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वो रहा तिलाड़ीसेरा रवांई ढंडक का चश्मदीद गवाह

‘पलायन एक चिंतन’ टीम के साथ रवांई के ‘सरबड़ियाड़’ क्षेत्र की यात्रा (13-16 जुलाई 2016) भाग-2

डॉ. अरुण कुकसाल

Arun Kuksaal
डॉ. अरुण कुकसाल

आप में से कोई अधिकारी कभी गए हैं, सरबड़ियाड़ क्षेत्र की ओर ? प्रदीप पूछते हैं तो थोड़ी सी खामोशी के बाद नहीं सर, कभी जाना नहीं हुआ। कुछ ने कहकर तो बाकी ने चुप रहकर जवाब दे दिया। भाई, हम तो जा रहे हैं आप लोग भी चलें तो बड़ियाड़ क्षेत्र की हकीकत से मुलाकात हो जाएगी आपकी। बड़कोट में बैठक को विराम देते हुए प्रदीप बोलते हैं। बैठक छूटने के बाद बाहर आते हुए लोगों की कई आवाजें इधर-उधर से सुनता हूं ‘1981 में मैं बीएससी में था तो प्रदीप टम्टा जी हमारे अल्मोड़ा कालेज छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। तब ये पढ़ने वाले भी हुए और जन मुद्दों पर लड़ने वाले भी‘। ‘इनके साथ बड़ियाड़ चलने का मन है़ पर कल बैठक है मंत्री जी की देहरादून में’। ‘अभी ये सूचना भेजनी है शासन में और यहां नेट चलने वाला ही नहीं हुआ’। ‘सूचना भेजने से काम हो जाते तो आज बड़ियाड़ फर्र से जाते गाड़ी में बैठकर’। मेरे बगल से बुदबुदाती एक और आवाज आती है, ‘हमारी तो देहरादून की दौड़ा-दौड़ी ही रहती है। काम कब करें’ ?
देर शाम रात्रि विश्राम के लिए बड़कोट से गंगनानी (5 किमी.) की ओर चलना हुआ। ‘पलायन एक चिंतन’ अभियान के सक्रिय सदस्य विजयपाल रावत भी अब हमारे साथ हैं। विजय बातों-बातों में बताते हैं कि रवांई में एक कहावत है ‘दुनिया सरनौल तक है उसके बाद बड़ियाड है।’ मतलब यह कि सरनौल गांव के बाद ऐसा लगता है कि हम किसी नई और अनोखी दुनिया में जा रहे हैं। विजय सरनौल तक पहले गए हुए हैं, पर पैदल। अब तो सरनौल तक गाड़ी जाती है। आज के रात्रि ठिकाने पर पहुंचे तो नजर आया ’वन विश्राम गृह, गंगनानी, कुथनौर रेंज’। आपने विद्यासागर नौटियाल जी का उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ पढ़ा है ? विजय उत्सुकता से प्रदीप से पूछते हैं। नहीं, पर अब पढ़ना चाहता हूं, प्रदीप ने कहा। मुझे याद आया, अरे हां, यही तो वो डाकबंगला है, जहां रहकर टिहरी राजशाही के दीवान चक्रधर जुयाल ने तत्कालीन अन्य राजकर्मियों के साथ मिलकर तिलाडी कांड (30 मई 1930) की साजिश रची थी। ‘यमुना के बागी बेटे’ उपन्यास में इस डाकबंगले का प्रमुखता से जिक्र है। टिहरी रियासत के इतिहास का वो काला पन्ना याद करते ही सिहरन महसूस होती है। इस 100 साल पुराने डाकबंगले को नया स्वरूप दिया गया है। पर बंगले की आत्मा तो वही होगी। रवांई के लोगों के उस विद्रोह पर बात चल ही रही थी कि खबर आई कि सरबडियाड़ क्षेत्र के 12 ग्रामीणों को पेड़ों को काटने के जुर्म में आज ही गिरफ्तार किया गया है। माजरा क्या है ? यह समझने