लगभग 500 साल प्राचीन मंदिर के सामने से कई बार गुजरा, पर कभी यह नहीं सोचा था कि यहां देखने और समझने को इतना कुछ होगा। अब तो उस समृद्धशाली अतीत के अवशेष ही यहां दिखते हैं। सोचता हूं, यहां पहले क्यों नहीं आया। 1995 से पहले तो यहां यात्रियों की चहल पहल होती थी, कई परिवार बसते थे और पांच किमी. दूर से आती नहर आर्थिकी का बड़ा जरिया बनी थी।
हरिद्वार-देहरादून रोड पर नेपाली फार्म से कुछ पहले श्रीसत्यनारायण भगवान का मंदिर स्थित है। अब यह मंदिर राजाजी नेशनल पार्क के संरक्षण में है।
वरिष्ठ पत्रकार सूरजमणि सिलस्वाल ने मुझे मंदिर के बारे में कुछ जानकारियां दीं। सिलस्वाल जी का जन्म का जन्म इसी मंदिर परिसर में बने आवास में हुआ था। मंदिर से उनकी बचपन की यादें जुड़ी हैं।
बुधवार 7 जुलाई, 2021 को सिलस्वाल जी, पत्रकार मित्र राजेंद्र भंडारी के साथ मंदिर परिसर में पहुंचे। मंदिर में पंडित राजकिशोर तिवाड़ी ने बताया कि बाबा काली कमली वाले ने वर्ष 1532 में मंदिर की स्थापना की थी, जिसका दस्तावेजों में उल्लेख मिलता है।
बाबा काली कमली वाले जी ने पूरे देश में यात्रियों के लिए धर्मशालाओं और प्याऊ की व्यवस्था की है, जो वर्तमान में भी संचालित हो रही हैं।
चारधाम यात्रा पर जाने वाले देशभर के यात्रियों के लिए श्री सत्यनारायण मंदिर परिसर में बनी धर्मशाला और जलकुंड तनमन को राहत एवं ताजगी प्रदान करते थे।
बताया जाता है कि यह चारधाम यात्रा की प्रथम चट्टी यानी पड़ाव था। जलकुंड के लिए सौंग नदी से जलधारा आती थी। इस कुंड के बीच में गरुड़ जी की मूर्ति स्थापित थी और यात्री यहां स्नान करते थे।
चारधाम यात्रा पर जाते हुए और वहां से आते हुए इस कुंड में स्नान का विधान था। मान्यता थी कि यहां स्नान करने से यात्री पूरी यात्रा थकावट महसूस नहीं करते।
अभी भी जलधारा के लिए ईंटों से बनाई गई नहर और पुलिया के अवशेष दिखते हैं। सिलस्वाल बताते हैं कि नहर करीब करीब तीन फीट चौड़ी और चार फीट गहरी थी।
नहर को पार करने के लिए पुलिया बनाई गई, जिसका ढांचा अभी भी मौजूद है। कोशिश के बाद भी इसको तोड़ नहीं पाए। उस समय का निर्माण इतना मजबूत है।
वर्तमान में न तो नहर है औऱ न ही कुंड। कुंड के स्थान पर गरुड़ जी के मंदिर का पक्का निर्माण हो गया है और फर्श बिछा दिया गया है। पर, मंदिर के उत्तर और दक्षिण भाग में देखकर साफ पता चलता है कि यहां कभी नहर थी, जिसको अब पाट दिया गया है।
कुंड से बाहर निकलते ही नहर पर छोटा सा घाट था, जहां मंदिर परिसर में बने आवासों में रहने वाले परिवार स्नान करते थे।
सिलस्वाल बताते हैं कि 1995 से पहले यहां तीन घराट थीं, जिनमें से दो नियमित रूप से चलती थी। कुंड से होकर जल प्रवाह आगे बढ़ता था और इन घराट को चलाता था।
हिमाचल प्रदेश के एक व्यक्ति इन घराट की देखरेख करते थे और उनका परिवार भी, यहीं रहता था।
बताते हैं कि यहां से करीब पांच से दस किमी. के दायरे वाले छिद्दरवाला, भल्लाफार्म, श्यामपुर, रायवाला, हरिपुरकलां सहित कई गांवों के निवासी इसी घराट पर अनाज पिसाने आते थे।
घराट के बाद नहर की निकासी पास ही जंगल में हो जाती थी।
मंदिर परिसर को ऊंचाई दीवारों से सुरक्षा दी गई थी, ताकि पीछे जंगल से कोई जानवर या अवांछित तत्व प्रवेश न कर पाएं। वर्तमान मं जंगल से लगे विशाल हॉल, जो खंडहर में तब्दील हो चुका है, की टीन उखड़ गई हैं।
बताते हैं कि सर्दियों में यहां गुलदार बैठा रहता है। पास ही, हाथियों से सुरक्षा के लिए खाई खोदी गई है।
पंडित राजकिशोर तिवाड़ी कहते हैं कि आज भी यहां दूरदराज के यात्री आते हैं और घराट के आटा की मांग करते हैं। यहां अब कोई यात्री नहीं रुकता।
