Story

वो लड़की लिली…

दो दिनों से सामने के खाली पड़े घर में कुछ हलचल सी दिख रही थी, पर वो हलचल सिर्फ रात को ही नज़र आती। रात को एक लड़का काली कार में बिस्तर बंद, कपड़ो की बड़ी-बड़ी गठरी भर-भर कर दो चार चक्कर उस घर के लगाता और सुबह सब नदारद। लगभग एक हफ्ते बाद फिर रात के वक्त दो -तीन साये से दिखे जो कुछ खुसफुसाहट करते कहीं आसपास किसी खाने पीने की जगह के बारे में बातें करते हुए कार में बैठकर निकल जाते। मैंने अपने पति से कुछ अनमने ढंग से ये बात शेयर की कि सामने घर में आये लोग कुछ संदिग्ध से लग रहे हैं, रात को हलचल होती है, सुबह वहाँ कोई दिखायी नहीं देता। अनमने ढंग से इसलिए कि मुझे वो कहते हैं कि तुम हर किसी को संदेह की दृष्टि से देखती हो। थोड़ा सकारात्मक सोचो और खुले विचारों की बनो। उनके ऐसा कहने पर मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि क्या मैं वाकई नकारात्मक सोच की हूँ। खैर फिलहाल यहाँ मसला मुझे तो कुछ संदेहास्पद लग रहा था। उन्होंने मेरी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

अनीता मैठाणी, लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं

ये सिलसिला कुछ दिन यूं ही चलता रहा। जिस घर में हम रहते हैॆ, वहाँ की बाउण्ड्री वाॅल सामान्य से जरा ज्यादा ही ऊँची है। मकान मालिक से कारण पूछा तो पता चला कुछ 10 साल पहले उनके घर चोरी हो गयी थी उसके बाद उन्होंने बाउण्ड्री वाॅल ऊँची करवा दी। मैं भी उसके बाद अपने कामों में व्यस्तता की वजह से उस घर की तरफ ध्यान नहीं दे पायी। एक दिन मेरे बच्चे स्कूल से आकर कहने लगे मम्मी आज हम सामने वाले घर में एक लड़की है उसे भी अपने साथ खिलायेंगे। उसने हमें अभी हाथ हिलाकर कहा मैं भी शाम को आऊंगी क्या मुझे भी अपने साथ खिलाओगे। मैने कहा, ‘‘लड़की कौन लड़की‘‘। दोनों भाई बहन मेरी तरफ देखकर बोले- ‘‘अरे मम्मी वो सामने वाले घर में रहने आयी है वो लड़की। मेरा ध्यान तुरन्त उस घर की ओर चला गया मैंने कहा कितनी बड़ी लड़की है वो। बेटा बोला- मम्मी बड़ी नहीं छोटी ही है, हर्षिता से छोटी है। अन्य दिनों की अपेक्षा आज उन्होंने अपना लंच बिना ना-नुकुर के फटाफट किया और वो खेलने के लिए भी समय से कुछ पहले निकल गये, शायद नयी दोस्त से मिलने के उत्साह में। मेरे मन में बीच-बीच में ख्याल आया कि जाने कौन बच्ची है, कैसी है, फिर इस बात से दिमाग झटक दिया, सोचा बच्ची ही तो है, कैसी है कौन है इससे क्या फ़र्क पड़ता है।

