निगाहें झुकाने वाला कोई काम नहीं करिएगा
हम बात कर रहे थे कि अखबारों की प्रतिस्पर्धा में कुछ रिपोर्टर्स के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ने की। इसके पीछे किन लोगों का हाथ होता है, इस पर भी हमने बात की। मैं आपको एक किस्सा बताता हूं जब हमने इस प्रतिद्वंद्विता का सामना किया।
हम पर खबरों में तेवर दिखाने का दबाव था। तेवर दिखाने पर हमने बहुत कुछ भुगता। हमें डांट फटकार और प्रताड़ना मिली। यह तो अच्छा था कि हमारे तेवर तथ्यों से प्रूफ थे और हमने कोई भी ऐसा काम नहीं किया था, जिससे हमारी नजरें किसी के सामने झुकतीं। हमारी जांच हुई। स्पष्टीकरण लिखवाए गए।
मुझे तो केवल इतना ही पता है कि विज्ञप्तियों से अखबार नहीं चलते। विज्ञप्तियां तो पत्रकारिता वाली खबरों के बीच फिलर की तरह काम करती हैं। आपको फील्ड में दौड़ना होगा और मुद्दों पर काम करना होगा, पर ध्यान रहे कि आप किसी भी मुद्दे पर निस्वार्थ और निष्पक्ष भाव से काम करें।
आपको कुछ ऐसी खबरें तलाशनी होंगी, जो आपके पाठकों के लिए राहत और अवसरों से भरी हों। उनको गाइड करती खबरें, उनको जानकारियां देती खबरें, उन तक महत्वपूर्ण सूचनाएं पहुंचातीं खबरें, उनको सिस्टम से कनेक्ट करती खबरें, उनको सहयोग करती खबरें, उनके मुद्दों को आवाज देती खबरें, उनके सवालों के जवाब देती खबरें…ही एक ऐसा अखबार बनाती हैं, जिसके बारे में दावे के साथ कहा जा सकता है कि यह जनसरोकारों वाला है।
इन्हीं सभी खबरों के बीच रिपोर्टर पर खुलासा करने वाली खबरों के लिए भी दबाव होता है। इन खबरों के लिए उनके पास तथ्य होने चाहिए। बिना तथ्यों के किसी पर सवाल उठाए तो वो कहीं का नहीं छोड़ेगा। रिपोर्टर को अपना पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए किसी भी खबर को लिखने से पहले तथ्यों को चेक कर लें, आंकड़ों का अध्ययन कर लें, मौके पर जाकर देख लें।
तथ्य के रूप में अगर कोई फोटोग्राफ, वीडियो या डाक्यूमेंट्स हैं तो उनकी सत्यता को जांच लें। खबर से संबंधित पक्ष और विपक्ष को कोट करें। कुल मिलाकर खबर बैलेंस हो। तथ्य होने का मतलब यह नहीं है कि रिपोर्टर को कुछ भी लिखने की छूट है। कभी कभी तथ्य होने के बाद भी खबर अच्छा प्रभाव नहीं छोड़तीं।
खबर में तथ्य ही हों, न कि रिपोर्टर के खुद के विचार। यह भी जरूरी है कि किसी पर भी सवाल उठाने से पहले रिपोर्टर को अपने गिरेबां में भी झांक लेना चाहिए। अगर कोई रिपोर्टर खुद सवालों के घेरे में है, उसकी निष्ठा संदिग्ध है, वो अपने किसी स्वार्थ में खबरें लिख रहा है तो तय मानिए एक दिन उसका खुलासा हो ही जाता है। उसको जानने वाले उसके सामने भले ही सम्मान व्यक्त करें, लेकिन उसको दिल से स्वीकार नहीं करते। वो उसके बारे में अच्छे भाव नहीं रखते।
ऐसा पत्रकार बनने से क्या फायदा। क्या पत्रकार बनना इनके लिए योजनाबद्ध तरीके से गलत गतिविधियों में शामिल होने का रास्ता है। पत्रकारिता के पावन पेशे में स्वार्थ सिद्ध करने वालों की कमी नहीं है। हम सभी जानते हैं, ये लोग कौन हैं। ये लोग क्या करते हैं। ये लोग खुद भी जानते हैं अपनी पब्लिक इमेज के बारे में, पर खुद से ही अंजान बनने का ढोंग करते हैं।
अपने शहर में होने वाली गतिविधियों को कवर करना हमारी ड्यूटी थी, हमने ऐसा किया। हम आफिस में बैठकर टेबल रिपोर्टिंग या विज्ञप्तियां बांटकर खबर लिखने तक ही सीमित नहीं रहना चाहते थे। टीम ऊर्जावान और बेहतर थी। हमारे पास खबरों की संख्या विविधता के साथ ज्यादा थीं।
शहर में अवैध खनन के खिलाफ एक मुहिम चली। यह मुहिम कवरेज करना इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल से प्रेरित नहीं थी। इस पर देशभर की मीडिया की नजरें थीं। हम इसकी एक भी खबर नहीं छोड़ना चाहते थे। यह सत्य है कि हम खबरों को लिखने के लिए अपनी मर्यादा से बाहर कभी नहीं आए।
