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इन युवाओं को वो सपने क्यों दिखाते हो, जो पूरे नहीं करा सको

उस शहर में अखबार की क्या हालत होगी, जब वहां का रिपोर्टर डेस्क को मनमाफिक चलाने लग जाए। कोई रिपोर्टर भले ही कितना ही बड़ा क्यों न हो, वो अपने शहर की डेस्क और उसके कामकाज में दखल करने के लिए अधिकृत नहीं होना चाहिए। दखल और सुझाव में अंतर होता है।

एक अखबार में बड़े मैनेजर का दखल कुछ इस तरह बढ़ गया था कि उन्होंने रिपोर्टिंग से लेकर डेस्क तक का कामकाज एक रिपोर्टर के हवाले कर दिया। इसके पीछे की मंशा वो रिपोर्टर और बड़े मैनेजर ही जान सकते हैं, लेकिन किसी अखबार के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। कुल मिलाकर किसी भी शहर या संस्करण की डेस्क वहीं विराजमान होनी चाहिए, जहां संपादक आसीन हों।

बताया जा रहा था कि उस शहर में अखबार का सर्कुलेशन प्रतिद्वंद्वी से काफी कम था। कोई मैनेजर यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि सर्कुलेशन में कमी की वजह केवल उस शहर से मिलने वालीं खबरें नहीं हो सकतीं। मार्केटिंग की स्ट्रैटजी भी तो कोई चीज होती है, जिसका जिक्र मैनेजरों की हर वर्कशाप में प्रमुखता से किया जाता है।

जब अखबार बढ़ाने का काम भी एडिटोरियल का ही है तो फिर रिपोर्टर्स को प्रोत्साहित क्यों नहीं किया जाता। माफ करना, कई क्षेत्रों में पार्ट टाइम के नाम पर रिपोर्टरों की तैनाती है, जिनमें से कई को हर माह दो -ढाई हजार (तनख्वाह तो कतई नहीं कहूंगा) से शुरुआत हो रखी है।

आज के समय में 12 घंटे काम लेने वाले अखबार बड़े शहरों में युवाओं को हर माह लगभग छह-छह हजार से शुरुआत कर रहे हैं। क्राइम रिपोर्टर और फोटोग्राफर तो ज्यादा कठिन टास्क पर होते हैं। हिसाब लगाएंगे, एक दिन के दो सौ रुपये…।

बड़ा कष्ट होता है… जब युवाओं को सपने दिखाकर पूरे शहर या उससे बाहर भी धूप में, बारिश में, सर्दी में… दौड़ाया जाता है। अखबारों के दफ्तरों में बॉस बनकर शहर या मुख्यालयों में बैठने वाले कुछ सीनियर्स, जिनको इन युवाओं में न तो अपना भाई नजर आता है और न ही बेटा। इनको फील्ड में दौड़ाते समय यह लोग जरा भी नहीं देखते कि बारिश हो रही है या धूप है या फिर सर्दी का कहर है…।

खुद एक खबर ढंग से प्लान नहीं कर पाते और रिपोर्टर्स से कहते हैं कि क्या ऐसे लिखी जाती है खबर। यह पता करो, वो पता करो, उन अधिकारी से बात करो, वहां से फोटो लेकर आओ, वहां चले जाओ… इंतजार नहीं कर सकते थोड़ी देर, आफिस में कुछ देर रुक जाओगे तो क्या हो जाएगा, रात को क्या रिपोर्टिंग नहीं होती, थोड़ा बहुत जोखिम तो उठाना पड़ता है।

क्या ऐसे होगी रिपोर्टिंग, वहां चले जाओ, फोन पर लिखवाते रहना खबर, पूरा दिन आफिस में बैठकर क्या करते हो, खबर छोड़ दी तो स्पष्टीकरण लिखो, बॉस के जानने वाले आ रहे हैं गेस्ट हाउस में दो कमरे बुक करा दो, वो क्या तुम्हारा रिश्तेदार है जो उसकी खबर लिख रहे हो, लगता है अपनी बीट में नहीं जाते, विज्ञापन बुक अभी भरी नहीं है, बॉस की कॉलोनी में बिजली चली गई कम से कम दो कॉलम की खबर लिख दो, वो विज्ञापन वाले बता रहे थे उस शोरूम की कवरेज करनी है।

दस किमी. दूर है तो क्या हुआ खबर तो लिखी जाएगी, बस आज पांच खबरें ही दीं, लीड कहां से मिलेगी…कुछ संक्षिप्त खबरें भी दे दो। वो खबर जो तुम्हारे पास है, मुझे बताओ क्या मैटर है, मैं लिख देता हूं, अखबार में छुट्टी कहां मिलती है, आधे दिन के बाद आ जाना, अपनी बीट की खबरें घर से लिखकर भेज देना।

ये तमाम बातें हैं, जो रिपोर्टर को सुनने को मिलती ही हैं। बड़े दुख की बात है कि ये बातें वो लोग सुनाते हैं, जो दफ्तर से खुद बाहर नहीं निकलते और अपने रिपोर्टरों की खबरें लिखते हैं या फिर उनसे कंटेंट लेते हैं या फिर विज्ञप्तियों में अपने लिए खबरें तलाशते हैं।

रिपोर्टर के पास गाड़ी में पेट्रोल डालने के लिए पैसे हैं भी या नहीं। उसने सुबह से कुछ खाया भी है या नहीं। इतने कम पैसे में वो अपने खर्चे कैसे पूरे कर रहा है। ऊपर से कुछ लोग अपने ही साथियों को बिना वजह यह कहने से भी नहीं चूकते कि कर लेगा इंतजाम। यह सत्य है कि जो स्वयं जैसा होता है, उसे दुनिया वैसी ही दिखती है। पर, जो मैं आपको बता रहा हूं वो पूरी तरह अनुभव है।

