हैं, मैं चाहूंगी कि थोड़ी देर मम्मी पापा के पास चली जाऊं। परिवार के साथ कहीं घूमने चले जाएं, पर समय ही नहीं मिलता। मैंने देहरादून भी नहीं देखा, सच में मैंने देहरादून नहीं देखा।

“ऐसा नहीं है कि हम देहरादून नहीं जा सकते। हमें सभी को अपने परिवारों से भरपूर सहयोग मिलता है। परिवार के साथ मसूरी, ऋषिकेश और दूर के शहरों में रिश्तेदारियों में गई। मैं देहरादून तक गई, पर इस शहर को घूमा नहीं। देहरादून शहर कैसा है, मुझे नहीं मालूम। सुना है, वहां घंटाघर और आसपास का इलाका बहुत सुंदर है, पर हम वहां कभी नहीं गए, संगीता बताती हैं।”

पहाड़ पर खेतों तक पहुंचाने वाली पगडंडी पर चलना हमारे लिए मुश्किल था। फोटो- राजेश पांडेय

रविवार ( 6 नवंबर, 2022) को हम महिलाओं से संवाद के लिए ढाकसारी गांव पहुंचे तो जानकारी मिली कि महिलाएं गांव से लगभग एक किमी. ऊँचाई पर खेतों में घास काट रही हैं। उनको यह कार्य प्रतिदिन 400 रुपये पारिश्रमिक पर मिला है। जिस स्थान पर घास काटी जा रही थी, वहां तक पहुंचना हमारे लिए जोखिम वाला टास्क था। सेवानिवृत्त शिक्षक नारायण सिंह मनवाल रास्ता दिखाने के लिए हमारे साथ आए। पर, कुछ दूरी चलने के बाद, पहाड़ पर एक जगह पगडंडी वाला रास्ता मलबा आने से बंद था। हमें कहां जाना है, कुछ नहीं सूझ रहा था। नारायण सिंह बताते हैं, कुछ समय पहले भूस्खलन की वजह से यह रास्ता टूट गया है। इसी मलबे पर चलकर आगे जाना होगा। थोड़ा संभलकर आगे बढ़ना।

खेतों से चारा पत्ती लेकर जाती महिला। फोटो- राजेश पांडेय

किसी तरह हम वहां पहुंच गए, जहां महिलाएं घास काट रही थीं। कुछ महिलाएं पशुओं के लिए चारा लेने यहां आई थीं। महिलाएं चारे का भारी बोझ लेकर कठिन रास्ते से होते हुए गांव लौट रही थीं। इसी दौरान कुछ बच्चे खाना लेकर वहां पहुंचे। हमें बताया गया कि दोपहर दो बजे खाने का समय है। खाना खाने कोई घर नहीं जाता। अब तो शाम को ही घर लौटेंगे।

खेत में ही खाना खाया और चाय बनाई

महिलाओं ने हमें भी खाना परोसा, जिसमें काले चने की दाल, चावल, पूड़ियां, रोटियां और आलू-शिमला मिर्च की सब्जी थी। हमें दही से भरा गिलास भी दिया गया। उन्होंने बताया, हमारे पास खाना बहुत है, आप भरपेट खाना। मैंने और बेटे सार्थक ने खाना खाया, जो बेहद स्वादिष्ट था। काले चने की दाल में अदरक, लहसुन, प्याज मिलाया था, जिसमें मिर्च भी ज्यादा नहीं थी। सीता देवी, सरोजिनी देवी, रेखा देवी, संगीता देवी, मधु देवी, भगवानी देवी ने भोजन किया।

एक बात तो है गांवों में, अगर आप भोजन के समय वहां किसी घर में हैं, तो बिना भोजन कराए, आपको वापस नहीं जाने देते। भोजन बड़े स्नेह से परोसा जाता है। हम तो ढाकसारी गांव के खेतों में थे, वहां भोजन था, तो हम बिना भोजन के कैसे रह सकते थे। वैसे भी, मैं खासकर गांव में, भोजन के ऑफर पर कभी मना नहीं करता।

ढाकसारी गांव की महिलाओं ने भोजन के बाद खेत में ही चाय बनाई। फोटो- सार्थक पांडेय

हमें बताया गया कि थोड़ी देर आराम के बाद एक गिलास चाय और फिर खेतों में घास काटने का काम शुरू होगा। हमने पूछा, यहां चाय कहां मिलेगी, क्या कोई चाय लेकर यहां आ रहा है। मधु देवी ने हमें चीनी, पत्ती के पैकेट दिखाते हुए कहा, चाय यही बनेगी। दो पत्थर रखकर अस्थाई चूल्हा बनाया गया और पास में ही रखी सूखी लकड़ियों में आग जला दी। कुछ ही समय में लकड़ियों ने आग पकड़ी और उस पर केतली रखकर चाय बनाई गई। चाय बनने के दौरान ही हमने महिलाओं से खेतीबाड़ी, पशुपालन, बेटियों की शिक्षा पर बात की।

खेत में बघेरा दिखा, पर हम हिम्मत नहीं हारते 

भगवानी देवी बताती हैं, इस क्षेत्र में भालू, बारहसिंघा और बघेरा (गुलदार) दिखते हैं। पर, कुछ साल पहले तो मैंने खेत में बघेरे को बहुत नजदीक से देखा। वो एक गाय को खाने के लिए पकड़ रहा था। वो दिन आज तक नहीं भूलती। क्या आपने उस दिन यह सोचा था कि अब खेतों में नहीं जाना चाहिए, पर उनका कहना था, ऐसे में हम हिम्मत नहीं हारते। हिम्मत हार गए तो हमने खेती कर ली।

