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तक धिनाधिनः क्या फिर से पीने लायक हो जाएगा सुसुवा का पानी

कक्षा छह के छात्र सिद्धार्थ ने बताया कि पहले सुसुवा नदी का पानी पीया जाता था। लोग इसमें नहाते थे। बहुत साफ थी यह नदी। शाम को लोग इसके किनारे घूमने जाते थे। सुसुवा का साग खूब खाया जाता था। अब यह बहुत गंदी हो गई है। नदी में कूड़ा बह रहा है। पॉलीथिन और कपड़े बहकर आ रहे हैं नदी में। पता नहीं कौन नदी को गंदा कर रहा है। हमने बच्चे से पूछा, आपको किसने बताया कि पहले सुसुवा का पानी पिया जाता था, क्योंकि आपने तो नहीं देखा होगा किसी को सुसुवा का पानी पीते हुए। सिद्धार्थ ने जवाब दिया, मेरे पापा बताते हैं सुसुवा के बारे में।

सिद्धार्थ अभी दस साल का है और दस साल पहले भी सुसुवा का पानी पीने लायक नहीं था, जहां तक हमारा मानना है। यह बात सही है कि सुसुवा का वर्षों पहले पानी पीने लायक था। इसके तटों पर उगने वाला साग बहुत स्वादिष्ट और पोषक होता था। यह बात तो तय है कि बच्चे अपने बड़ों से सीखते हैं। पहले की बातें और यादें बड़ों से संवाद के जरिये ही अगली पीढ़ी तक पहुंचती हैं। कुल मिलाकर सुसुवा की हालत पीढ़ी दर पीढ़ी खराब हो रही है। हम अपनी अगली पीढ़ी को प्रकृति की किसी भी सौगात को सही स्थिति में नहीं सौंप रहे हैं। क्या प्रकृति की इन कृतियों के साथ हो रहे खिलवाड़ को बंद नहीं किया जाना चाहिए।

तक धिनाधिन की आठवीं श्रृंख्ला की बात करते हैं, जो सुसुवा नदी के किनारे रामगढ़ स्थित राजकीय प्राथमिक विद्यालय और राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय परिसर में आयोजित की गई। प्रधानाध्यापक अरविंद सोलंकी जी, जिन्हें हाल ही में राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, के सहयोग से इन विद्यालयों में दो फरवरी, 2019 को तक धिनाधिन का आयोजन किया गया। सार्थक पांडेय के साथ दूधली घाटी के आकर्षक नजारों का दीदार करते हुए हम विद्यालय पहुंचे। मैं देहरादून आने और जाने के लिए दूधली घाटी वाली सड़क पर चलना पसंद करता हूं। सड़क के एक ओर लच्छीवाला रेंज और दूसरी ओर सुसुवा नदी व राजाजी नेशनल पार्क की रामगढ़ रेंज को देखने का मोह मैं नहीं छोड़ सकता। सड़क भी ठीक है, कुछ जगहों को छोड़कर। हालांकि बरसात में यहां आवागमन में काफी दिक्कतें होती हैं।

सुसुवा नदी का पुल पार करके हम दूधा देवी मंदिर के पास स्थित विद्यालयों में पहुंचे। इन विद्यालयों में 143 बच्चे पढ़ते हैं। यहां भी हमने स्कूल की दीवारों को बच्चों को पढ़ाते हुए देखा। कोई दीवार गिनती सीखा रही है और कोई अक्षर ज्ञान करा रही है। हालांकि स्कूल भवन मरम्मत मांग रहे हैं और भवन के विस्तार  की जरूरत महसूस की जा रही है, क्योंकि यहां छात्र संख्या साल दर साल बढ़ रही है।

तक धिनाधिन की शुरुआत करते हुए हमने बच्चों से पूछा, तक धिनाधिन क्या है, बच्चों ने एक स्वर में कहा, यह ताल है। किसकी ताल है, जवाब मिला तबले की। कुछ बच्चों ने ढोलक और किसी ने ड्रम की ताल भी बताया। सभी बच्चे शांतभाव से सुन रहे थे। अनुशासन देखने लायक था। हमने उनको सतरंगी का अभिमान शीर्षक की कहानी सुनाई, जिसमें सात रंगों वाली एक मछली स्वयं को अपने साथियों से अलग महसूस करने लगी थी। उसमें अभिमान आ गया था और अपने साथियों से उसका व्यहार दिन पर दिन खराब होता जा रहा था। बाद में साथी मछलियों ने एक योजना बनाकर सतरंगी को यह महसूस करा दिया कि उनकी वजह से ही उसका आकर्षण है। अंत में बच्चों ने हमें बताया कि हमें अपने साथियों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए और विविधता का सम्मान करना चाहिए। विविधता चाहे जैव विविधता हो या फिर सांस्कृतिक हो या फिर भाषा बोली की विविधता हो, हमें सम्मान करना चाहिए। विविधता में एकता ही तो हमें मजबूत और सक्षम बनाती है।