कुछ डेढ़-दो घंटे बाद जब बच्चे खेलकर लौटे तो वे आते ही बताने लगे, ‘‘मम्मी उस लड़की नाम लिली है, वो लोग हल्द्वानी के हैं। लेकिन अभी यहाँ पास से ही कहीं से शिफ्ट होकर आये हैं। मैंने कहा, ‘‘अच्छा-अच्छा ठीक है, अब हाथ-पैर धोकर पढ़ने बैठ जाओ। आज क्या लिली की ही बातें करते रहोगे। दोनों बोले, ‘‘अरे मम्मी वो ना बहुत मजे़दार बातें करती है और ठुमक ठुमक कर चलती है। बेटा तो उठकर उसकी चाल की नकल करके दिखाने लगा, दोनों जोर से खिलखिलाकर हंस पड़े। अब तो उनकी नई दोस्त रोज ही उनके साथ खेलने लगी थी, कभी-कभी वो गेट से दोनों को आवाज़ भी लगा लेती थी। एक दिन जब बच्चे घर पर नहीं थे, डोर बैल की आवाज पर मैं बाहर गयी मैंने देखा एक 10-11 साल की प्यारी सी बच्ची, मैं देखते ही समझ गयी कि ये ही लिली है बच्चों की नई दोस्त। मुझे देखकर वो बोली आंटी नमस्ते, क्या हर्षिता, नमन आज खेलने नहीं आ रहे। मैंने उसे बताया कि वो दोनों आज स्कूल से सीधे नानी के घर पर चले गये हैं और शाम को देर से लौटेंगे। मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर फीकी सी मुस्कान बिखर गई वो धीमे कदमों से लगभग पैरों को जमीन से घसीटते हुए अपने घर की तरफ लौट गयी। ये थी मेरी लिली से पहली मुलाकात।

यूं ही दिन बीतते गये, एक दिन मेरी नज़र सामने वाले घर से बाहर निकल रही महिला पर पड़ी, लगभग 54-55 साल की तंदुरूस्त महिला जो पहली ही नज़र में मुझे बेहद फूहड़ लगी। हालांकि उसने अपनी तरफ से सजने-संवरने में कोई कमी नहीं छोड़ रखी थी। शाम को मैंने बच्चों से पूछा बेटा क्या उसके मम्मी पापा भी यहीं रहते हैं। वो बोले हाँ मम्मी, उसके मम्मी-पापा यहीं रहते हैं। अब आये दिन हमारे घर पर लिली की बातें होती थी। फिर कुछ दिनों बाद वो बताने लगे कि लिली जिन्हें मम्मी कहती है असल में वो उसकी मम्मी नहीं है। वो उसकी मौसी है, उसकी मम्मी तो गाँव में रहती है पर जिसे वो पापा कहती है वो उसके असली पापा हैं। उसकी मौसी के दो बेटे हैं, बड़ा बेटा मुम्बई में जाॅब करता है, और यहाँ जो भैया रहता है वो छोटा वाला है। मैं भी सोचने लगी कि हाँ जो महिला मैंने देखी थी वो उम्र और चेहरे से तो कतई उसकी माँ नहीं लग रही थी। 

कुछ दिन बाद बच्चे एक और खुलासा करने लगे कि लिली जिसे अपनी मौसी बता रही थी, वो असल में उसकी मौसी नहीं है। दोनों बच्चे एक दूसरे को देखकर मुंह पर हाथ रखकर हँसने लगे मेरी बेटी बोली मम्मी बताऊं वो तो उसके पापा की फ्रैंड है। लिली ने बताया कि एक दिन उसके पापा का उस आंटी के फोन पर राॅन्ग नम्बर लग गया और बातों-बातों में वो दोनों दोस्त बन गये। उसके पापा वहाँ कभी लोगों की दुकानों में, कभी खेतों में काम करते थे। आंटी ने उसके पापा को काम दिलाने काे कहकर देहरादून बुला लिया और अब उसके पापा पिछले दो साल से उनके साथ ही रहते हैं। आंटी के कहने पर 8 महीने पहले उसके पापा उसे भी देहरादून लेकर आ गये। तब से वो इन्हीं के साथ रहती है। ये सुनकर मुझे फिर कुछ संदेहों ने आ घेरा, कहीं वो महिला बच्ची से काम करवाने के लिए तो उसे अपने साथ नहीं रख रही। मैंने बच्चों से पूछा क्या लिली स्कूल नहीं जाती, इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। पर कुछ दिन बाद उन्होंने बताया कि मम्मी लिली का पास के एक अच्छे स्कूल में एडमिशन हो गया है, वो कल से स्कूल जाना शुरू कर देगी।

