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किसान की कहानीः खेती में लागत का हिसाब लगाया तो बैल बेचने पड़ जाएंगे !

  • राजेश पांडेय

जब भी आप खाना खाएं तो उन किसान को जरूर याद करें, जिन्होंने बड़ी मेहनत से आपके लिए अन्न पैदा किया है। मैं उन लघु, सीमांत किसान की बात कर रहा हूं, जो बड़ी आस के साथ आपके, हमारे और अपने लिए अन्न उगाते हैं। पर, जब हिसाब लगाने बैठते हैं तो पता चलता है कि उनको अपने श्रम का सही मूल्य तक नहीं मिला, वो भी अपने खेतों में काम करने पर।

इन किसानों के लिए सब्र की बात यह है कि छोटी जोत के सही, पर खेत अपने हैं। खेत उनके लिए भविष्य की आस हैं। हम धान की खेती के सहारे, हम आपको छोटी जोत के किसान की आर्थिकी को बताने की कोशिश कर रहे हैं।

देहरादून का भोगपुर क्षेत्र, जहां अंग्रेजों के जमाने से एक नहर निकलती है। यह नहर रानीपोखरी, भोगपुर सहित कई गांवों की हजारों बीघा खेती को सींचती है। सड़क किनारे बहती नहर बहुत सुंदर दिखती है।

इन दिनों भोगपुर नहर में पानी की कमी बताई जाती है। पानी की कमी इसलिए भी कह सकते हैं, क्योंकि किसानों को धान की रोपाई के लिए पानी की जरूरत ज्यादा है।

रविवार 11 जुलाई 2021 को, डुगडुगी को नहर में पानी की कमी और धान की रोपाई के बारे में सूचना मिली। हम मौके पर पहुंचे और भोगपुर के पास बिशनगढ़ गांव में पूरन सिंह रावत जी को बैलों के सहारे खेत को धान की पौध लगाने के लिए तैयार करते देखा।

रावत जी 65 साल के हैं और लगभग छह बीघा में खेती करते हैं। धान की पौध ढाई बीघा में लगा रहे हैं। बाकी खेत में पशुओं के लिए चारा और अन्य फसल लगाते हैं।

बैलों से खेती तो मैदानी क्षेत्रों में पुरानी बात हो रही है, पर पर्वतीय क्षेत्रों में अभी भी बैलों को खेतों में लगाया जाता है। हालांकि पावर ट्रिल, पावर वीडर, जैसे कृषि यंत्र आ गए हैं, जिनको छोटा ट्रैक्टर कहा जाता है। इनका इस्तेमाल कम जोत के लिए किया जाता है।

पर, बैलों के साथ खेती बड़ी मेहनत का काम है। धान की खेती की प्रक्रिया में पहले क्यारी में बीज से पौध तैयार करो और फिर पौधों की रोपाई करो। रोपाई के लिए खेतों में पानी खूब चाहिए। खेत में दलदल करना पड़ता है।

अगर आप दलदल वाले खेत में घुसेंगे तो पैर धंसने लगते हैं। आपको अभ्यास नहीं है तो एक कदम आगे बढ़ाना मुश्किल हो जाता है। आप बैलेंस खोकर गिर भी सकते हैं। इन खेतों की मेढ़ों (खेतों को बांटने के लिए बनाई सीमाओं) पर चलते हुए भी आपके पैर धंसेंगे, इसलिए बहुत सोच समझकर धान के खेतों में प्रवेश करें।

भोगपुर के बिशनगढ़ की बात करें तो दूर तक दिखती हरियाली और पहाड़ आपको आकर्षित करते हैं। रावत जी, हर साल कस्तूरी बासमती बोते हैं। इस बार भी इसी की पौध लगा रहे हैं।

देहरादून के भोगपुर बिशनगढ़ में रोपाई के लिए धान की पौध तैयार करता कृषक परिवार । फोटो- डुगडुगी

तैयार कस्तूरी बासमती चावल का मूल्य लगभग 6000 रुपये बताते हैं। एक बीघा खेत में लगभग डेढ़ कुंतल चावल की पैदावार है। ढाई बीघा में लगभग 20 हजार का चावल मान लो। छह माह की खेती है, इसके बाद गेहूं की फसल उगाई जाती है।

बताते हैं कि 20 हजार रुपये का चावल पाने के लिए लागत भी कम नहीं पड़ती। बीज, खाद, दवा, पानी के अतिरिक्त खेतों में बुवाई में ही लगभग साढ़े छह हजार रुपये का खर्चा है। बैलों को सालभर खिलाना पड़ता है, उनकी देखभाल करनी पड़ती है। उनको 12 किलो बीज की जरूरत होती है, जिसका रेट 70 रुपये प्रति किलो है।

वहीं, धान की पौध रोपाई प्रति व्यक्ति रुपये 400 का पारिश्रमिक। उनके परिवार सहित 11 लोग पूरे दिन ढाई बीघा खेत में पौध रोपाई के लिए लगे हैं। हम अपने श्रम का हिसाब नहीं लगा रहे, पर बाहर से आकर जो लोग सहयोग कर रहे हैं, उनको तो पैसे देने पड़ेंगे। लगभग ढाई हजार रुपये केवल रोपाई मे ही देने पड़ेंगे।