मान लिया कि कोई इंचार्ज किसी युवा रिपोर्टर की आर्थिक मदद नहीं कर सकता, पर उसकी बात तो अपने बड़े अधिकारियों के सामने रख सकता है। उसकी खबरों को अपने अधिकारियों के सामने तो ला सकता है। यहां तो हालात यह हैं कि कुछ सीनियर्स अपने जूनियर की खबरों को थोड़ा बहुत बदलाव करके अपने खाते में जमा करा देते हैं।

सीनियर्स को फील्ड में जाना हो, तो अपनी गाड़ी की जगह उस पार्ट टाइम ट्रेनी या फोटोग्राफर्स के दुपहिया पर सवार होकर जाएंगे। विज्ञापनों का कमीशन लेते समय ट्रेनी या कम पैसे में काम कर रहे उन साथियों को याद नहीं किया जाता, जिनकी खबरों पर तुम्हारा स्टेशन चल रहा है। लिखने को बहुत कुछ है…, पर अभी के लिए इतना ही। कुछ इंचार्ज तो बहुत अच्छे हैं, जो अपने साथियों के लिए बड़े अधिकारियों से लगातार बात करते हैं।

मेरा सवाल है कि जब किसी सीनियर के बस की बात नहीं है तो युवाओं को सपने क्यों दिखाते हो। उनको सच क्यों नहीं बताते। बता दो कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है। तुम अनिश्चितता के दौर में हो। क्या यह सब परिक्रमाधारियों के सामने अपने नंबर बढ़ाने के लिए करते हो।

किसी के जीवन का अमूल्य समय क्या इसलिए बर्बाद करते हो कि तुम्हें एक, दो प्रमोशन लेकर अपना जीवन संवारना है। धिक्कार है ऐसे लोगों पर…। कई लोगों ने तो अखबारों के नाम अपने परिवारों के सदस्यों को ही आगे बढ़ाया है।

खैर, फिर से उस अखबार की बात करते हैं। बड़े मैनेजर ने एक रिपोर्टर के हवाले पूरी डेस्क करा दी। अब डेस्क भी उसी शहर में बैठने लगी। डेस्क के तीन सीनियर साथी वहां पहुंच गए। उन्होंने किराये पर कमरा ले लिया। उस शहर के छह पेज रिपोर्टर की देखरेख में बनने लगे।

वो रिपोर्टर अपने मनमाफिक खबरें लगवाते। अपनी खबरें खुद ही एडिट करते और खुद ही पेज पर लगवाते। बाकी रिपोर्टर की खबरें डेस्क के साथी अपने हिसाब से लगाते। अखबार में इंटरनेट पर सर्च करके निकाले गए कैरिकेचर लगवाए जाते। उनको तो अखबार को किसी पम्फलेट का सा रूप देना था, वो उन्होंने किया। जबकि अखबारों में इंटरनेट पर खोजे गए कैरिकेचर का इस्तेमाल नहीं किया जाता। अखबारों के पास अपने कार्टूनिस्ट और ग्राफिक डिजाइनर्स की टीम हैं।

ये पेज डेस्क पर हमारे पास आते,जिनमें साफ पता लग जाता कि कोई खबर क्यों लिखी गई है। इस शख्स ने बड़े मैनेजर को यह बताया था कि अगर उसके अनुसार चला जाए तो कुछ ही दिन में अखबार का सर्कुलेशन बढ़ जाएगा। उसने विज्ञापन भी बढ़ने की बात कही थी।

जब कोई रिपोर्टर किसी अखबार में विज्ञापन बढ़वाने की बात कहने लगे तो समझ लीजिएगा कि उसका खबरों से बहुत ज्यादा रिश्ता नहीं है। उसको तो तुरंत विज्ञापन टीम में शामिल कर लेना चााहिए।

हालात यह हो गए कि अखबार का पेज 3 तो बड़े बड़े कैरिकेचर लगने से किसी कॉमिक की सी शक्ल का हो गया। कैरिकेचर को खबर की बॉडी में लगाया जाता है। वो भी एक कॉलम में ज्यादा से ज्यादा चार या पांच सेमी.की हाइट तक। अखबार की टीम के बनाए यूनिक कैरिकेचर ही लगाए जाने चाहिएं।

उस शख्स ने चार कॉलम के कार्टून या कैरिकेचर खबरों में फोटो की तरह इस्तेमाल कराए थे। कोई नहीं बोल रहा था, इन अटपटे और अखबार को नुकसान पहुंचाने वाले प्रयोगों को देखकर। क्योंकि यह फैसला बड़े मैनेजर ने लिया था।

खैर, करीब पांच या छह महीने में अखबार को इस बेसिर पैर के प्रयोग से कोई फायदा नहीं हुआ। एक बार फिर डेस्क अपने स्थान पर अपने संपादक के पास स्थापित हो गई। डेस्क आज भी संपादक के पास ही काम कर रही है और उस अखबार का सर्कुलेशन व विज्ञापन भी बढ़ा है।

संपादकीय और प्रबंधन टीम एक साथ मिलकर ही अखबार को आगे बढ़ा सकते हैं, न कि कोई बड़े मैनेजर और किसी परिक्रमाधारी रिपोर्टर के मनमाने फैसले से।

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Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

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