जंगल में अकेले रहते 85 साल की बूढ़ी मां और दिव्यांग बेटा
कई दिन बीत जाते हैं, जब मां और बेटे को घर के पास इंसान नहीं दिखते
राजेश पांडेय। न्यूज लाइव
एक ऐसा गांव, जहां सिर्फ एक घर है, वो भी घने जंगल में मिट्टी से बना वर्षों पुराना, जिसमें सांप- बिच्छू घुसने के कई रास्ते हैं। हाथी- गुलदार जैसे खतरनाक जंगली जानवर, कब आ जाएं, कुछ पता नहीं। खाने पीने का सामान लाने के लिए उस रास्ते से करीब चार किमी. चलने की मजबूरी है, जहां से हाथियों का झुंड गुजरता है। सबसे नजदीकी गांव तक जाने का रास्ता बैठ बैठकर चढ़ना पड़ता है, आते वक्त कब पैर फिसल जाए, पता नहीं। यहां शाम होते ही अंधेरा डराता है, बिजली नहीं है। ढिबरी के सहारे कटती रात, रेडियो के सहारे बीतते दिन। यहां एक सोलर पैनल, लाइट हैं, जिससे बल्ब जल जाते हैं। इंसान दिख जाएं तो मन बहुत खुश हो जाता है। क्या आप रह पाएंगे ऐसी जगह पर, वो भी तब तक, जब तक जीवन है। ऐसा सोचने से ही शरीर में कंपकंपी महसूस होती है।
यह किसी फिल्म या ड्रामे की स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं है, बल्कि ऋषिकेश से नजदीक इस गांव में रहने वाली 85 साल की मां और 50 साल के दिव्यांग बेटे की व्यथा है। यह चुनौती, जितनी हम बता रहे हैं, उससे भी ज्यादा है।
आइए आपको ले चलते हैं, टिहरी गढ़वाल जिले के ओणी ग्राम पंचायत के दायगाड़ गांव में।
ओणी गांव, नरेंद्रनगर रोड पर स्थित है। मां भद्रकाली मंदिर से लगभग चार से पांच किमी. की दूरी पर ओणीबैंड है, जहां से ढलान पर ओणी गांव का रास्ता जाता है। करीब छह साल पहले चार किमी. पक्की सड़क बनाई गई थी। इसके बाद, फिर से कच्चा रास्ता है, जहां इन दिनों सड़क निर्माण चल रहा है। यह सड़क ओणीगांव के अंतिम छोर से बन रही है।
ओणीगांव का ही एक हिस्सा, जहां कई घर हैं, खेती होती है, अंतिम छोर से करीब एक किमी. पहले बाई ओर है। गांव के मुख्य रास्ते से करीब एक किमी. चलने पर, हम जंगल से सटे घरों तक पहुंच गए। यहां बाइक खड़ी करके जंगल में प्रवेश करके दायगाड़ या दयागाड़ गांव स्थित बुजुर्ग महिला और उनके दिव्यांग बेटे से मिलने चल दिए। यह साल वृक्षों का घना जंगल है और इसमें पत्थरों का उबड़खाबड़ रास्ता बना है। ओणी से करीब एक से डेढ़ किमी. का रास्ता ढलान का है, जिस पर जरा सी लापरवाही, मुसीबत का सबब बन सकती है। घने जंगल में जानवरों का डर रहता है। बरसात में यहां हालात क्या होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है।
बताया जाता है, करीब छह साल पहले तक, जब ओणीबैंड से गांव तक सड़क नहीं पहुंची थी, लोग इसी रास्ते से पैदल ढालवाला जाते थे। पूरा गांव इस रास्ते से चलता था, इसीलिए पत्थर बिछाकर इसे बनाया था। अब इधर से कोई नहीं जाता, इसलिए इस रास्ते की मरम्मत भी नहीं होती।
दायगाड़ गांव का दूसरा रास्ता, जो सीधा ढालवाला तक है, करीब चार किमी. वन क्षेत्र से होकर निकलता है, जो हाथियों का कॉरिडोर यानी उनका भ्रमण मार्ग है। इस जंगली रास्ते में हाथियों सहित अन्य जंगली जानवरों का डर बना रहता है। मेरे मित्र नियोविजन संस्था के संस्थापक गजेंद्र रमोला, जो वर्षों से साइकिलों के लिए नये रूट्स तलाश रहे हैं, बताते हैं, “पहाड़ी पैडलर्स ग्रुप के चार सदस्य जुलाई, 2022 में ओणी गांव से होकर वाया दायगाड़ ढालवाला के लिए निकले थे। पहाड़ी पैडलर्स ग्रुप (Pahadi Pedallers) उत्तराखंड में साइकिल सवारों का दल है।
गजेंद्र बताते हैं, “हमने ओणी गांव से ढलान पार करके दादी का घर देखा था, हमें दूर-दूर तक इसके अलावा कोई घर नहीं दिखा। हमने घर के पास बड़ा खाला पार किया, जिसमें उन दिनों काफी पानी था। घने जंगल, खराब रास्ते से होकर हम ढालवाला पहुंचे थे।”