एक दिन मुझसे कहा गया, बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। मेरा जवाब था, हम कोई ऐसा काम नहीं कर रहे, जो मुश्किल में पड़ जाएंगे। हम किसी के पक्ष या विपक्ष में खबरें नहीं लिखते। हमारा काम सूचनाओं को इकट्ठा करना है। हम दोनों पक्षों को प्रमुखता से कवरेज करते हैं।
यही वजह है कि एक दफ्तर के बाहर सुबह दस से शाम तीन बजे तक उन लोगों का इंतजार करता रहा, जो उस संस्था की शिकायत करने आए हैं, जिनके पक्ष में होने का तमगा, हम पर जड़ा गया था। दूसरे दिन के अखबार में हमने प्रमुखता से उस संस्था की शिकायत किए जाने वाली खबर को भी प्रकाशित किया। यह हमारे संतुलित होने का प्रमाण था।
कुछ लोगों का काम विरोध करना होता है, हम पर एक पक्षीय होने का तमगा जड़ दिया गया। इस बात को इतना तूल दे दिया गया कि हम निगाहों में चढ़ गए। इतना तक कहा जाने लगा कि मैंने कुछ गांवों में सभाएं संबोधित की हैं, जबकि उन गांवों के रास्ते तक मुझे नहीं पता थे।
पर, वो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे थे, इसकी वजह हमारे स्तर से कोई ऐसा कार्य नहीं होना था, जो हमें किसी से निगाहें मिलाने से रोकता। हम पत्रकार थे, हम पत्रकारिता का धर्म निभा रहे थे, हम निस्वार्थ थे और निष्पक्ष भी, इसलिए हम सही थे।
वो हमें नोटिस भेजने का सही समय और मौका तलाश रहे थे। एक दिन हमारी एक गलती से उनको मौका मिल ही गया। यह होना भी था, क्योंकि हमारी यह खबर बैलेंस नहीं थी। उसमें संबंधित अधिकारी का पक्ष नहीं था। दूसरे दिन हमें नोटिस मिला और जैसे ही स्कैन करके उसको अपने बड़े अधिकारी के पास भेजा, वो हम पर नाराज हो गए। उनकी नाराजगी सही थी, क्योंकि यहां हम गलत थे। हालांकि हमारे पास तथ्य थे, इसलिए किसी से भयभीत होने का कोई सवाल नहीं था। हमने प्रूफ अपने बड़े अधिकारी को भेज दिए। दूसरे दिन संबंधित का पक्ष भी प्रकाशित किया, क्योंकि यह हमारा कर्तव्य था। हमें अपनी गलती को मानना चाहिए।
यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर हम भी उनके पाले के पत्रकार होते तो किसी नोटिस का सवाल ही नहीं था, बल्कि वो हमें लगातार बहुत सारी खबरें उपलब्ध कराते। लेकिन हमें उन खबरों का कोई मोह नहीं था, जिनसे हम किसी का टूल बनकर काम करते। इसके बाद तो नोटिस का क्रम शुरू हो गया। वो हर खबर पर हमें नोटिस भेजने लगे।
अब यह साबित हो गया था कि हमारे विरोधी मुखर होकर काम कर रहे हैं। नोटिस का एक मतलब और समझा जाना चाहिए कि आपकी खबर पर प्रतिक्रिया हो रही है। अगर, आप सही हैं तो किसी भी नोटिस से डरने की जरूरत नहीं है। कुछ मानसिक कष्ट होता है पर जीत अंततः आपकी ही होगी।
एक दिन साथियों के साथ मिलकर विचार किया कि हम अब और डिफेंसिव नहीं हो सकते। किसी की चुप्पी का मतलब यह नहीं हो सकता कि वो कमजोर है।
अब हमने खुलासा करने वाली खबरों पर फोकस करने का प्लान बनाया। इसकी सूचना अपने बड़े अधिकारी को पहले ही दे दी थी। हम कोई टेबल रिपोर्टिंग करने नहीं जा रहे थे, हमें मौके की रिपोर्टिंग करनी थी। हमें मौके से फोटोग्राफ लेने थे। तय किया गया कि फोटोग्राफर के साथ हम दो साथी मौके पर जाएंगे। सुबह सात बजे तक पहुंचना तय किया गया। फोटोग्राफर साथी पहले की तरह तैयार मिले।
सुबह सात बजे तक हम मोटरसाइकिल पर मौके के लिए रवाना हुए, पर हमारे दूसरे साथी ने जाने से मना कर दिया। उनका कहना था कि उनके घर मेहमान आए हैं। हम तो तय कर चुके थे और आधा घंटे में उस गांव में पहुंच गए, जहां पॉकलैंड जैसी मशीनों से अवैध खनन की सूचना थी। वहां ऐसा कुछ नहीं था। गांव में ही किसी ने बताया, थोड़ा आगे जाना। एक और गांव से होते हुए सीधे नदी तक पहुंचना, वहां दिखेगा अवैध खनन।
