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राजनीति में कम, अखबारों के दफ्तरों में ज्यादा राजनीति

  • अपने कामकाज में कमजोर लोग ही करते हैं अखबारों में राजनीति
कई बार चुनाव के समय कुछ पत्रकारों के बारे में सुना जाता है कि वो तो उसको चुनाव लड़ा रहा है। उसने तो उसके चुनावी कैंपेन की कमान संभाली है। मीडिया मैनेजमेंट तो वो पत्रकार संभाल रहा है। अक्सर ये बातें विधानसभा के चुनाव तक में सुनाई जाती हैं। स्थानीय निकायों के चुनावों में तो बहुत कुछ सुनने को मिलता है। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों पर तो राजनीतिक दलों ही नहीं, बल्कि नेताओं तक के ठप्पे लगे होते हैं।
माफ करना, ये पत्रकारों की तरह कम, मैनेजरों की तरह ज्यादा व्यवहार करते हैं। सच तो यह है कि दूसरों को चुनाव लड़ाने और जिताने का दावा करने वाले ये पत्रकार अगर, स्वयं चुनाव लड़ लें, तो जमानत जब्त होने की आशंका सौ फीसदी है।
मैंने चुनाव के दौरान पत्रकारों को नेताओं की लिए भिड़ते देखा है। उनको दूसरे पत्रकारों को अपने नेताओं के लिए फोन करते देखा है। अक्सर यह बात की जाती है कि मैं तो उस दल की विचारधारा से प्रभावित हूं। इनमें से अधिकतर से अगर उस दल या व्यक्ति की विचारधारा के बारे में पूछ लिया तो सच मानिएगा, चार लाइन नहीं लिख पाएंगे।
एक मजेदार किस्सा सुनाता हूं, एक वरिष्ठ पत्रकार चुनाव से पहले एक बड़े नेताजी के गुणों का बखान करते थे। उनकी हर नीति और फैसला उनके लिए बड़ा और लोकप्रिय था। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनको किसी आयोग में पद चाहिए था। चुनाव हुआ तो उनके प्रिय नेताजी हार गए। सीनियर पत्रकार ने तुरंत पाला बदल लिया और दूसरे दल के एक अन्य वरिष्ठ नेताजी की तारीफ करने लगे। पर, यहां तो राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। इन वरिष्ठ पत्रकार ने एक बार और पाला बदल लिया। अब उनकी तारीफ करते नहीं थकते, जिनके बारे में पहले कभी चर्चा तक नहीं करते थे।
जो व्यक्ति पत्रकारिता की गरिमा को भूल जाए, उसको हम पत्रकार कैसे मान लें। किसी मीडिया संस्थान से जुड़ना ही पत्रकारिता नहीं है। जो व्यक्ति निष्पक्ष नहीं है, जो व्यक्ति सकारात्मक नहीं है, जो संतुलित नहीं है, जो आदर्श नहीं हो सकता, जो संवेदनशील नहीं है, जो व्यवहारिक नहीं है, जो स्थिर नहीं है, जो जिज्ञासु नहीं है, जो मर्यादा और दायरे से बाहर चला जाए, जो भेदभाव रहित नहीं है, जिसे जूनियर और सीनियर से बात करना नहीं आता, जो स्वयं को ब्रह्मा से ऊपर समझता हो, जो स्वयंभू निर्णायक समझता हो, जिसके पास अपनी बात के तर्क न हों, जो न तो लिखना जानता हो और न ही सीखने को तैयार हो, जो अभिमान से भरा हो, जो कानून को नहीं समझता हो और सबसे बड़ा दुर्गुण जो ईमानदार नहीं है, जिसकी नीयत साफ नहीं है…. उसको पत्रकार कैसे मान लूं। पत्रकार तो पाठकों की आशा है, पत्रकार से वो अपेक्षा करते हैं कि उसने जो लिखा है वो सही लिखा है। वो उस पर विश्वास करते हैं। उनको सही सूचनाओं के लिए अखबार का इंतजार रहता है।
कई बार किसी समस्या को लेकर परेशान लोग अखबारों के दफ्तरों में पहुंचते हैं। हमारे दफ्तर में थानो गांव से एक युवा अपनी माता जी की पेंशन का प्रकरण लेकर आते थे। मैंने उनसे कहा, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। आप सरकारी दफ्तरों में गुहार लगाओ। उनका कहना था कि कुछ न हो, बस आप एक बार मेरी माताजी का पत्र अखबार में प्रकाशित कर दो। कुछ न कुछ तो होगा, मुझे उम्मीद है। उस समय अखबारों में प्रकाशित खबरों को गंभीरता से लिया जाता था। खबर छप गई। करीब एक माह बाद उसने खुशखबरी सुनाई कि समस्या का समाधान हो गया। मैं यह दावा कतई नहीं कर सकता कि अखबार में खबर प्रकाशित होने से उनकी माता जी की पेंशन का मामला सुलझ गया, पर उस युवा को अखबार पर विश्वास था।