कुछ समय बाद लिली की आंटी और उसके पापा ने मेन रोड के पास पाॅलीथिन शीट्स और कुछ खम्बे लगाकर एक छोटी सी चाय की दुकान खोल ली, जिसमें नमकीन, बिस्किट, चिप्स, टाॅफी, सिगरेट, गुटखा जैसी चीजें भी रखी थी। जिस किसी को इस दुकान के बारे में पता चलता वो एक बार को चौंकता क्योंकि वो जिस घर में रहने आये थे उस घर का किराया 12 हजार रुपये महीने था, उनके पास जो
कार थी वो लगभग 6-7 लाख की थी और उन आंटी के पति किसी कम्पनी में काम करते थे। इन सबके बावजूद वो रास्ते में एक खोखा खोल के चाय बेच रही थी, बात कुछ गले नहीं उतर रही थी। ख़ैर …… राम जाने। रोज सवेरे करीब साढे आठ बजे लिली के स्कूल जाने के बाद उसकी वो आंटी और पापा दुकान के जरूरी सामानों के साथ दुकान के लिए निकल जाते थे। फिर दोपहर दो-ढाई बजे लिली को स्कूल से साथ लेकर ही लौटते थे। साढ़े तीन -चार बजे शाम को दोनों फिर दुकान पर चले जाते और रात को नौ-साढ़े नौ बजे घर लौटते। तब तक लिली घर पर उस आंटी के बेटे जो कि 27-28 साल का था के साथ रहती।

मेरे बच्चों का ग्रुप कुल 6 दोस्तों से आबाद था -उत्कर्ष, चिंटू, शिवांश, लिली, हर्षित और नमन। एक दिन मैंने बच्चों को कहते सुना लिली मिश्रा शर्मा- लिली मिश्रा शर्मा। मुझे उन्हें बाहर जाकर डांटना पड़ा वो सब मुझे देखकर चुप हो गये और साॅरी कहने लगे। घर आने पर मैंने अपने बच्चों को समझाया बेटा ऐसी बात नहीं कहते, तो उन्होंने कहा अरे! मम्मी ये हम नहीं कह रहे, ये तो वो खुद कह रही थी कि मुझे शिवांश पसंद है, मैं बड़े होकर शिवांश से शादी करूंगी। इसलिए हमने उसे चिढ़ाना शुरू कर दिया और वो इस बात से बहुत खुश हो रही थी ना कि चिढ़ रही थी। चिढ़ तो शिवांश रहा था, वो उस लिली को मार भी रहा था। उनकी पूरी बात सुनकर मुझे भी हँसी आ गयी। कभी बाहर खेलते हुए बच्चों पर नज़र पड़ती तो उस बच्ची के फटे-पुराने कपड़े देखकर कुछ अजीब सी फीलिंग आती। कभी लगता कहीं ये लोग उस छोटी सी बच्ची को घर का काम करवाने के मकसद से तो अपने साथ नहीं ले आये हैं। मैं बच्चों से
कहती बेटा उसे बताओ कि उसके कपड़े फटे हैं उसे बदल कर आये, वो कहते मम्मी हमने उसे बताया था वो कह रही है सब कपड़े एेसे ही हैं। कभी लगता मैं अपनी बेटी के कपड़े उसे पहनने को दूं। फिर लगता कहीं उन लोगों को बुरा ना लगे। उस औरत का चेहरा सामने आ जाता कहीं वो इस बात को इश्यू ना बना दे, कि मैंने कैसे ऐसा सोच लिया कि वो दिये हुए कपड़े उसे पहनायेंगे, वगैरह-वगैरह।

