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आग में फटने वाले बांस के डंठल थे पटाखों के ‘पूर्वज’

भारत में पटाखों यानी आतिशबाजी की शुरुआत महाभारत काल में हो गई थी

दीपावली और आतिशबाजी का वर्षों पुराना नाता है। भारत में पटाखों यानी आतिशबाजी की शुरुआत महाभारत काल में हो गई थी, ऐसा माना जाता है। बताया जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी के विवाह में आतिशबाजी की गई थी।

पटाखों को लेकर कई कहानियां हैं। एक प्रकार के बांस को पटाखों का पूर्ववर्ती माना जाता है, जिसका उपयोग 200 ईसा पूर्व में किया जाता था, जो लगातार गर्म होने पर फट जाता था। पटाखों के लिए चीनी नाम baozhu, का शाब्दिक अर्थ है विस्फोट बांस। बारूद के आविष्कार के बाद, बारूद के पटाखों का आकार बांस जैसा था और एक समान ध्वनि पैदा करता था, इसलिए “विस्फोटक बांस” नाम को बरकरार रखा गया। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, पटाखों का इस्तेमाल दुश्मनों या बुरी आत्माओं को डराने के लिए किया जाता था।

चीन में एक और कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार, पहले लोग बांस को आग में डालते थे तो गर्म होने के बाद इसकी गांठ तेज आवाज के साथ फटती थीं। उस समय, चीन के लोगों का मानना था कि बांस के फटने की तेज आवाज से बुरी आत्माएं भाग जाती हैं।

माना जाता है, आतिशबाजी मूल रूप से दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में प्राचीन लिउ यांग, चीन में विकसित की गई थी। पहले प्राकृतिक “पटाखे” बांस के डंठल थे, जो आग में फेंकने पर, धमाके के साथ फट जाते थे।

19वीं सदी में मिट्टी की छोटी मटकी में बारूद भरकर पटाखा बनाने का ट्रेंड था। बारूद भरने के बाद उस मटकी को जमीन पर पटक कर फोड़ा जाता था, जिससे रोशनी और आवाज होती थी. इसी ‘पटकने’ के कारण इसका नाम ‘पटाखा’ पड़ा।

कहते हैं, पटाखे का आविष्कार गलती से हुआ था। खाना बनाते हुए एक रसोइये ने गलती से सॉल्टपीटर जिसे पोटेशियम नाइट्रेट भी कहते हैं, को आग में फेंक दिया था। इसके बाद, रंगीन लपटें निकलने लगीं। इन रंगीन लपटों को देखकर लोगों की उत्सुकता बढ़ी। फिर रसोइए ने साल्टपीटर के साथ कोयले और सल्फर का मिश्रण इसमें डाल दिया, जिससे रंगीन लपटों के साथ ही काफी तेजी आवाज भी हुई। बस यहीं से बारूद की खोज हो गई। हालांकि, इस बारे में एक मत यह भी है कि वो कोई रसोइया नहीं बल्कि चीनी सैनिक था। एक अन्य जानकारी के अनुसार, सोंग वंश (960- 1276) के दौरान बारूद का आविष्कार हुआ था।

एक दावा यह भी है कि, हजार साल पहले चीन के हुनान प्रांत के लियुयांग शहर के निवासी संन्यासी ली तियान ने बारूद की खोज की थी। यह क्षेत्र आतिशबाजी निर्माण में दुनियाभर में सबसे आगे बताया जाता है। सोंग वंश के दौरान ली तियांग की पूजा की जाती थी। चीन में हर साल 18 अप्रैल को आतिशबाजी के अविष्कार का जश्न मनाकर ली तियांग को याद किया जाता है। चीन में मान्यता है कि आतिशबाजी, पटाखों से बुरी आत्माएं भागती हैं। इसलिए जन्मदिन, विवाह, नववर्ष जैसे खुशी के मौकों पर आतिशबाजी की परंपरा शुरू हुई और फिर दुनियाभर में फैली।

गन पाउडर बाद में भारत में आया, लेकिन मुगलों से पहले पटाखे जरूर आ गए थे। इसका बड़ा इस्तेमाल शिकार या हाथियों की लड़ाई के दौरान होता था। पटाखे चलाए जाते थे ताकि उन्हें डराया जा सके। मुगलकाल में शादी या अन्य जश्न में भी पटाखे और आतिशबाजी होती थी।

ईसा पूर्व काल में रचे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे चूर्ण का विवरण है जो तेज़ी से जलता था, तेज़ लपटें पैदा करता था और अगर इसे एक नलिका में ठूंस दिया जाए तो पटाख़ा बन जाता था। बंगाल में बरसात के बाद कई इलाक़ों में सूखती हुई ज़मीन पर लवण की एक परत बन जाती थी। इस लवण को बारीक पीस लेने पर तेज़ी से जलने वाला चूर्ण बन जाता था, अगर इसमें गंधक और कोयले के बुरादे की उचित मात्रा मिला दी जाए तो इसकी ज्वलनशीलता भी बढ़ जाती थी। जहां जमीन पर यह लवण नहीं मिलता था, वहां इसे उचित क़िस्म की लकड़ी की राख की धोवन से बनाया जाता था। वैद्य भी इस लवण का इस्तेमाल अनेक बीमारियों के लिए करते थे।

 यह बारूद इतना ज्वलनशील भी नहीं था कि इसका इस्तेमाल दुश्मन को मारने के लिए किया जा सके। उस तरह के बारूद का ज़िक्र तो शायद पहली बार साल 1270 में सीरिया के रसायनशास्त्री हसन अल रम्माह ने अपनी किताब में किया, जहां उन्होंने बारूद को गरम पानी से शुद्ध करके ज़्यादा विस्फोटक बनाने की बात कही।

स्रोतः

  • https://www.hmoob.in/wiki/Firecracker
  • https://www.bhaskar.com/dboriginal/news/facts-history-of-firecracker-in-india-01669569.html
  • https://zeenews.india.com/hindi/india/how-old-are-fireworks-were-firecrackers-lit-when-lord-ram-returned-to-ayodhya-on-first-diwali/1021823
  • https://www.zeebiz.com/hindi/india/firecrackers-history-know-firecrackers-starts-from-china-with-bamboo-tree-101128

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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