क्लास चार के अमरदीप ने हमें सोने के अंडे वाली मुर्गी की कहानी सुनाई। मुर्गी सोने का अंडा देती थी। बच्चों ने बताया कि कहानी बताती है कि लालच करना बुरी बात है। लालची व्यक्ति को बाद में पछताना पड़ता है। प्रियांशु ने मेढ़क और चूहे की कहानी सुनाई। हमने बच्चों से पूछा कि अगर आप नदी होते तो आपको इंसानों से क्या शिकायत होती। कक्षा छह के छात्र सिद्धार्थ ने सुसुवा की पीड़ा का जिक्र किया। बच्चों ने अपने अपने ढंग से नदी की पीड़ा को व्यक्त किया। किसी ने कहा, नदी में पॉलीथिन फेंकी जा रही है। नदी में शहर का कूड़ा बहकर आ रहा है। बच्चों ने नदी में कूड़ा नहीं फेंकने और इसकी स्वच्छता के लिए काम करने का संकल्प लिया।

एक बार फिर तक धिनाधिन का यह सवाल बच्चों से पूछा गया, पेड़ घूमने क्यों नहीं जाता। किसी का जवाब था, पेड़ के पैर नहीं होते। किसी ने कहा, उसको मिट्टी ने जकड़ा है। वह घूमने जाता तो हवा कहां से मिलती। वह इतना बड़ा है कि घूमने नहीं जा सकता। एक के बाद एक बच्चों के जवाब मिल रहे थे, इन्हीं में कुछ बच्चों ने कहा, पेड़ आक्सीजन देता है। उसका हमारे पास रहना जरूरी है, इसलिए वह घूमने नहीं जाता। हमने पेड़ के घूमने नहीं जाने की वजह पर एक कहानी सुनाई। बच्चों को बताया कि पेड़ प्रकृति के निर्देश पर जीवों पर परोपकार करने के लिए जड़ों से बंधकर खड़ा है। पेड़ हमें अनुशासन में रहने और नियमों का पालन करने की सीख भी देता है। कहानी से खुश होकर कक्षा आठ की शिवानी ने पेड़ पर ही कविता सुनाई, ‘खड़े-खड़े मुस्कराते पेड़, कहीं न आते जाते पेड़….’। रेशमी ने ‘कली और तितली’ शीर्षक वाली कविता ‘हरी डाल पर लगी हुई थी, नन्हीं सुंदर एक कली….’ सुनाई।

बच्चों को साहसी नन्हा पौधा की कहानी सुनाई गई, जिसमें एक पौधे के बारे बताया गया, जो 15 दिन पहले ही धरती से बाहर आकर सुंदर जंगल की तारीफ कर रहा था, लेकिन पहाड़ पर तेज बारिश से जंगल में आई बाढ़ की वजह से वह घबराने लगा था। उसने मिट्टी से पूछा, क्या तुम मुझे बचा लोगी। मिट्टी की सलाह मानकर नन्हें पौधे ने अपने जैसे पौधों के साथ मिलकर जंगल के खाले में आ रही बाढ़ से स्वयं को बचा लिया। बच्चों ने इस कहानी को सुना और फिर अपने शब्दों में इसको रीपिट किया। बच्चों से कहा गया कि वो विषय को समझे और अपने शब्दों में लिखें। जीवन में आगे बढ़ने के लिए रटना मना है, समझना जरूरी है। इस दौरान शिक्षक अरविंद सोलंकी जी, मीना घिल्डियाल जी, योगम्बर बौठियाल जी ने बच्चों का उत्साह बढ़ाया।

तक धिनाधिन की टीम ने शिक्षकों से अनुरोध किया कि बच्चों का कहानी क्लब बनाकर उनको मेलों, पर्वों, अपने आसपास होने वाली गतिविधियों, अपने गांव और स्वयं अपने बारे में लिखिए। बच्चों से कहा गया कि अभ्यास जारी रखिए, एक दिन आप लिखेंगे और दुनिया पढ़ेगी। बच्चों ने हमसे वादा किया कि वो कहानी क्लब बनाएंगे। अपने बारे में लिखेंगे, अपने स्कूल के बारे में लिखेंगे और वह सबकुछ लिखेंगे, जो वह अपने आसपास महसूस करते हैं। सार्थक पांडेय ने फोटोग्राफी और वीडियो बनाने की जिम्मेदारी निभाई। रामगढ़ स्कूल के बच्चों से पुनः मिलने का वादा करके हम वापस लौट आए। अगली बार फिर मिलते हैं किसी और पड़ाव पर, तब तक के लिए बहुत सारी खुशियों और शुभकामनाओं का तकधिनाधिन।

 

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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