अब आजकल मुझे अपने बच्चों के साथ-साथ लिली का भी ख्याल रह-रह कर आ ही जाता। कभी-कभी देर शाम तक भी उनके घर पर अंधेरा रहता, तब बच्चे बताते कि वो टीवी देखती रहती है और लाइट आॅन करना भूल जाती है। एक दिन मैंने देखा उसके बाल गर्दन तक बड़े अजीब ढंग से कटे हुए, बच्चों से पता चला कि आंटी के पास उसके बाल बनाने का टाइम नहीं है इसलिए उन्होंने उसके बाल कटवा दिए।  अब ये तो सरासर नाइंसाफी थी, उसके इतने सुंदर बाल थे जो आंटी ने अपनी सहूलियत के लिए कटवा डाले। मुझे बहुत बुरा लगा अचानक उसकी माँ का ख्याल हो आया कि अगर वो होती तो शायद उसके बाल नहीं कटवाने पड़ते। आये दिन लिली को लेकर बच्चे नयी-नयी बातें बताते, जिससे उस सामने के घर
वालों के बारे में शंका बनी रहती। जैसे एक दिन बच्चे कहने लगे कि लिली ने उन्हें कहा कि उसका असली नाम लिली नहीं है और वो मिश्रा भी नहीं है। वो कह रही थी तुम्हें कभी मेरा असली नाम पता नहीं चलेगा, और ना ही ये कि मैं कहाँ से आयी हूँ। फिर उसने कहा नहीं-नहीं मैं तो यूं ही तुम्हें बुद्धू बना रही हूँ, मेरा नाम लिली मिश्रा ही है। इन बातों से कभी मुझे लगता कि लिली मजाक कर रही होगी, पर कभी लगता कहीं वो सच कहने की कोशिश तो नहीं कर रही, कहीं वे घर वाले वाकई उसे कहीं से उठाकर तो नहीं ले आये हैं। फिर उसके पापा का ख्याल आता, वो तो उसके साथ ही हैं, हमें चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

ये मार्च का महीना था मेरा बेटा अपने बर्थडे पार्टी की गेस्ट लिस्ट में लिली का नाम लिख चुका था। बर्थडे वाले दिन लिली शर्माते हुए रेड गाउन में आयी और बच्चों से बोली मेरी आंटी और पापा दुकान पर हैं। मैंने उन्हें बर्थडे का नहीं बताया वर्ना वो मुझे आने नहीं देते। इसलिए मैं गिफ्ट नहीं ला पायी, मेरे बेटे ने कहा लिली कोई बात नहीं बाकि सब तो लायेंगे ना, डोन्ट वरी। मैंने देखा उसकी सैण्डल का स्ट्रैप टूटा हुआ था जिसकी वजह से वो ठीक से चल नहीं पा रही थी। मेरे पति ने तुरंत फेवीक्विक से उसकी
सैण्डल का स्ट्रैप जोड़ दिया, जिससे वो बहुत खुश हो गयी और कहने लगी ये मेरी नई सैण्डल है बस स्ट्रैप टूट गया था। उसने कितनी सफाई से ये बता दिया था कि ये उसकी नई सैण्डल है। अब वो पूरे कान्फिडेन्स से चल पा रही थी।