मैं करीब एक साल पहले इठारना ग्राम के पूर्व प्रधान 90 वर्षीय भगवान सिंह जी से मिला। मैं इससे पहले कभी इठारना नहीं गया था। वर्ष 2002 में भगवान सिंह जी, इठारना से करीब 35 किमी. दूर ऋषिकेश स्थित अखबार के दफ्तर अपने गांव की समस्याओं को प्रकाशित कराने के लिए आते थे। इठारना से भोगपुर तक पर्वतीय मार्ग है, जो उस समय कच्चा ही होगा। उनको अखबार से आशा थी कि समस्या प्रकाशित होने पर कुछ न कुछ होगा।
मैं विषय से भटक नहीं रहा हूं बल्कि यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि अखबार की ताकत क्या है। अभिव्यक्ति के प्रसार के साथ विश्वसनीयता भी अखबार की ताकत है। पर, जब किसी पत्रकार पर किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति के पक्ष में होने की छाप लग जाए, तो क्या हम उनको विश्वसनीय कह सकते हैं।
जो लोग राजनीति करते हैं, उनके बारे में पता है कि ये राजनीति करते हैं। पर, अखबारों के दफ्तरों में राजनीति करने वाले यह खुलासा करने से क्यों बचते हैं कि वो अपने ही आसपास बैठे और कार्य करने वाले साथियों को नुकसान पहुंचाने, उनको पीड़ित करने के लिए खेल कर रहे हैं। इन लोगों की वजह से कुछ लोग नौकरी तक छोड़ देते हैं।
वैसे तो डेस्क और रिपोर्टिंग के अधिकतर साथियों के पास इतना काम होता है कि उनको फुर्सत ही नहीं मिलती। पर, फिर भी यहां राजनीति होती है। एक बड़े अधिकारी तो कई बार ऐलान सा कर चुके हैं कि मेरे दफ्तर में कोई राजनीति नहीं चलेगी। अगर, कोई राजनीति करेगा तो वो मैं हूं। राजनीति में उनकी समझ पर थोड़ा सा शक होता है।
वैसे तो अखबारों के दफ्तर राजनीति के अखाड़ा नहीं होने चाहिए, पर जब वो मान चुके हैं कि राजनीति होगी, तो यह भी समझ लेना चाहिए कि राजनीतिक दंगल में कोई एक तो कुश्ती लड़ेगा नहीं। वहां कम से कम दो लोग तो अवश्य रूप से होने चाहिएं। अगर वो पक्ष हैं तो उनका विपक्ष कौन है। स्पष्ट करना होगा।
कुल मिलाकर स्पष्ट है कि वो अपने दफ्तर में राजनीति चाहते हैं। उनके दफ्तर में राजनीति होती भी है, पर उनका मानना है कि मेरे सामने कोई नहीं करता। अब कोई बताएगा कि किसी दफ्तर किसकी हिम्मत है कि वो अपने सबसे बड़े अधिकारी के सामने आकर राजनीति करेगा। वैसे भी राजनीति शह और मात का खेल है, इसलिए इसको सामने आकर नहीं किया जाता।
अब आपको बताता हूं कि राजनीति कौन करता है। अखबारों के दफ्तरों में राजनीति वहीं करते हैं, जिनके पास कोई काम नहीं होता। दावे के साथ कह सकता हूं कि बड़े अधिकारी के आर्बिट में चक्कर काट रहे इन लोगों पर काम का बोझ लाद दिया जाए तो अखबारों में राजनीति अपने स्तर की 20 फीसदी तक पहुंच जाएगी। पर, इन पर काम का बोझ तो तभी डाल सकते हैं, जब ये कुछ करना जानते हों।
सवाल यह भी तो है कि इन पर काम का बोझ कौन डालेगा। इनकी एक प्रतिभा का तो मैं कायल हूं, वो है दूसरों से अपनी कार्य कराने की कला। कभी कभार स्वयं की सीनियरिटी का दबाव बनाकर भी कार्य करा लेते हैं। इनमें से कई लोग मैनेजमेंट के अधिकारियों के आर्बिट में भी चक्कर काटते मिल जाएंगे।
जो लोग अपने पेज के लिए दूसरों से खबरें पढ़वाते हैं, जो अपने पेज के कैप्सन तक दूसरों से लिखवाते हैं, जो लोग एक खबर तक लिख नहीं पाते हैं, वो अखबारों के दफ्तरों में क्या कर रहे हैं। हमारा क्या जाता है, जो इनसे काम ले रहा है, वो जाने। पर, इनकी राजनीति उन लोगों का नुकसान कर देती है, जो मेहनत और अपने अनुभवों से प्रगति चाहते हैं। वैसे तो यह भूल ही जाना चाहिए कि अधिकतर बार मेहनत और कार्यबल पर तरक्की मिलती है।
