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जुगनु मधुर संगीत भी सुनाते हैं

नई दिल्ली


जुगनु के पास प्रकाश की ऐसी व्यवस्था है जिससे यह अपने आसपास के अंधकार को मात दे सकता है। जुगनु हरे पीले व लाल रंग का प्रकाश उत्पन्न करते हैं। सामान्य तौर पर तो ये एक से डेढ़ सेंटीमीटर तक लंबे होते हैं, लेकिन दक्षिण कोरिया और फ्रांस में इसकी एक ऐसी प्रजाति पाई जाती है जो 10 से 12 सेमी तक लंबी होती है। ये जंगली इलाकों के पेड़ों की छालों में प्रजनन करते हैं। जुगनु की खोज 1967 में वैज्ञानिक रॉबर्ट बॉयल ने की थी। इन्हें प्रकृति की टार्च भी कहा जाता है। इनके चमकने के पीछे शुरुआत में माना जाता था कि इनके शरीर में फास्फोरस होता है, लेकिन इटली के वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि इनका चमकना फास्फोरस के कारण नहीं बल्कि इनके शरीर में पाए जाने वाले प्रोटीन ल्युसिफेरस के कारण है।

इनके पास इतना प्रकाश होता है कि यदि किसी कांच के मर्तबान में 15 से 20 जुगनुओं को एक साथ रखा जाए तो इस मर्तबान से एक टेबललैंप का काम लिया जा सकता है। जुगनु वैसे तो हर जगह पाए जाते हैं, लेकिन अच्छी बारिश वाले इलाकों, सघन पेड़ पौधों वाली जगहों में रात के समय पेड़-पौधों झुरमुटों के आसपास इन्हें चमकते हुए आसानी से देखा जा सकता है।

दक्षिण अमेरिका के हरे-भरे जंगलों में अक्सर जुगनुओं के विशाल समूह को वृक्षों पर एक साथ विश्राम करते देखा जा सकता है। वृक्ष पर एक साथ इतने सारे जुगनुओं को देखकर प्रतीत होता है जैसे वृक्ष ढेर सारी लाइटों से सजा हो।जुगनु लगातार नहीं चमकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल में चमकते और बंद होते हैं। इनकी कई प्रजातियां तेज प्रकाश देने वाली भी होती हैं।

दक्षिण अफ्रीकी जंगलों में तो जुगनुओं की ऐसी प्रजातियां भी हैं जो 300 ग्राम तक वजनी होते हैं और ये तकरीबन 10 फुट के गोल घेरदार क्षेत्र को प्रकाशमय कर देते हैं। यहां के जंगलों में लोग इन जुगनुओं को कांच के जार में एकत्र कर लालटेन का काम लेते हैं। दक्षिण अमेरिका, साइबेरिया, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, भूटान, मलाया तथा भारत में भी कई जगहों पर तेज प्रकाश उत्पन्न करने वाली जुगनुओं की प्रजातियां भी मिल जाती हैं। भारत में हिमालय की तलहटी में पाए जाने वाले कुछ जुगनु रंग-बिरंगी रोशनी के साथ ही मधुर संगीतमय आवाज भी निकालते हैं।

रात के समय जुगनु को चमकते देखना वाकई बहुत दिलचस्प होता है। इनके प्रकाश का उपयोग युद्ध के समय फौजियों द्वारा किसी संदेश या नक्शे को पढ़ने के लिए भी किया जाता रहा है। इनके अलावा भी अब कई जीवों की ऐसी प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं जो रोशनी पैदा करती हैं, इनमें बैक्टीरिया, मछलियां, शैवाल, घोंघे और केकड़े की कुछ प्रजातियां शामिल हैं। कुकरमुत्ते की भी एक प्रजाति ऐसी है जो रात में तेज रोशनी से चमकती है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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