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डोईवाला के इस गांव में होती बिना सिर वाले नंदी की पूजा

ज्वालेश्वर महादेव मंदिर परिसर में विराजमान नंदी और कुछ दूरी पर अधूरा प्राचीन कुआं

डोईवाला। राजेश पांडेय

नागल ज्वालापुर डोईवाला ब्लॉक का एक समृद्ध गांव है, जो दूधली से लगता इलाका है। इस पूरे इलाके को कभी “देहरादूनी बासमती” के नाम से भी पहचाना जाता था। यहां वन क्षेत्र स्थित भगवान शिव के मंदिर परिसर में हर साल शिवरात्रि मेला लगता है। प्रसिद्ध “श्री ज्वालेश्वर महादेव” मंदिर के सामने स्थापित  बिना सिर वाले नंदी से जुड़ी एक प्रसिद्ध लोक कथा है। वर्तमान मंदिर में शिवलिंग की स्थापना और प्राचीन कुएं को खोदने की कहानी करीब छह दशक पहले की है।

गांव में एक और ऐतिहासिक मंदिर, सैकड़ों साल पहले, भव्य रूप में मौजूद था। इसके आसपास फलदार पेड़ों वाले उद्यान भी थे, लेकिन यह जानकारी कितनी सही है, कहना मुश्किल है।

डुग डुगी की टीम मंदिर में पहुंची और बिना सिर वाले नंदी से जुड़ी लोक कथा को सुना। कुछ वर्षों पहले ही सेना से सेवानिवृत्ति सुधीर सिंह राणा का बचपन इसी गांव में बीता। मंदिर में ही अधिकतर समय बिताने वाले सुधीर बताते हैं, उन्होंने बुजुर्गों से सुना है, सैकड़ों वर्ष पहले यहां के राजा ने मंदिर की भव्यता एवं सौंदर्य से प्रभावित होकर जीवित नंदी को यहां विचरण के लिए छोड़ा था। राजा ने नंदी के गले में स्वर्ण आभूषण डाले थे।

लोक कथा के अनुसार, “चोरों ने नंदी के गले से आभूषण झपटने का प्रयास किया। पर, वो नंदी के सामने जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। चोरों ने नंदी के पैरों पर तलवार से प्रहार कर उसको घायल कर दिया। पैर काटने के बाद भी वो नंदी पर काबू नहीं कर पा रहे थे। चोरों ने नंदी का सिर काट दिया और वो नंदी के आभूषण लेकर उत्तर और दक्षिण दिशा की ओर भागे।”

“नंदी की यह दशा देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया और वो ज्वाला के रूप में प्रकट हुए और नंदी के कटे हुए अंगों से चोरों पर प्रहार किया। इस तरह चोरों का विनाश हो गया।”

करीब 68 साल के गोविंद सिंह कन्याल भी लगभग यही लोककथा सुनाते हैं, पर यह थोड़ी सी अलग है। वो कहते हैं, “जो बुजुर्गों से सुना है, वही आपको बता रहा हूं। नंदी के गले में हीरे मोतियों की मालाएं थी। चोरों ने हीरे मोती झपटने के लिए नंदी के पैर और सिर काट दिए थे। नंदी का पैर कुआंवाला के पास जंगल में पड़ा है और सिर भी कहीं पड़ा है।”

गोविंद सिंह कन्याल।

“नंदी ने भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने घायल हो चुके नंदी से कहा, “तुम जहां भी हो, पत्थर के रूप में विराजमान हो जाओ।” तभी से बिना सिर का नंदी पत्थर के रूप में है। पहले यह मंदिर के बगल में रखा था, ग्रामीणों ने इसको मंदिर के सामने स्थापित कर दिया। मंदिर में नंदी के इस रूप की पूजा की जाती है।”

वो बताते हैं,”मंदिर से गांव की ओर लगभग तीन सौ मीटर दूर एक कुआंनुमा आकृति है, जिसके बारे में कहा जाता है कि खुदाई में इसमें पुराने जमाने की ईंटें मिली थी। पानी भी निकला था, पर बाद में कुछ विवाद की स्थिति में कुएं की खुदाई बंद करानी पड़ी थी। कुएं की खुदाई लगभग छह दशक पहले की गई थी। वर्तमान मंदिर का निर्माण और खुदाई में शिवलिंग की प्रतिष्ठा भी उसी समय की गई थी। मंदिर में एक महंत जी रहते थे, जिन्होंने एक सपने का जिक्र किया था, जिसके अनुसार कुएं की खुदाई की गई थी।”

करीब 68 साल के गोविंद सिंह कन्याल का जन्म नागल ज्वालापुर में ही हुआ था। वो बताते हैं, “मैं आठ-दस साल का था। मैंने कुएं बनाने के लिए की गई खुदाई को देखा था। ये चौड़ी ईंटें उसी में निकली थीं। हालांकि कुआं बनाने के लिए भी ईंटें मंगाई गई थी। जिस तरह की ईंटें वहां आसपास पड़ी मिलती हैं, उसी तरह ईंटें मंदिर के पास खुदाई के दौरान भी निकली थीं। इस खुदाई में शिवलिंग मिला था, जो लगभग 15 फुट लंबाई का है। यही शिवलिंग श्री ज्वालेश्वर महादेव मंदिर में प्रतिष्ठित है।”

सिमलास ग्रांट के पूर्व प्रधान उमेद बोरा और ग्रामीण सुधीर सिंह राणा, हमें वन क्षेत्र में स्थित अधूरे छोड़े गए कुएं के पास ले जाते हैं, जहां काफी झाड़ झंकाड़ मौजूद है। वहां पड़ी चौड़ी ईंटें और टुकड़े दिखाते हुए सुधीर बताते हैं कि “ये तो टुकड़े हैं, पूरी ईंट कितनी बड़ी होगी, आप अंदाजा लगा सकते हैं। इस कुएं का संरक्षण किया जाना चाहिए।”

सिमलास ग्रांट के पूर्व प्रधान उमेद बोरा और ग्रामीण सुधीर सिंह राणा।

उमेद बोरा बताते हैं, “यहां आसपास फलदार पौधों वाले उद्यान होने की भी बात बुजुर्गों से सुनी है। वो पुरातत्व विभाग से इन ईंटों की जांच कराने की मांग करते हैं। कहते हैं, यहां पहले बस्ती रही होगी, कौन लोग यहां बसते थे, किस राजा का समय था, यह सब तो पुरातत्व विभाग और वैज्ञानिक ही बता सकते हैं।”

गोविंद सिंह कन्याल, जो कि कुएं की खुदाई के साक्षी रहे हैं, का कहना है “आज जहां नागल ज्वालापुर की आबादी है, वहां पहले झील थी। हमने बुजुर्गों से ये बातें सुनी हैं। वो कहते थे कि जहां आज वन क्षेत्र है, वहां बस्ती थी। वहां अनाज पीसने वाले चक्कियों के पाट मिले हैं। हां, यह बात सही है कि वन क्षेत्र पहले पानी वाला इलाका था, वहां काफी पानी बहता था। यह तो मैंने भी देखा है।”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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