बच्चे पार्टी की मस्ती में डूबे हुए थे, पासिंग द पिल्लो गेम चल रहा था, अचानक म्यूजिक रूका और पिल्लो लिली के हाथ में था, उसकी चिट में कोई फिल्मी गाना गाओ लिखा था। वो शर्मायी और बोली मैं सबके सामने मुंह करके नहीं गाऊँगी मैं दीवार की तरफ देखकर गाउँगी। सबने कहा नो प्राॅब्लम तू
कहीं भी देखकर गा, बस हमें गाना सुनाई देना चाहिए। उसने गला साफ किया और-
आँखों के पन्नों पे
मैंने लिखा था सौ दफा,
लफ्जों में जो इश्क था
हुआ ना होठों से बयां
खुद से नाराज़ हूँ क्यूं बेआवाज़ हूँ, कि मैं हूँ हीरो तेरा, कि मैं हूँ
हीरो तेरा….
आखिरी की लाइन सब मिलकर गा रहे थे, कि मैं हूँ हीरो तेरा, कि मैं हूँ हीरो तेरा। और सबने लिली के लिए ताली बजाई। लिली ने गाना बहुत ठहराव के साथ बहुत सुंदर गाया था, एक-एक शब्द जैसे कमरे में गूँज रहा था। उस रात लिली बहुत देर तक हमारे घर पर रही तब तक भी उसके पापा और आंटी घर नहीं
लौटे थे। हमने उसे घर जाने को कहा तो वो जाते-जाते बोली, ‘‘अच्छा हुआ वे अभी घर नहीं आये हैं, उन्हें मेरे बर्थडे पर आने का पता नहीं चलेगा‘‘। हम सबने उसे बाय कहा और वो मुस्कुरा दी।

अभी उसे स्कूल ज्वाॅइन किये बामुश्किल दो महीने भी नहीं हुऐ थे, बच्चे कहने लगे मम्मी वो लिली कह रही है कि वो यहाँ से जा रही है। मैंने कहा अच्छा क्या वो लोग हमेशा के लिए जा रहे हैं। वो बोले, ‘‘नहीं मम्मी वो लोग नहीं जा रहे बस लिली और उसके पापा जा रहे हैं, हमेशा हमेशा के लिए। वो दोनों बुरा सा मुंह बनाकर कह रहे थे कि हम फिर 6 से 5 हो जाएंगे, एक तो कट होने वाली है। मैं सोचने लगी 20-22 हजार रुपये लगाकर उसका अभी ही तो एडमिशन करवाया और काॅपी-किताब, फिर यूनिफाॅर्म का अलग से 4-5 हजार रूपये का खर्च, फिर ऐसी क्या बात हो गयी कि बीच में ही उसका स्कूल छुड़वा रहे हैं। बात कुछ समझ नहीं आ रही थी। मैंने देखा अगले दिन वो स्कूल नहीं गयी थी, शाम को उसने बच्चों से कहा कि आज उसका उनके साथ आखिरी दिन है वो कल सुबह चली जायेगी। बच्चे बहुत उदास थे, वो आपस में उसकी बात कर रहे थे। लिली तो बहुत अच्छी है बहुत मस्ती करती है। उनकी बात सुनकर मुझे भी बुरा लगा, पर हम कर भी क्या सकते थे। लिली ने मेरे बेटे को एक पानी वाला गेम भी दिया था निशानी के तौर पर। जो उसने आज भी संभाल कर रखा है।

अगले दिन मैं सुबह 6.30 बजे अपने आंगन में रखे गमलों को पानी दे रही थी, तभी पास रहने वाली और ऊपर रहने वाले मकानमालिक के घर पर काम करने वाली सविता मेरे पास आयी और बोली, ‘‘ दीदी अपने बच्चों को सामने वाले घर पर रहने वाली बच्ची के साथ खेलने उनके घर पर मत जाने दिया करो। मैंने कहा वो उसके घर पर जाकर तो कभी नहीं खेलते और वैसे भी वो तो आज सुबह अपने पापा
के साथ अपने गाँव लौट चुकी है। अब तो खेलने का सवाल ही नहीं उठता। मेरी बात पर वो हे भगवान्! कहते हुए मुंह पर हाथ रखते हुए बोली, दीदी जमाना बहुत ख़राब है। मैंने तो ऐसी बातें सुनी हैं कि आप सुनोगे तो  आपके पांव तले जमीन खिसक जाएगी। वो तो मैंने जब ऊपर वाली आंटी को बताया तो उन्होंने कहा कि तू नीचे दीदी को बता दे उसके बच्चे भी उस लड़की के साथ खेलते हैं और आप कह रहे हो कि वो आज तड़के चली भी गयी।