उधर, मैं दायगाड़ गांव के ढलान पर चलते हुए सोच रहा था, वापस इतनी खड़ी चढ़ाई कैसे पार करूंगा।
आखिरकार हम पहुंच गए दायगाड़ गांव में, जहां पानी का एक स्रोत है और पास में सिर्फ एक घर है, जो मिट्टी का बना है, जिसकी लंबे समय से मरम्मत नहीं हुई। घर के बाहर राजेंद्र प्रसाद उनियाल रेडियो सुन रहे थे। हमें देखकर बहुत खुश हो गए, कहने लगे “आपका स्वागत है।”
बुजुर्ग मां एसूरजा देवी हमारे लिए कुर्सियां लेकर आईं। इन दिनों उनकी बहन प्रतिमा देवी, जो ढालवाला में रहती हैं, मिलने के लिए आई हैं।
राजेंद्र बताते हैं, “हमारी आधी जिंदगी जंगल में बीत गई। माता पिता गरीब थे और यहां पशुपालन करके गुजारा करते थे।” रसोई में रखी दूध की ठेकी दिखाते हुए कहते हैं, “वो देखो इसमें दूध भरकर शहर ले जाते थे। मैंं पैरों से दिव्यांग हूं, पढ़ाई लिखाई के लिए दूर स्कूल में नहीं जा सका। पिताजी नहीं रहे, मां बुजुर्ग हैं, इसलिए पशुपालन भी वर्षों से बंद है। दो बड़े भाई हैं, जिनको बच्चों की पढ़ाई के लिए शहर की ओर जाना पड़ा। भाई भी किराये के मकानों में रह रहे हैं, पर हमें सहयोग करते हैं। मुझे और माताजी को पेंशन मिलती है, यही पैसा हमारी आजीविका का स्रोत मान लीजिए। और कुछ, काम हम नहीं करते, करें भी कैसे, यहां कुछ है भी नहीं। दिनभर रेडियो सुनता हूं।”
“अब हमें यहीं अच्छा लगता है, यहां रहकर पेंशन के भरोसे जिंदगी आगे बढ़ रही है, शहर में भले ही संसाधन हों, पर बिना आय के कैसे रहेंगे। हां, यह बात तो है, यहां जिंदगी के लिए जोखिम बहुत हैं। हाथी, बाघ( स्थानीय लोग गुलदार को बाघ ही बोलते हैं), बंदर, लंगूर कौन सा जानवर नहीं है, सभी से खतरा रहता है। हमारे कच्चे, पुराने घर में सांप घुसने का डर रहता है। क्या करें?, रहना पड़ता है।”
राजेंद्र प्रसाद उनियाल, 2013 की एक घटना का जिक्र करते हैं, “तब पिताजी भी थे, रात की बात है, एक हाथी ने हमारे घर पर हमला कर दिया। उन दिनों वो हाथी, काफी चर्चा में था। आप यह सुनकर बहुत चिंतित हो जाओगे, क्या ऐसा भी होता है। हाथी ने घर की छत को उखाड़ दिया था। हम तीनों लोग, इस छोटी सी रसोई में बिछे तख्त पर घबराए हुए, दीवार के सहारे दुबके हुए बैठे थे, बाहर खड़ा हाथी अपनी सूंड़ से रसोई में खाने का सामान टटोल रहा था। उसकी सूंड़ हमें छूने से बाल-बाल बच रही थी। हमें डर लग रहा था, कहीं यह रसोई तोड़कर अंदर न घुस जाए। अगर, ऐसा हो गया तो हम तीनों मारे जाएंगे। पर, शुक्र है हम बच गए। हमारे पास जो भी कुछ खाने का सामान था, वो हाथी खा गया। हमारा बहुत नुकसान हुआ। हमने वन विभाग से इस नुकसान का मुआवजा मांगा, पर आज तक हमें कुछ नहीं मिला।” राजेंद्र हमें घर में हुई तोड़फोड़ का फोटो और वन विभाग को लिखी चिट्ठी की फोटो प्रति भी दिखाते हैं।
“जंगल में, सिवाय जानवरों के कुछ भी नहीं दिखता। कभी कभी उनको हाथियों वाला जंगल पार करके अकेले ही पैदल ढालवाला जाना पड़ता है। लाठी के सहारे चलते चलते पूरा दिन लग जाता है, क्या करें। यहां इंसान तो कभी कभार ही दिखते हैं। जब लोग यहां से होकर जाते हैं, तब बड़ी खुशी होती है।” हर सवाल का जवाब खुश होकर देने वाले राजेंद्र बताते हैं, “उनके पास एक छोटा फोन है, जिससे सिर्फ फोन सुना जा सकता है। गाने सुनने के लिए रेडियो उनका सबसे अच्छा दोस्त है।”