में कुछ देर लगी। उसके बाद तो हर किसी के मोबाइल घनघनाने लगे। बात यह सामने आयी कि बड़ियाड़ क्षेत्र के लिए गंगटाडी पुुल से सर बड़ियाड गांव़ को वर्ष 2008 में स्वीकृत 12 किमी. की सड़क के अब तक भी न बनने के विरोध स्वरूप किन्हीं ग्रामीणों ने प्रस्तावित सड़क के आर-पार के सैकडों पेड़ धराशायी कर दिए थे। पता लगा कि बड़ियाड़ क्षेत्र की ओर जाने वाली यह पहली सड़क होगी। 8 साल से सड़क आने की उत्सुकता और धैर्य जब जवाब दे गया तो ग्रामीणों का आक्रोश इस रूप में सामने आया। पेड़ काटने की जानकारी वन विभाग के अधिकारियों के संज्ञान में आने पर आज ग्रामीणों पर कार्रवाई हुई है। प्रदीप उच्च अधिकारियों से बात करके यह समझाते हैं कि ग्रामीणों की मंशा कोई गलत नहीं थी। स्वीकृत सड़क का 8 साल तक न बनना उनके प्रति एक अन्याय ही है। आखिरकार, देर रात पकड़े गए 12 ग्रामीणों को छोड़ने पर सहमति बन ही जाती है।
बड़कोट के पास ही यमुना पर बने पुल को पार करके तीखी चढ़ाई की एक धार पर पहुंचते ही विजय ने कहा ‘वो रहा तिलाड़ीसेरा रवांई ढंडक का चश्मदीद गवाह’। (30 मई 1930 को तिलाड़ीसेरा में तिल रखने की भी जगह नहीं थी। 10 दिन पहले 20 मई 1930 को राड़ीडांडा में हुए गोलीकांड का गुस्सा सारे रवांई के लोगों में था। लिहाजा सैकड़ों की संख्या में रवांई के रवांल्टा टिहरी राजशाही के खिलाफ निर्णायक जंग लड़ने को उस दिन तिलाड़ीसेरा में जमा हुए थे। पर वे कुछ कर पाते उससे पहले ही राजा के कारिंदों ने एकत्रित भीड़ पर गोलियां चला दी, जिससे 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे) भाई लोगों, जहां हम खड़े हैं, यहीं इसी धार से ढंडकियों पर कई राउंड गोलियां चली थीं। धांय-धांय, कुछ गिरे तो कुछ ने यमुना में छलांग लगाई पर जान गवां बैठे। यमुना के उन बागी बेटों को सलामी देते तिलाड़ीसेरा की ओर मुखातिब विजय हमें उस घटना के बारे भी और भी बताते जा रहे हैं। इसी धार के पास बड़कोट महाविद्यालय का नवनिर्मित परिसर लगभग तैयार होने को है। विजय बड़कोट महाविद्यालय छात्रसंघ के वर्ष 2007 में अध्यक्ष रहे हैं और बढ़िया बात यह है कि उन्हीं के कार्यकाल में यह परिसर स्वीकृत हुआ था। प्रदीप कहते हैं, बधाई ! विजय, यह तो तुम्हारा विजय पथ है।
और ये है भाई लोगों, डख्यााट ग्राम सभा। कोई विशेष बात नहीं दिखी ना। चलो, आगे चलकर गांव के ऊपरी धार में पहुंच कर देखते हैं। अरे वाह ! क्या घना जंगल है। गांव की ऊपरी सार पर बेमिसाल जंगल। विजय बताते हैं कि ये सब गांव के लोगों की मेहनत का फल है। इस पूरे पहाड़ पर ग्रामीणों ने वर्षों से देखभाल करके जंगल पैदा किया, उसे पाला-पोसा और आज वे उसका लाभ ले रहे हैं। इस नेक कार्य में हिमालयन एरिया रिसर्च सेंटर (हार्क) ने ग्रामीणों को जंगल लगाने एवं देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित किया।