ढाकसारी गांव की निवासी भगवानी देवी, साथ में सीता देवी (दाएं)। फोटो- सार्थक पांडेय

उन्होंने बताया, खेतों में अदरक, मंडुवा, आलू, मिर्च, अरबी, हल्दी, प्याज, लहसुन उगाते हैं। जंगली जानवर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। पर, घर के इस्तेमाल के लिए फसल मिल जाती है। हम फसल नहीं बेचते।

अपने सपनों पर बात करते हुए भावुक हो गईं सुमित्रा

ढाकसारी गांव की सुमित्रा देवी बताती हैं कि उन्होंने हाईस्कूल तक पढ़ाई की है। उनको पढ़ाई लिखाई बहुत पसंद थी। अच्छी नौकरी करना चाहती थीं, जैसे की पुलिस, पर मेरे पिता जी का देहांत हो गया था, इसलिए मेरी पढ़ाई जारी नहीं हो पाई। सुमित्रा देवी भावुक हो जाती हैं, अपने सपनों पर बात करते हुए। उनका मायका टिहरी गढ़वाल में है। कहती हैं, हमारे बच्चे, हमारे सपनों को पूरा करेंगे, हम उनके लिए मेहनत कर रहे हैं। पूछने पर उनका जवाब है, अब किताबें पढ़ने का समय ही नहीं मिलता। अब तो परिवार का हाथ बंटाने के लिए खेतीबाड़ी, पशुपालन कर रहे हैं।

देहरादून के ढाकसारी गांव की निवासी सुमित्रा देवी। फोटो- सार्थक पांडेय

बताती हैं, सालभर में दो-तीन महीने दैनिक पारिश्रमिक पर काम मिल जाता है। कुल मिलाकर महीने में औसतन तीन से चार हजार रुपये की आय हो जाती है। खेती में जानवर नुकसान पहुंचाते हैं, जो भी कुछ फसल मिलती है, वो घर में इस्तेमाल हो जाती है। हमारे पास बेचने के लिए फसल नहीं हो पाती। कहती हैं, बेटियों को पढ़ाई के साथ घर परिवार के कार्यों को भी सीखना चाहिए।

बेटियों की शिक्षा पर उनका कहना है, बेटियों को खूब पढ़ाना चाहिए। उनको पढ़ने के साथ घर के कामकाज भी सीखने चाहिए।

ढाकसारी गांव की रेखा देवी, जिनका मायका पास ही हल्द्वाड़ी गांव में है, आठवीं कक्षा पास हैं। वो पढ़ाई करके अच्छी नौकरी करना चाहती थीं। बताती हैं, माता जी को चोट लग गई, इसलिए घर के कामकाज में हाथ बंटाना पड़ा। पढ़ाई नहीं कर पाई।

देहरादून जिला के ढाकसारी गांव के निवासी संजय सिंह मनवाल। फोटो- राजेश पांडेय

संजय सिंह मनवाल ने देहरादून के डीएवी पीजी कॉलेज से 2016 में कैमिस्ट्री, बॉटनी व जूलॉजी विषयों से बीएससी किया है। इन दिनों परिवार की खेतीबाड़ी और पशुपालन में सहयोग कर रहे हैं। संजय बताते हैं, गांव का जीवन शहर की अपेक्षा बहुत अच्छा है। पर, रोजगार, पढ़ाई के सिलसिले में गांव से शहर जाना ही पड़ता है। कॉलेज के समय, गांव से थानो तक बाइक से और वहां से बस से देहरादून जाते थे। यहां के बच्चों का इंटर कॉलेज थानो में है, जो लगभग तीन से चार किमी. दूर है। बरसात में विधालना नदी में पानी ज्यादा आने पर रास्ता बंद भी हो जाता है। प्राइमरी स्कूल सिंधवाल गांव में है, जो हमारे गांव से लगभग डेढ़ किमी. ऊंचाई पर है। विधालना नदी पर पुल बनने से गांव को राहत मिली है।

ढाकसारी गांव के बारे में जानिए

ढाकसारी गांव, देहरादून शहर से लगभग तीस किमी. दूर है। यह सिंधवाल गांव ग्राम पंचायत का हिस्सा है। विधालना नदी के किनारे कम ऊँचाई वाले पहाड़ पर बसे ढाकसारी गांव से बेहद सुंदर नजारा दिखता है। दूर तक दिखते ऊँचे पहाड़, जिनमें से अधिकतर पर देहरादून जिले के पर्वतीय गांव बसे हैं और इन पहाड़ों के पीछे टिहरी गढ़वाल के जौनपुर ब्लाक के गांव बताए जाते हैं, जो सौंग नदी घाटी क्षेत्र है।

देहरादून जिला के ढाकसारी गांव के निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक नारायण सिंह मनवाल। फोटो- राजेश पांडेय

ढाकसारी गांव में आठ-दस परिवार रहते हैं। लगभग पांच दशक पहले, इनके पूर्वज लड़वाकोट गांव में रह रहे थे। बेसिक शिक्षा से सेवानिवृत्त लगभग 75 वर्षीय हेडमास्टर नारायण सिंह मनवाल बताते हैं, वर्ष 1977 में लड़वाकोट से यहां आ गए थे। इसकी वजह यह थी कि उस समय यहां (ढाकसारी में) रहने वाले कुछ परिवार अपनी जमीन बेचकर पलायन कर रहे थे। उनसे हमारे परिवार ने यह जमीन खरीद ली। बताते हैं, उस समय हम लोग लड़वाकोट से धारकोट के पास स्थित भगवानपुर इंटर कालेज तक नौ किमी. पैदल चलकर पढ़ने आते थे।लड़वाकोट तक तो आज भी सड़क नहीं है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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