बीज से पौध हमने तैयार की, इसका भी हिसाब नहीं जोड़ रहे है। धान तैयार होने के बाद कटाई 30 किलो प्रति बीघा के हिसाब से देनी होती है, यानी ढाई बीघा का 75 किलो धान तो कटाई में चला गया।

थ्रेसर से धान निकालना और फिर उसको चावल पाने के लिए कुटाई कराना, पूरी प्रक्रिया में काफी लागत आ जाती है। धान कुटाई की एवज में कामू देना पड़ता है, इसलिए वहां कोई खर्चा नहीं होता। आखिर में हमारे पास होता पुआल और चावल, जिस पर लागत का हम हिसाब नहीं लगाते।

रावत जी, हंसते हुए कहते हैं कि अगर, छोटी जोत की खेती में लाभ-हानि का हिसाब लगाएंगे तो हमें अपने बैल बेचने पड़ जाएंगे। हमने पूछा, चावल तो बाजार में बेचते होंगे, उनका कहना था कि चावल बाजार में बेच दिया तो खाएंगे क्या।

रावत जी के बेटे अमित, राहुल और विशाल खेतीबाड़ी में हाथ बंटाने के साथ बाहर कामकाज भी करते हैं, क्योंकि खेती पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।

हमने उन महिलाओं से बात की, जो धान की रोपाई में सहयोग कर रही हैं। जगदंबा देवी जी, बीए पास हैं। बताती हैं कि सुबह चार बजे उठ जाते हैं। घर के कामकाज निपटाने के बाद ठीक आठ बजे धान की रोपाई के लिए आ जाते हैं।

शाम को करीब साढ़े पांच बजे, कभी कभी साढ़े छह का समय हो जाता है, पर ही घर लौटते हैं। एक दिन में एक महिला करीब आधा बीघा खेत में पौधे रोप देती हैं। पूरा दस घंटे दलदल वाले खेत में खड़े रहते हैं।

देहरादून के भोगपुर बिशनगढ़ में खेत में धान रोपाई करती महिलाएं। फोटो- डुगडुगी

पानी में खड़े होकर तेज धूप में एक -एक पौधा लगाने में बड़ी मेहनत है। पैरों और कमर में दर्द हो जाता है। धूप से सिर चकराने लगता है। सिर दर्द होता है। एक दिन का पारिश्रमिक 400 रुपये है। आसपास के खेतों में धान रोपाई का काम मिल जाता है।

महिलाओं ने बताया कि उनके पास भी खेत हैं, जिनमें धान की रोपाई की जानी है। यहां खेतों को पानी नहीं मिल पा रहा है। पानी का नंबर लगेगा, उस दिन रोपाई होगी। पानी नहीं मिलने से रोपाई में देरी हो रही है।

ग्रामीणों से बातचीत में हमें नहर में पानी कम होने की कुछ वजह समझ में आईं। एक तो जहां से यह नहर आ रही है, वहां बांध बन रहा है, इसलिए कहा जा रहा है कि सिंचाई नहर में पानी कम आ रहा है।

देहरादून के भोगपुर बिशनगढ़ में रोपाई के लिए धान की पौध तैयार करते कृषक पूरन सिंह रावत । फोटो- डुगडुगी

दूसरी वजह, लगातार खेती कम होती जा रही है, इसकी वजह जमीनों का बिकना है। जमीन बिकने से लोगों का खेती से वास्ता लगभग खत्म हो रहा है, इसलिए उनको सिंचाई नहर की जरूरत नहीं है। नहर की सफाई, मरम्मत और उसमें बहाव से उनका कोई मतलब नहीं रहा। बड़ी कास्तकारी कम हो रही है और लघु किसानों की सुनवाई नहीं होती।

इस दौरान हम दलदल वाले खेत में घुसे, मेढ़ पर चले। मिट्टी में धंसे पैरों को आगे बढ़ाने के प्रयास में गिरते-गिरते बचे। चलते हुए पैरों से मिट्टी की मेढ़ों को तोड़ दिया। दलदल में ज्यादा देर तक खड़े रहना हमारे बस की बात नहीं, वो भी तेज धूप में।

झुककर एक-एक पौधा लगाना हमारे से नहीं हो पाएगा। मिट्टी पानी से सने कपड़े हम ज्यादा देर तक नहीं पहन सकते। हम बैलों को हांकते हुए बैलेंस बनाकर खेतों में दलदल वाली मिट्टी को समतल करने की सोच भी नहीं सकते, क्योंकि खेत में कुछ देर तक नहीं टिक पाएंगे, वो भी सुबह से शाम तक गर्मियों वाली धूप में।

वो तो किसान ही हैं, जो इतनी कड़ी मेहनत के बाद हमारे लिए अन्न उगाते हैं।

इतनी मेहनत के बाद भी किसान, खासकर लघु व सीमांत अपने ही खेतों में श्रम का मूल्य नहीं पा रहे हैं। यही वजह है कि जमीनें बिक रही हैं, खेती कम हो रही है।

कुल मिलाकर अन्नदाता मुश्किल में हैं। छोटी जोत के कास्तकारों की आय संवर्धन के लिए लाभकारी खेती के विकल्पों पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में उनको सहयोग की जरूरत है, चाहे बीज हो, कृषि के उन्नत यंत्र हों या फिर बाजार तक पहुंच की बात हो, सभी में पहल जरूरी है।

 अगली बार, आपसे फिर मिलते हैं, एक और मुद्दे के साथ…।

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Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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