राजगढ़ी आने को है, टिहरी रियासत में राजा की रवांई क्षेत्र की कोर्ट यहीं लगती थी, बल। राजा का गढ़ पहाड़ की चोटी पर है और सरनौल वाली सड़क उससे जरा हट कर है। चलो, फिर कभी देखेगें, अभी तो आगे का मुकाम सरनौल गांव तक जाने का है। गंगटाड़ी पुल के नजदीकी ग्रामीणों का हुजूम है। पुल पार करके सरनौल की ओर सड़क है। पर पुल से पहले ही सीधे आगे की ओर एक सड़क और दिखाई देती है। गंगटाड़ी से सर गांव की ओर पिछले 8 साल से निर्माणाधीन 12 किमी. वाली सड़क का पहला छोर यही है। एक सज्जन कह रहे हैं कि ‘यहां से 2 किमी. तक बनने के बाद अचानक लापता जैसी हो गई है ये सड़क। अब राज्य सभा सांसद जी आए हैं, तो थोड़ा उम्मीद जगी है। क्या पता अधिकारी भी जाग जाएं’। एक आदमी ने पते की बात कही कि ‘साहब, यह सड़क पूरी तो बनी नहीं, हां बजट जरूर पूरा खत्म हो गया और तो और इसी सड़क की मरम्मत के नाम पर भी पैसा हजम हो गया है, ऐसा सुनते हैं जी’। ऐसा कैसे हो सकता है ? मैने कहा। सब हो जाता है जी आप समझा करो। वो सज्जन सहजता से बोलतें हैं। अब कर लो बात।
गंगटाड़ी से सरनौल गांव 15 किमी. है और रास्ता है पूरी तीखी चढ़ाई का। इस सड़क का पहला फेज पूरा हुए 3 साल से ज्यादा हो गया है। परन्तु अभी सड़क के पक्के होने में कितने साल लगेंगे यह तो भगवान ही जाने। अव्यवस्थित कच्ची सड़क पर गाड़ियों का चलना बहुत जोखिम भरा है। सरनौल से पहले बूटाधार के पास लगा कि हमारी गाड़ी सरनौल तक पहुंच भी पाएगी क्या ? सरनौल इस इलाके बड़ा गांव है। पोस्ट आफिस, इंटर कालेज, चाय-राशन-कपड़े की दुकानें हैं। गांव में रेणुका देवी मंदिर है, जिसकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक है। मंदिर के प्रांगण में ग्रामीणों से भेंट होती है। अब तक स्वागत में मिली बाजारी नकली फूलों की मालाओं की जगह यहां असली फूलों की मालाएं दिखीं तो लगा अब पहुंचे हम नैसर्गिक प्रकृति के पास। संचालक महोदय मांग पत्र प्रस्तुत करते हैं, तो उसमें सबसे पहली मांग गांव में मोबाइल टावर लगाने की है। फिर दूसरी मांग सड़क को पक्का करने की। संचार और यातायात आज की दुनिया में समुदायों की जरूरतों में पहले नम्बर पर हैं। यह तो समझ में आ ही गया। बैठक में पुरुष कुर्सियों पर विराजमान तो महिलाओं की भीड़ मंदिर के चौक से बाहर दीवारों की ओट में लुकी-छुपी सी दिखाई दी। बार-बार उन्हें चौक में बैठने को कहा तो एक ग्रामीण चुपके से कहता है, नहीं आएंगी सहाब वे चौक में। पर क्यूं ? समझा करो। वो कहता है। मैं चौंका ! गंगटाड़ी पुल वाली बात फिर से किसी और ने मुझसे कह दी। अब कर लो बात। मेरी समझ भी कब समझदार होगी ?                                                                                                     आगे जारी है……

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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