करीब 85 वर्षीय एसूरजा देवी बताती हैं, “यह कई दिन हो जाते हैं, इंसान नहीं दिखते। बड़ा दुख होता है बेटा। हम आबादी से बहुत दूर रहते हैं जंगल में। जंगल है इसलिए यहां जानवर भी हैं। बरसात में सामने दिख रहे दायगाड़ में पानी भर जाता है, फिर न तो ढालवाला तक जा पाते हैं और न ही ऊपर ओणीगांव में। टिन की पुरानी छत से पानी टपकता है। मिट्टी का घर है, पुराना है, खतरा तो बना रहता है। पर, हम कर भी क्या सकते हैं। मुझे अपने सभी बेटों की चिंता रहती है। दो बेटे बाहर रहते हैं, वो भी किसी तरह किराये के घरों में गुजारा कर रहे हैं। वो हमारा ख्याल रखते हैं। बीच-बीच में खाने-पीने का सामान लेकर आ जाते हैं।”
बुजुर्ग एसूरजा देवी, हमारे लिए चाय का इंतजाम करती हैं। रसोई में, जिसमें एक तख्त बिछा है, पास में लकड़ी के फट्टे पर दूध की ठेकी के साथ बहुत सारे बर्तन रखे हैं। दीवारों पर सामान और डिब्बे रखने के लिए लकड़ियों के स्लैब लगाए हैं। यह सारी व्यवस्था, उस समय की है, जब यह रसोई बनाई होगी।
लकड़ियों वाले चूल्हे में आग धधक रही है। इसमें छोटी-छोटी सूखी लकड़ियां लगाई हैं। चूल्हे पर चाय बन रही है। धुएं से कमरे की दीवारें, टिन की छत काले हो गए हैं। बताती हैं, “वो अकेली हैं, इसलिए दीवारों पर मिट्टी की लिपाई पुताई काफी समय से नहीं कर पाईं। चूल्हे के ऊपर दीवारों पर सरिया बिछा है, जिस पर लकड़ियां रखी हैं।”
राजेंद्र बताते हैं, “चूल्हे की तपिश से ये लकड़ियां सूख जाती हैं और चूल्हे में अच्छे से आग पकड़ती हैं।”
एक छोटे से आले में भगवान की मूर्ति रखी है, जो इस परिवार की पूजा है। राजेंद्र और उनकी मां की ईश्वर में बहुत आस्था है, कहते हैं, ” भगवान ने ही हमें सुरक्षित रखा है।”
कमरे में रखे सिलबट्टे को देखकर हमने पूछा, तो बताया, ” कभी कभार इस पर चटनी पीस लेती हूं।”
बातें करते हुए, उन्होंने हमें छानकर एक कप में चाय परोसी। पहली चुस्की के साथ, हमने उनसे कहा, “मांजी आपने चाय बहुत शानदार बनाई है”, तो राजेंद्र कहने लगे, “आपको चाय अच्छी लगी, इस बहाने ही सही, आपको हमारी याद आएगी। हमें काफी खुशी मिली है।”
हमारे पूछने पर एसूरजा देवी कहती हैं, “दूध तो ढालवाला से ही आता है। अभी बड़ा बेटा बुद्धिसागर यहां आए हैं, वो ही दूध लाए हैं। यहां रोज-रोज दूध नहीं आ सकता, इसलिए पाउडर का दूध रखते हैं। पर, पाउडर वाले दूध का स्वाद बहुत अच्छा नहीं लगता, पर मजबूरी है।”
वो कहती हैं, “खाना खाकर जाना, अभी खिचड़ी बना देती हूं।” पर, हम भोजन करके उनके पास पहुंचे थे, इसलिए मना कर दिया। दरअसल, हम उनको तकलीफ नहीं देना चाहते थे।
राजेंद्र की मौसी प्रतिमा देवी, 2013 की उस रात हाथी के कहर का जिक्र करती हैं। बताती हैं, “उस रात, जब हाथी रसोई के बाहर खड़ा होकर सूंड़ से खाने पीने का सामान टटोल रहा था। राजेंद्र, उसके पापा और मां तख्त पर दुबके बैठे थे। उन्होंने खुद को भगवान के हवाले कर दिया था। यह सोचकर अब जो होगा, देखा जाएगा। अभी भी यहां खतरा रहता है।”
रसोई से सटा हुआ एक कमरा, जिसको दिखाते हुए राजेंद्र कहते हैं, “हम यहीं रहते हैं। छत की टिन खराब हो गई है और पता नहीं कब क्या हो जाए। कमरे में रखा सामान अस्त व्यस्त है, दो पलंग हैं और कपड़े और अन्य सामान रखा है।”
हमने राजेंद्र से पूछा, “आपकी आजीविका का जरिया क्या है, वो बोले सरकार से मिल रही पेंशन, और क्या काम है हमारे पास। सरकार से सुविधाएं चाहते हैं, बिजली चाहते हैं, सड़क चाहते हैं और कुछ काम।”
राजेंद्र के बड़े भाई बुद्धि सागर भी वहां पहुंचे थे। बताते हैं, “हम तो चाहते हैं ये हमारे साथ रहें, पर इनका मन यहीं लगता है। ये यहां से जाना नहीं चाहते। इनसे मिलने के लिए, जरूरत का सामान पहुंचाने के लिए, हम यहां आते रहते हैं।”
हम यहां रहते हैं-