स्त्री
स्त्री,
सरल या जटिल,
एक अबूझ पहेली,
कितना कुछ, ख़ुद में समेटे,
बहुत मुश्किल है,
एक पुरुष के लिए,
एक सरल सी स्त्री के,
जटिल- मन को पढ़ पाना,
क्योंकि,
छिपा कर रखती है वो,
अपनी भावनाओं को,
मन के भीतर भी,
हज़ार परदों के पीछे,
भीतर ही भीतर, ख़ुद भी,
पर्दा करती है,अपनी ही भावनाओं से,
इतनी जकड़ी है इस पर्दे में,
कि चाह कर भी,
कभी कोई भाव मन से बहकर,
उसके अधरों तक नहीं पहुँच पाता,
पर हाँ,
पहुंच जाता है ,कभी-कभी,
आँखों तक,
और ख़ामोशी से बह जाता है,
जटिल है,
ये सरल सी दिखने वाली स्त्री,
जानते हो,
शिव के दोे रूप हैं
त्रिनेत्र, अर्द्धनारीश्वर,
शायद इसी तीसरे नेत्र से
स्त्री झाँक लेती है,
पुरुष के मन में ,
परन्तु पुरुष,
परमेश्वर हो कर भी,
कभी थाह नहीं ले पाता,
उसके मन की पीड़ा की,
अजीब है न,
अर्द्धांगिनी नाम भी देता है,
और अपने ही उस आधे हिस्से के दर्द को,
महसूस भी नहीं कर पाता,
और यूं स्त्री बनी रहती है,
जीवनभर,
एक अबूझ पहेली,
उसके लिए, सबके लिए,
ख़ुद के लिए ||