हम अब ज्यादा चुप नहीं रह सकते थे, इसलिए जोखिम उठा लिया और एक गांव से होते हुए वहां पहुंच गए, जहां एक विशाल स्वरूपी नदी पर जख्म ही जख्म थे। यहां एक क्रशर था और मौके पर पॉकलैंड के निशान। नदी से क्रशर तक बुग्गियों से रेत बजरी ढोया जा रहा था।
हमने किसी नदी के किनारे अवैध खनन का इससे बड़ा नजारा पहले कभी नहीं देखा था। हम बड़ा जोखिम उठा रहे थे। तभी दो युवा हमारी ओर मोटरसाइकिल से आते दिखे। फोटोग्राफर साथी ने कैमरे से चिप निकालकर उसमें दूसरी चिप डाल ली थी। वो बहुत सुलझे हुए हैं। उन्होंने मुझसे कहा, घबराना नहीं। मैंने कहा, देखा जाएगा। मैं बाइक चला रहा था। वो युवा हमारे पास पहुंच गए और बोले कहां से आए हो।
हमने उनको इस तरह झिड़क दिया, जैसे हम उनसे बिल्कुल भी नहीं डरे। यह कहते ही मैंने बाइक की रफ्तार तेज कर दी और जहां से मौका मिला, आगे बढ़ते चले गए। ईश्वर का शुक्र है कि हम बच गए। जब तक मुख्य मार्ग तक नहीं पहुंच गए, मैं तनाव में ही रहा।
शहर पहुंच गए, उस समय नौ बजे थे। मैंने सबसे पहले अपने बड़े अधिकारी को फोन किया, उनका कहना था कि शाबास। पर, उन्होंने फिर कभी इस तरह का जोखिम उठाने से मना किया।
हमने खबर लिखी और वो प्रमुखता से फोटोग्राफ के साथ प्रकाशित हुई। हमने इस खबर पर संबंधित अधिकारी का पक्ष भी लिखा। खबर प्रकाशित होने के बाद हमें लगातार फॉलोअप लिखने थे। हमारे पास मौके के फोटोग्राफ की कमी नहीं थी। कभी कभी आप किसी खबर को लिखते हैं तो आपको उसके बारे में सूचनाएं देने के लिए वो लोग भी आगे आ जाते हैं, जो उस समय तक चुप बैठे होते हैं। उन्होंने हमें तथ्य उपलब्ध कराए।
इसके साथ हम पर बाहरी दबाव भी बढ़ने लगे। प्रलोभन भी मिलने लगे। पहले दिन ही प्रलोभन लेकर पहुंचे एक शख्स का कहना था कि खबर रोकने के लिए आपको क्या चाहिए। उनका कहना था कि आप चाहो तो आपको आफिस से घर और घर से आफिस तक आने जाने के लिए गाड़ी और ड्राइवर मिल जाएगा। इसके अलावा भी और कुछ, जो चाहिए बताओ। वो मेरे घर और आफिस की दूरी 40 किमी. जानते थे।
मैंने फॉलोअप रोकने से साफ मना कर दिया। अंत में मैंने उनसे एक ही बात कही, वो थी- पत्रकारिता के नाम पर एक भी पैसा लेना मेरे लिए अपने बच्चों का खून पीने के समान है। मैं इससे बड़ी बात नहीं कह सकता। मुझे अपने कार्यों के लिए अखबार से तनख्वाह मिलती है। इसके बाद उन्होंने मुझ पर कोई दबाव नहीं डाला।
हमने इस खबर पर तब तक फॉलोअप लिखे, जब तक कि हमारे बड़े अधिकारी ने रोक नहीं दिया। इन सभी खबरों की कटिंग लगाकर हमारे खिलाफ हमारे संस्थान के मुख्यालय पर शिकायत की गई। शिकायत मिलते ही हमसे स्पष्टीकरण मांगा गया, जो हमने दिया। हमें फोन पर डांट फटकार मिली। हमें डांटने वाले वही अधिकारी थे, जिनको सूचना देकर हमने खबर को प्लान किया था।
हमारी पहली खबर से लेकर फॉलोअप तक सभी खबरें उनसे चेक होकर प्रकाशित हुई थीं। हमारी जांच के लिए वरिष्ठ पत्रकार को भेजा गया, जिन्होंने बड़े अधिकारियों और शहर के लोगों से बात की। हमें इन सब बातों का बुरा इसलिए भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि जांच होना जरूरी थी, इसमें अक्सर सच ही सामने आता है। आगे क्या हुआ, आपसे साझा करूंगा।
अभी तक के लिए इतना ही…। मेरा यह सबकुछ बताने का उद्देश्य किसी अखबार में अपना सफर बताना नहीं है, बल्कि यह बताने का प्रयास है कि, किसी भी खबर के लिए तथ्यों को जुटाना बहुत अहम है।
विरोधी तो हर प्रोफेशन में हो सकते हैं, उन पर ज्यादा ध्यान देने से अच्छा है कि आप लंबी लकीर खींच दें। पत्रकारिता में खबरें लिखने के साथ सजगता बहुत जरूरी है। आपको 360 डिग्री पर सोचना होता है। पर, ध्यान रहे, आपको प्रोफेशन और व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहना होगा।
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