मैंने कहा क्यों ऐसा क्या हो गया, वो बोली, दीदी आपको पता नहीं उस बच्ची के साथ वहाँ क्या हो रहा था। उस घर में रहने वाला लड़का उस छोटी बच्ची से उसके पापा को पुलिस में पकड़ाने की धमकी देकर मनमानी करता था। पड़ोस में रहने वाली 20-25 साल की स्वाति को उस बच्ची ने इस सबके बारे में बताया था। लिली ने स्वाति को यह भी बताया कि उस आंटी का बड़ा बेटा जो मुम्बई में रहता है वो भी उसके साथ यह सब करता था। मेरा सिर चकराने लगा यह सोचकर कि ओह,यहां तो पूरा परिवार उसकी बर्बादी में शामिल था।

स्वाति ने लिली को समझाया था कि वह सब कुछ अपने पापा को बता दे। पुलिस उसके पापा को नहीं बल्कि उस लड़के को पकड़कर ले जाएगी। उसको भरोसा दिलाया कि वो लड़का जो कर रहा है वो अपराध है, पुलिस उस लड़के को ही पकड़ेगी, तू डर मत, अपने पापा से बात कर। उसने लिली को बहुत प्यार से समझाया तब वो समझ पाई और तभी उसने अपने पापा को बताया होगा और उसका पापा उसको लेकर चला गया होगा।  स्वाति हमारे पड़ोस में रहने वाली 25-26 साल की लड़की थी, जब लिली का स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ था तो उन दिनों लिली खाली रहती थी और स्वाति घर पर आया जाया करती थी। अब स्कूल जाने की वजह से उसका वहाँ आना-जाना कम हो गया था।

वो बताने लगी कि वो औरत लिली के पापा से फोन में दोस्त बनी और तब से उसको काबू में कर रखा है। खुद तो उसके साथ गुलछर्रे उड़ा रही है और उस छोटी बच्ची के साथ उसका बेटा गलत काम कर रहा है, साथ ही उससे घर का काम करवाते हैं। लोगों की नजरों में भले बनने के लिए उसका स्कूल में एडमिशन करवा दिया था। हम बस बातें ही कर सकते थे, जिस पर ये सब बीता था वो तो वहाँ से हम सबसे बहुत दूर जा चुकी थी। अपने सब दुःखों से दूर अपनी माँ के पास। सविता के जाने के बाद मैं भारी कदमों के साथ चलती हुई घर में दाखिल हुई और सीधे किचन में जाकर चाय का पानी चढ़ा दिया। लिली का चेहरा मेरी आँखों के सामने तैरने लगा, उसके गोरे सूखे पड़े गाल, कटे-फटे हाथ, बेढंग कटे बाल और भी बहुत कुछ।

मैं पिछले कुछ गुजरे दिनों को सिलसिलेवार याद करने लगी। उस लड़की के पिता को बेटी के चेहरे पर दर्द, डर, लाचारी कभी कुछ नहीं दिखी होगी। क्या उस औरत के साथ उसका सम्बन्ध इतना घनिष्ठ था कि जिसके लिए उसने बेटी पर हो रहे ज़ुल्म और अत्याचार को भी नज़रअंदाज़ किया? या बेरोजगारी की मजबूरी, पेट की आग आखिर क्या था जिसकी वजह से वो अपनी बेटी का लाचार चेहरा नहीं देख पाया।

