प्राचीन समय में स्वर्ग के देवताओं ने असुरों पर विजय हासिल कर ली। जीत के जोश और हर्ष में देवताओं में अभिमान आ गया। सभी ओर देवताओं की जय जयकार हो रही थी। देवताओं ने उस परमसत्ता को भुला दिया, जिसके बल पर उनको अासुरिक ताकतों पर जीत मिली थी। देवता कहने लगे कि उन्होंने तो अपने बुद्धि औऱ बल से विजय प्राप्त की है। कुल मिलाकर विजय के मद में अभिमान से भरे देवताओं ने भगवान को भुला दिया। देवता यह नहीं समझ रहे थे कि उस परमसत्ता की इच्छा के बिना एक तिनका भी नहीं हिल सकता। उधर, भगवान ने सोचा कि अभिमान किसी के भी बुद्धि और विवेक को खत्म कर देता है। अगर देवता इसी तरह बुद्धि और विवेक को खो देंगे तो इनका भी असुरों की तरह अंत होने लगेगा। उनको कुछ करना होगा, ताकि देवता अभिमान को त्याग कर यर्थार्थ को समझने लगें।
सबके प्रति दयाभाव रखने वाले भगवान ने कहा, सफलता हासिल करने से विनम्रता आती है, लेकिन यहां तो सब कुछ विपरीत हो रहा है। भगवान ने एक लीला रचते हुए ऐसा रूप बनाया जिससे देवताओं में कौतूहल जाग गया और उनकी बुद्धि चक्कर खाने लगी। ऐसे यक्ष जैसे रूप वाले पुरुष को देखकर देवताओं ने अग्नि से कहा, आप हम सबसे ज्यादा ज्ञानी और तेजस्वी हो। आप जाकर पता लगाओ कि वास्तव में यह यक्षरूपी पुरुष कौन है और यहां स्वर्ग में क्या कर रहा है। अग्नि ने कहा, अभी पता लगाता हूं। अग्नि यक्षरूपी के पास पहुंचे, लेकिन परब्रह्म के सामने उनकी आवाज तक नहीं निकली। परब्रह्म ने ही पूछ लिया, तुम कौन हो। इस पर घबराते हुए अग्नि ने कहा, मुझे अग्नि कहते हैं।
भगवान ने उससे पूछा, तुम क्या कर सकते हो। तुम्हारी सामर्थ्य क्या है। अग्नि का जवाब था कि हे यक्ष, पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष तक जो भी कुछ है, मैं उसकी पलभर में भस्म कर सकता हूं। भगवान ने सोचा कि इसका अभिमान अभी बना हुआ है। इसके अहंकार को खत्म करने के लिए कुछ करना होगा। भगवान ने अग्नि की शक्ति को अपने पास ले लिया और एक तिनके की ओर इशारा करते हुए कहा, अग्नि तुम इस तिनके को भस्म करके दिखाओ। यह कहते ही अग्नि अपने पूरे वेग के साथ तिनके की ओर बढ़े, लेकिन तिनके को जला नहीं सके। अपनी इस स्थिति पर अग्नि काफी निराश और लज्जित हो गए। अग्नि देव यह पता लगाए बिना कि यह यक्ष कौन है, वापस देवताओं के बीच पहुंच गए।
देवताओं ने उनको निराश देखकर अंदाजा लगा लिया कि यक्ष ने उनको हरा दिया है। इस पर देवताओं ने वायु से कहा, आप पता लगाओ कि यह यक्ष पुरुष कौन है। यक्ष के समक्ष पहुंचे वायु देव बोल भी नहीं पाए। यक्ष ने उनसे भी पूछा, तुम कौन हो। घबराए हुए वायु देव ने कहा, मैं बहुत प्रसिद्ध हूं और मुझे वायु कहते हैं। अंतरिक्ष से लेकर पृथ्वी तक का भ्रमण करता हूं और किसी को भी ग्रहण कर सकता हूं। मैं किसी को भी उड़ा सकता हूं। मैं सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैलाता हूं। भगवान ने सोचा कि यह भी अभिमान में है। कुछ करना होगा। भगवान ने कहा, वायु क्या तुम इत पत्ते को उड़ा सकते हो। वायु ने कहा, यह कौन सी बड़ी बात हुई। यह कहते ही वायु तेजी से उस पत्ते की ओर बढ़े, लेकिन वो पत्ते को हिला भी नहीं सके। वायु भी लज्जित होकर वापस चले गए। वायु ने देवताओं से कहा, वह नहीं जान पाए कि यह यक्ष कौन हैं।
अब इंद्र स्वयं यक्ष की ओर जाने लगे। यक्ष रूपी भगवान ने इंद्र को अभिमान में अपनी ओर आता देखा तो वह अंतर्ध्यान हो गए। इस पर इंद्र काफी लज्जित हुए और उनको समझते देर नहीं लगी कि यह यक्ष कोई और नहीं बल्कि परब्रह्म हो सकते हैं। इंद्र ने वहीं पर ध्यान लगाया और उनको मां पार्वती के दर्शन हुए। उन्होंने सोचा कि मां पार्वती तो हमेशा भगवान शिव के साथ रहती हैं। उन्होंने उनसे पूछा कि माता, अभी अभी जो यक्ष पुरुष हमें दर्शन देकर अंतर्ध्यान हो गए, वो कौन हैं।
इस पर मां पार्वती ने कहा कि वो यक्ष पुरुष परब्रह्म हैं। इन परब्रह्म ने ही देवताओं को आसुरिक ताकतों पर विजय दिलाई थी। इस जीत को प्राप्त करके देवता मिथ्या अभिमान कर रहे हैं। क्या तुम नहीं जानते कि भगवान की इच्छा के बिना कुछ नहीं हो सकता। तुम सब उनसे मिली शक्तियों से ही संचालित हो रहे हो।
इस पर इंद्र का अभिमान दूर हो गया। इंद्र देवताओं के मध्य पहुंचे और अग्नि और वायु को बताया कि वो साक्षात ब्रह्म थे। उनके दर्शन से हम कृतार्थ हुए हैं। इंद्र ने अग्नि और वायु को ब्रह्म का उपदेश सुनाया। ब्रह्म को जानने वाले अग्नि और वायु देवताओं में श्रेष्ठ हो गए। इनमें इंद्र सर्वश्रेष्ठ हुए। यह प्राचीन कथा हमें बताती है कि अभिमान किसी का नहीं रहा। व्यक्ति को सफलता और ऊंचे पद हासिल करने के बाद विनम्र हो जाना चाहिए। मिथ्या अभिमान से कुछ नहीं मिलने वाला। अभिमान हानि पहुंचाता है और एक दिन अपनों से भी अलग कर देता है। (केनोपनिषद से )