मंदिर परिसर के आवास सेना में सेवारत लोगों के परिवार, कुछ व्यावसायी एवं मंदिर के सेवादारों के, कुल मिलाकर 20-22 परिवार रहते थे।
मंदिर परिसर वर्तमान में राजाजी नेशनल पार्क क्षेत्र में आने की वजह से सभी परिवारों को यहां से बाहर जाना पड़ा। अब धर्मशाला एवं आवास लगभग खंडहर में तब्दील हो गए हैं।
उस समय यहां कृषि विभाग का गोदाम भी था। आसपास की ग्राम सभाओं के किसान यहीं से बीज एवं खाद ले जाते थे।
हमें बताया गया कि मंदिर में सुबह- शाम की आरती से पहले ढोल नगाड़ा बजाया जाता था। सिलस्वाल बताते हैं कि एक व्यक्ति को इस कार्य के लिए तैनात किया गया था।
ढोल नगाड़े की आवाज से मंदिर परिसर में रहने वाले और आसपास के निवासी समझ जाते थे कि मंदिर में आरती शुरू होने वाली है।
सभी परिसर में एकत्र होकर आरती एवं पूजा में शामिल होते थे। जिनके पास जो भी वाद्य यंत्र, ढोलक, चिमटा आदि, लेकर आरती में मगन हो जाता।
बहुत अच्छा लगता था। मैं तो आज भी उस समय को याद करता हूं तो मन आनंदित हो उठता है। वो समय ही कुछ और था, जब मन में शांति थी और सुकून था।
वर्तमान में आप जब भी यहां आओगे तो आपको बहुत अच्छा लगेगा। जब हम यहां पहुंचे तो कुछ यात्री, स्थानीय लोग, राहगीर मिले। मंदिर में वट का विशाल पेड़ है, जो छाया देता, आपको कुछ समय यहां बिताने के लिए आमंत्रित करता है।
आप जैसे ही मंदिर में प्रवेश करोगे, यहां श्री कोटेश्वर महादेव का मंदिर है। ठीक सामने गरुड़ जी के मंदिर में दर्शन करिएगा।
मंदिर में प्रवेश करने के बाद वट वृक्ष के सामने से होते हुए बाईं ओर भगवान श्री सत्यनारायण जी का मंदिर हैं, जिसमें भगवान विष्णु, मां लक्ष्मी जी के साथ विराजमान हैं।
भगवान के दर्शन कीजिए और उनसे की गई मनोकामना जरूर पूरी होगी, ऐसी मान्यता है। यहां श्री शनिदेव की मंदिर भी है, जो गरुड़ जी के मंदिर के ठीक पीछे है।
पास ही, कुछ कमरे बने हैं, जिनके बारे में जानकारी है कि स्नान के बाद यहां वस्त्र बदले जाते थे। कुएं की जगह यहां लगा हैंडपंप पानी का स्रोत है।
मंदिर के मुख्य द्वार के ऊपर बने कक्ष के बारे में जानकारी मिली कि, यहां द्वारपाल तैनात रहते थे। मुख्य द्वार से सटा एक छोटा सा स्थान है, जहां जल से भरे दो बड़े मटके होते थे। यहां मंदिर की प्याऊ थी। मटके रखने के लिए बनाई जगह मौके पर देखी जा सकती है।
क्षेत्र में सबसे पहले पोस्ट आफिस श्री सत्यनारायण मंदिर परिसर में बने भवन से संचालित हुआ।
यहां आज भी पोस्ट आफिस श्री सत्यनारायण मंदिर के नाम से जाना जाता है।
एक ओर महत्वपूर्ण बात आपको बताते हैं, गरुड़ जी के मंदिर के पीछे है, जिसमें छोटे-बड़े करीब 100 पौधे बताए जाते हैं। कुछ पेड़ों पर फूल आए हैं, जो सितंबर तक फल बन जाएंगे। पंडित राजकिशोर तिवाड़ी के अनुसार, एक-एक पड़े पर सौ के आसपास फल आ जाते हैं।
जंगली जीव इन फलों को नहीं छोड़ते। कई बार तो यात्री भी टहनी तोड़ लेते हैं। बताते हैं कि 14 मुखी तक रुद्राक्ष यहां होते हैं। एक मुखी रुद्राक्ष तो मुश्किल से किसी पेड़ पर मिलेगा। कहा जाता है कि प्रत्येक वृक्ष पर एक मुखी रुद्राक्ष अवश्य होता है। इतने सारे रुद्राक्ष में एक मुखी को तलाशना मुश्किल काम है।
मंदिर के बारे में जानकारियां लेकर, प्रसाद ग्रहण करके हम वापस लौटे। हम फिर जाएंगे श्री सत्यनारायण भगवान के मंदिर में, क्योंकि यहां शांति है, सुकून है और मन व तन को ताजगी प्रदान करने वाली आध्यात्मिक ऊर्जा भी। आप भी यहां आइए। भगवान के दर्शन कीजिए और वट वृक्ष की छाया में कुछ समय जरूर बिताइए।
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