लिली को अक्सर उसके पापा स्कूल छोड़ने-लाने जाया करते थे। परंतु कभी-कभी दोपहर को जब मैं अपने बच्चों को स्कूल से लाती, मैं देखती कि वो लड़का अपनी कार से लिली को स्कूल से लाता था। तब मैं सोचती, नहीं; मेरा ये सोचना कि वो लोग लिली को घर के काम के लिए लाये हैं, मेरी गलत सोच है, वो
लिली को एक अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, उसके पापा के ना होने पर उसे गाड़ी से घर लाते हैं। उसको घर जैसा प्यार मिलता है। पर आज यह सब सुनने के बाद मुझे वहाँ लिली के साथ हो रही हैवानियत के अहसास ने अंदर कहीं झिंझोड़ दिया। क्यूं कभी मैंने तमाम शक शुबह के बावजूद कभी लिली को रोक कर उसका हाथ पकड़कर सच जानने की कोशिश नहीं की। उफ्फ्! ये कैसा पछतावा हो रहा था
मुझे? जिसका कोई प्रायश्चित् नहीं था।

यह सब झेल रही लिली कितनी बोल्ड थी दूसरे मायने में। कितनी स्वछन्द थी वो, बच्चों के ग्रुप में जो लड़का उसे अच्छा लगा उसको वो 11 साल की उम्र में कह पा रही थी कि वो उसे पसन्द है और वो बड़ी होकर उससे शादी करेगी। उसको क्या पता कि वो दरिंदे उसके साथ क्या कर रहे हैं, उसे क्या पता ये
अनैतिक है, व्याभिचार है। उसको तो जो दर्द और तकलीफ होती होगी वो तो बस उसकी पीड़ा स्वाति दीदी को बता रही होगी। पर तब क्या जब वो बड़ी होगी, वो मर्द जात के बारे में क्या सोचेगी, उन दोनों भाइयों की घिनौनी करतूत की वजह से क्या वो कभी किसी से प्यार कर पायेगी, किसी पर विश्वास कर पायेगी?

उसको देखकर कहाँ लगा कभी कि कोई उसकी मासूमियत के साथ खेल रहा होगा। उसको धमकाया-डराया जाता होगा। इतना सब वो नन्हीं सी जान कैसे सहन कर पाती होगी, ये सोचना भी मेरी सोच से बाहर था। उस दरिंदे ने उसे किस हद तक डराया होगा उसके पापा को लेकर पता नहीं क्या-क्या कहा होगा; कि उसने अपने साथ हो रहे अत्याचार को जिंदगी का हिस्सा बना लिया। अपने पापा को पुलिस
से बचाने की कोशिश में वो क्या झेल रही थी और उसका वो पिता इन सब बातों से अनभिज्ञ उस औरत की वासना में आसक्त सब ओर से आँखें मूंदे हुए।

बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर स्कूल छोड़कर आने के बाद मैं कुछ कपड़े धोने के लिए निकालने लगी, इतनी देर में हमारे घर के कामों की मदद के लिए आने वाली शकुंतला आ पहुँची मैंने उसे गरम चाय का कप पकड़ाया और सुबह सविता की बताई बात उसे बताने लगी। वो बोली, ‘‘ ओहो दीदी, तभी कल रात को साढे़ आठ बजे जब मैं कर्नल काका के घर से खाना बनाकर घर वापिस जा रही थी, तब वो
औरत और लिली के पापा खोखे के आगे खूब ज़ोर-ज़ोर से लड़ रहे थे। मैं सोच रही थी कि सुबह आपको बताऊँगी पर आपने तो पहले ही ये खबर सुना दी। उसका पापा कह रहा था अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा, तुमने छोटी बच्ची का ख्याल तक नहीं रखा। और वो औरत कह रही थी मैंने तेरे लिए ये दुकान डाली, तेरे लिए काम जमाया और अब जब कमायी का समय है तो तू सब छोड़ कर जाने की धमकी दे रहा है। तू सब भूल गया हमने तेरे लिए क्या-क्या किया, बहुत अकड़ दिखा रहा है। घर जाकर शांति से भी तो बात कर सकते हैं।