इनकी राजनीति इतनी महीन होती है कि दफ्तर में खुलकर नहीं दिखाई देती। इनका विश्वास ग्रुप बनाने में होता है। जो इनके वश में नहीं होता, उसको किसी न किसी बहाने बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। इस तरह परेशान किया जाता है कि कोई भी सोचने पर विवश हो जाएगा कि कहां फंस गया। यह राजनीति मुख्यालय तक ही सीमित नहीं है, इसने छोटे छोटे दफ्तरों तक
अपना विस्तार किया है। किसी शहर के दफ्तर में कामकाज कर रहे लोगों से इनका क्या मतलब है, पर ये अपना दखल वहां तक करने का प्रयास करते हैं।
यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि अखबारों के दफ्तर में राजनीति करने वाले लोग अपने कार्यक्षेत्र में सबसे कमजोर व्यक्तित्व होते हैं। अखबारों को उसके दफ्तरों की अंदरूनी राजनीति और ग्रुपबाजी ने हमेशा नुकसान पहुंचाया है। जब कामकाज करने वालों को घेरा जाएगा तो वो अखबार की क्वालिटी के लिए पूरे मनोयोग से कुछ नहीं कर पाएंगे और हश्र दिखने लगता है। परिणाम सबसे सामने आता है। राजनीति इस कद्र हो जाती है कि दूसरा मानसिक तनाव झेलता है और एक दिन नौकरी को छोड़ देता है।
कुछ सीनियर का हाल यह है कि उनको अपने अधीनस्थों से ही भय होता है। उनको यह भय उन लोगों से होता है, जिनको ये अपने से ज्यादा एक्टिव, नॉलेज वाला, संपर्कों वाला और तेजी से रिएक्ट करने वाला, लिखने पढ़ने वाला मानने लगते हैं। स्वयं को सुपीरियर मानने वाले जब स्वयं को अधीनस्थ के सामने इन्फीरियर महसूस करने लग जाएं तो समझो कि राजनीति शुरू हो गई। ये इन लोगों को संस्थान से हटाने या फिर किनारे लगाने का खेल शुरू कर देते हैं।
इस खेल के तहत उनकी खबरों को रोका जा सकता है। गलतियों पर सबके सामने टोकने, डांटने का सिलसिला शुरू हो सकता है। कार्यभार छीनकर उनसे जूनियर को सौंपा जा सकता है। उनका ड्यूटी का समय बदला जा सकता है। उनको पूरी ड्यूटी खाली बैठाया जा सकता है। अगर कोई खबर लिखता भी है तो डेस्क से सीधे अपने पास मंगवाया जा सकता है। उनकी खबरों में कांट छांट की जा सकती है। उनसे अखबारों में खबरें गिनवाई जा सकती हैं। कम से कम तीन महीनों के बंडलों से प्रतिदिन के अखबार में विज्ञापन और खबरों के रेशियो की रिपोर्ट बनाने का काम सौंपा जा सकता है। अखबारों की समीक्षा करने, पेज चेक करने का जिम्मा सौंपा जा सकता है।
हाल यह हो जाता है कि पहले जिस सीनियर रिपोर्टर की स्टोरी को सबसे विश्वसनीय माना जाता था। जिनकी जानकारी में अहम खबरें सबसे पहले होती थीं, अब उन पर ही शक किया जाने लगता है। इस शक को बढ़ाने का काम करते हैं परिक्रमाधारी। यह सब उनको परेशान करने के लिए होता है। यह बात सौ फीसदी सही है कि प्रतिभाएं किसी की कृपा पर निर्भर नहीं करती। आप उनका रास्ता रोकेगे तो वो ठीक किसी नदी की तरह अपना रास्ता बना लेती हैं और अपने ज्ञान की धारा को अविरलता प्रदान करती हैं। दूसरा संस्थान मिला तो सही है, नहीं तो अपना मुकाम हासिल करने के लिए पत्रकारिता किसी संस्थान की मोहताज नहीं है।
अभी तक के लिए इतना ही। यह सब बताने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि आप अखबारों की पत्रकारिता करना चाहते हैं तो वहां से संबंधित व्यवहारिक बातों का ज्ञान आपको होना चाहिए। यह अनुभव पर आधारित है। ऐसा भी नहीं है कि सभी जगह राजनीति का ऐसा माहौल हो, पर अधिकतर में कुछ ऐसा ही है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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