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बस दो मिनट में बनने वाले ‘फास्ट फूड’ सत्तू की कहानी बड़ी मजेदार है

जब धान के बदले सत्तू की पोटली लेकर गायब हो गया अंजान यात्री

सत्तू का नाम सुनते ही पुराने दिनों की याद ताजा हो जाती है। यह भी हो सकता है कि आज की पीढ़ी सत्तू के बारे में नहीं जानती हो। यदि सत्तू के बारे में जानकारी नहीं है तो हम बता देते हैं, सत्तू पहले के समय में आज के फास्टफूड की तरह होता था।

सात अनाजों और दालों से बनने वाले सत्तू का मतलब होता है पौष्टिकता से भरपूर होना। पहले लोग सफर पर रहते या फिर घर में, भूख लगने पर सत्तू को दूध या पानी में घोला, गुड़ मिलाया और खा लिया। इसको मट्ठा, दही और नमक मिलाकर भी खा सकते हैं। इसको बनाने में बस दो मिनट लगते हैं। सत्तू का जमाना सदियों से रहा है, इसलिए इसमें जो बात है, वो किसी और फास्टफूड में नहीं।

सत्तू के बारे में बहुत सी जानकारियां हैं और इससे जुड़ी एक मजेदार कहानी भी। बीजों के गांधी के नाम से प्रसिद्ध बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी की पुस्तक “उत्तराखंड में खान पान की संस्कृति” में सत्तू के बारे में विस्तार से बताया गया है। प्रस्तुत है कुछ अंश-

सत्तू सात पौष्टिक खाद्यान्नों व दलहनों के सत यानी खास पौष्टिकता से बनी संतुलित खुराक है, साथ ही सत्य का प्रतीक है। सात, सत, और सत्य से इसका नाम सत्तू पड़ा होगा। इसमें सभी तरह के उपयुक्त खनिज विटामिन उपलब्ध रहते हैं। खाद्यान्नों में मुख्यतः गेहूं, जौ, चीणा, कंगनी, रामदाना (चौलाई), मक्की, दलहनों में चना और भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन) का इस्तेमाल सत्तू बनाने के लिए किया जाता है। यदि पूरी सात प्रजाति की सामग्री न भी हो तो भी सत्तू बनाया जा सकता है। देश के अन्य हिस्सों में गेहूं, चना, जौ व सोयाबीन आदि का अलग-अलग सत्तू बनता है। सीधे पीसे जाने वाले खाद्यान्नों की मात्रा हमेशा अधिक होनी चाहिए जैसे गेहूं, चना एवं भट्ट आदि।

सत्तू तैयार होने पर आप इसे अपने स्वाद अनुसार दूध के साथ खा सकते हैं। पानी और गुड़ के साथ घोल बना कर पी सकते हैं। नमक-पानी के साथ और दही-मट्ठा के साथ भी इच्छानुसार खा सकते हैं। नाश्ता और पाथेय के लिए यह जोरदार खाना है, लेकिन यह सिर्फ खाना नहीं है, पोषण में भी उत्तम है। बच्चों के लिए यह बहुत उपयुक्त खाना है।

चालाकी से सत्तू ले गया और धान दे गया 
एक बार एक व्यक्ति घर से यात्रा के लिए निकला। रास्ते के लिए उसने सत्तू की पोटली और गुड़ रख लिया। काफी दूरी तय करने के बाद उसे एक अनजान राहगीर मिल गया। उसने सोचा एक से भले दो। यह राहगीर खूब गपशप करने वाला निकला। रास्ता आसानी से कटने लगा। गर्मी के दिन थे, चलते-चलते उसे भूख और प्यास लगी, रास्ते के समीप एक जलस्रोत मिला। वह जलस्रोत के पास बैठ गया तो सहयात्री भी दूर बैठ गया।

सत्तू लाने वाले को भूख लगी थी, उसने झट-पट अपना खाली कटोरा निकाला, उसमें सत्तू और गुड़ डालकर पानी के साथ घोला और मजे
में खा-पी गया। सहयात्री उसे टकटकी से देखता रहा। उसने सहयात्री से कहा, तुम्हारे थैले में भी तो कुछ होगा खा लो, फिर चलते हैं।

उसने कहा, तुमने क्या खाया, सत्तू…। अरे! सत्तू भी कोई खाने की चीज है। तुम बेकार चीज खाते हो, मेरे पास बहुत जोरदार चीज है। सत्तू तो बेकार है, वह बोला, “सत्तू मन मत्तू…, कब घोलन्तु कब खादंतु“। ‘छी… छी…’, लेकिन सुन, मेरे पास तो धान चावल है और चावल सभी खानों में सर्वश्रेष्ठ है।“

धान बिचारा कितना अच्छा, पट कुटि और चट खायी (चावल बेचारा कितना अच्छा कूटा और मजे से भात खाया), चावल तो
मजेदार खाना है। ‘बोलो, अदला-बदली करोगे’, स्वादिष्ट सफेद चावल का खाना खाओगे।’

सत्तू वाले ने कभी धान/चावल नहीं खाया था। वह धान वाले की चिकनी चुपड़ी बातों में फंस गया और उसने सत्तू देकर धान ले लिया। दोनों फिर साथ-साथ चलने लगे। लघुशंका के बहाने सत्तू लेकर सहयात्री पीछे रह गया। धान लेकर यात्री चलता रहा, लम्बी इंतजारी भी की, लेकिन वह नहीं आया।

सांझ होने लगी, वह अकेला चलता रहा। लम्बा रास्ता चलने के बाद थककर उसने विश्राम करने की सोची। एक पेड़ के पास मन्दिर और सामने पानी का धारा तुर-तुर गिर रहा था। वहां पर उसने धान की पोटली खोली, उसे भूख सता रही थी। उसने धान खाने की सोची। अल्टा-पल्टी कर धान को खूब देखा पर खाए कैसे? वह चकरा गया।

संयोग से एक चरवाहा आ गया, उसने उसकी मदद लेने की सोची। चरवाहा ने जब बताया कि इसे कूटने के लिए ओखली-मूसल चाहिए, पकाने के लिए बर्तन, साग-सब्जी, चौका-चूल्हा सब कुछ। चरवाहे की बातें सुन वह हतप्रभ रह गया और पेड़ के नीचे भूखा ही सो गया। उस चतुर व्यक्ति ने भोले-भाले सत्तू वाले को अपनी चालाकी और चापलूसी से ठग लिया था।

विजय जड़धारी कहते हैं, आजकल बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां विज्ञापन और मीडिया की चकाचाैंध से हमें हमारे पारंपरिक खानपान से दूर कर रही हैं। हमारे भोजन की थाली से स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं औषधियुक्त खानपान गायब होता जा रहा है। हमारे स्थानीय खानपान के स्थान पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का फास्ट फूड आ रहा है।

साभार- बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता विजय जड़धारी की पुस्तक “उत्तराखंड में खान पान की संस्कृति”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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