सविता ने जितनी बातें मुझे बतायीं वो सब मैं किसी से नहीं कह पा रही हूँ, या यूं कहूं कि किसी से कहने लायक ही नहीं है। हद तो तब हो गयी जब वो बुरी औरत, हाँ वो बुरी औरत और कोई नाम नहीं सूझ रहा मुझे उसके लिए, उसने मेरे बच्चों को अपने खोखे के आगे साइकिल चलाते हुए देखकर रोका और उन्हें खोखे में अपने पास बुलाया और पूछने लगी, ‘‘बच्चों जब लिली तुम्हारे साथ खेलने आती थी तो क्या वो रुपये भी लाती थी?‘‘ बच्चों ने कहा, आंटी दो-तीन दिन 10-15 रुपये लेकर आयी थी बस। वो औरत बोली, ‘‘अरे नहीं बेटा वो तो मेरे हजार-पांच सौ रुपये के नोट भी चुराती थी। बहुत बिगड़ गयी थी वो इसलिए मैंने उसे उसकी माँ के पास गाँव भेज दिया। बच्चों ने बताया कि उन्हें उन आंटी की बात बहुत बुरी लगी, क्योंकि लिली कभी भी चोरी करके पैसे नहीं लाती थी, उनके अनुसार वो तो कभी-कभी अपने पापा से 10-15 रुपये मांगकर लाती थी। मैं सोचने लगी कितनी चालाक औरत थी वो अपना दोष छिपाने के लिए और बच्चों से बातें उगलवाने के लिए कितना आसान था उस औरत के लिए लिली पर इल्ज़ाम लगाना।

लिली को गये अभी 6 दिन ही बीते थे मैंने उस घर में किसी को देखा, अरे! ये तो लिली के पापा ही थे। मेरा खून खौलने लगा, रिश्तों की मर्यादा पिता-पुत्री के सम्बन्ध को ताक पर रखकर यह शख्स वापस आ चुका था। अपनी महिला मित्र और उसके बेटों की काली करतूतों को भुलाकर अपनी दोस्ती निभाने। पिता कहलाने लायक नहीं था वो, वो तो आदमी की जात पर धब्बा था। मुझे लगा जाकर सीधे काॅलर से पकड़कर सवाल-जवाब करूं, उससे लिली के साथ किये गये अत्याचार और अत्याचारियों के साथ उसकी उस दोस्ती पर। पर किस हक से और कैसे, क्या कहूंगी? ये सोचते हुए कमरे में तेज कदमों से चहलकदमी करने लगी मैं और दस से उल्टी गिनती शुरू कर दी, गुस्से पर काबू पाने का ये तरीका किसी ने सुझाया था हाल ही में मुझे। उसी को अमल में लाकर चेक करना चाहती थी, कि कितना कारगर उपाय है ये। उल्टी गिनती तीन-चार बार दोहराने पर मैंने महसूस किया कि उपाय कुछ तो काम कर रही है। मैंने अपने को संयत करते हुए गहरी-गहरी सांस ली और थोड़ी राहत महसूस करते ही दो-चार घूंट पानी हलक से नीचे उतारे। अब मैं काफी ठीक महसूस कर रही थी। मेरी सोच डायवर्ट हो चुकी थी, मैं लंच का मेन्यू तय करने लगी और किचन की तरफ चली गयी। डिब्बे उलटने-पलटने में सारा गुस्सा भूल गयी और लंच की तैयारी में मशरूफ हो गयी।

आज भी कभी सुबह-सुबह उसकी याद आ जाती है, जैसे गेट से ही पूछ रही हो आंटी. क्या कर लिया आपने मेरे लिए सच जानने के बाद? मैं अपने गेट से उसके घर के गेट को देखती हूँ जहाँ वो अब नहीं है। वो दूर लीची के बगीचे में दौड़ती हुई धुंधलके में गुम हो रही है। पूरब से फिर सूरज उग रहा है उसकी रोशनी काॅलोनी के उस घर पर पहले पड़ती है और हमारे घर पर बाद में। जहाँ लिली का वर्तमान और भविष्य आज भी मुझसे प्रश्न कर रहा है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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