शिक्षा दुनिया को बदलने की अपार क्षमता वाला एक ताकतवर औजार है, लेकिन अगर लोगों को इसका एहसास ही नहीं हो तो हम क्या करें? इफ्फी-52 में भारतीय पैनोरमा खंड की फीचर फ़िल्म श्रेणी में प्रदर्शित ‘बूम्बा राइड’ एक ऐसी फ़िल्म है, जो हमारी शिक्षा प्रणाली का स्वाभाविक चित्रण करती है, खासकर हमारे देश के कुछ ग्रामीण हिस्सों में शिक्षा की स्थिति का।
इस फ़िल्म के पीछे अपनी प्रेरणा स्रोत के बारे में बताते हुए निर्देशक बिस्वजीत बोरा ने इफ्फी में सिने प्रेमियों से कहा: “इस फ़िल्म के जरिए मैं समग्र रूप से समाज को ये संदेश देना चाहता था कि कैसे शिक्षा लोगों के जीवन को बदलने में एक बड़ी भूमिका निभा सकती है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
मैं बताना चाहता था कि इतनी खराब हालत वाले स्कूल जो हमने फ़िल्म में दिखाए हैं, वे ग्रामीण असम में आज भी मौजूद हैं। हालांकि सरकार हरसंभव मदद कर रही है, लेकिन वहां के लोग और यहां तक कि शिक्षक भी इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हैं।”
20-28 नवंबर, 2021 के दौरान गोवा में आयोजित 52वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव (इफ्फी) के दौरान आज 22 नवंबर, 2021 को ‘मीट द डायरेक्टर्स’ प्रेस वार्ता को निर्देशक बोरा संबोधित कर रहे थे।
उनके साथ उनकी पत्नी और फ़िल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइनर लोपामुद्रा गोगोई बोरा, असम के मिशिंग समुदाय के अभिनेता हिरण्य पेगु और बोरा व लोपामुद्रा के बेटे ट्रॉय भी मौजूद थे।
ये एक सीरियो-कॉमिक फ़िल्म है यानी गंभीर महत्व के मामलों पर कॉमेडी का एक अजीब मिश्रण लिए हुए है। ‘बूम्बा राइड’ एक युवा लड़के बूम्बा की कहानी है, जो ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर बने असम के एक प्राथमिक विद्यालय का इकलौता छात्र है।
यहां के शिक्षक स्कूल को बचाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं, क्योंकि बूम्बा स्कूल में एकमात्र छात्र है, और वो भी ऐसा जो स्कूल जाना ही नहीं चाहता। कहानी में सस्पेंस के साथ जो त्रासदी भरा हास्य है, उसमें और इज़ाफा इसलिए हो जाता है क्योंकि ये शिक्षक लोग स्कूल बचाना भी चाहते हैं तो इस उम्मीद में कि उन्हें मिड डे मील योजना जैसी सरकारी योजनाओं से मिलने वाली लूट का फायदा मिलता रहेगा।
लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब स्कूल ढहने की कगार पर होता है। अपनी बुद्धि से बूम्बा अपने स्कूल को बचाता है, जिससे उन सभी को ये एहसास होता है कि शिक्षा एक समाज के लिए क्या-क्या कर सकती है।
असल जिंदगी की घटनाओं पर आधारित इस फ़िल्म को बनाने की अपनी यात्रा बताते हुए बोरा ने कहा कि ये आइडिया उन्हें 2003 में तब आया जब उन्होंने इससे जुड़ी एक टीवी रिपोर्ट देखी।
उन्होंने बताया, “मैंने तुरंत ये आइडिया अपने गुरु और प्रसिद्ध फ़िल्ममेकर जाह्नु बरुआ के साथ साझा किया, जिन्होंने कहानी सुनने के बाद हरी झंडी दे दी।”
बोरा ने बताया कि हालांकि ये आइडिया तब साकार नहीं हुआ, “मैं इसे हिंदी में बनाना चाहता था, लेकिन कुछ दुर्भाग्यपूर्ण कारणों से ऐसा नहीं हो सका।”
कोविड-19 की वजह से हुए लॉकडाउन के दौरान इस कहानी को नई जड़ें मिलीं। बोरा ने कहा, “मेरे निर्माता दोस्त लॉकडाउन की अवधि के दौरान आगे आए, जिससे मुझे ये फ़िल्म बनाने के अपने लंबे समय से खोए हुए विचार को महसूस करने में मदद मिली।
मेरे दोस्तों ने कहा कि चलो कम बजट की फ़िल्म बनाते हैं, और चूंकि ये आइडिया मेरे दिमाग में बरसों से था, इसलिए हमने इस पर काम शुरू करने के बारे में सोचा। ”
बोरा ने माना कि बजट की कमी ने हालांकि नॉन-एक्टर्स को लेने के फैसले में भूमिका निभाई, लेकिन वे ये भी चाहते थे कि सब कुछ स्वाभाविक हो। उन्होंने कहा, “इस फ़िल्म की शूटिंग असम के गोलाघाट जिले के बोरमुकोली गांव में हुई है, जहां बोलचाल की भाषा मिशिंग है। हमने वहां से कुछ लोगों को चुना और उन्हें ट्रेनिंग दी।”
बोरा ने समझाया कि भाषा ने इस फ़िल्म को अंजाम देने में एक बड़ी रुकावट पैदा की। उन्होंने बताया, “हमने अभिनेता हिरण्य पेगु जैसे लोगों की मदद मांगी, जिन्होंने अनुवाद में मदद की। वे फ़िल्म के एक्टर्स से असमिया में बात करते थे, वो सुनते थे और उसके बाद अपने बीच में उस बात का अनुवाद करते थे।
हिरण्य पेगु मिशिंग समुदाय में एक प्रसिद्ध संगीतकार हैं। पहले तो वे एक अनुवादक के रूप में फ़िल्म का हिस्सा थे, लेकिन बाद में संयोग से वे फ़िल्म में अभिनेता बन गए। ”
फ़िल्म बनाने के दौरान के कुछ दिलचस्प किस्से साझा करते हुए बोरा ने कहा कि वे इस फ़िल्म की शूटिंग के लिए प्रतिदिन 3-4 किलोमीटर पैदल चलते थे, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के उस हिस्से में अभी भी कोई परिवहन उपलब्ध नहीं है।
उन्होंने कहा, “ये पूरी तरह से एक नया अनुभव था क्योंकि मैं उन अभिनेताओं के साथ काम कर रहा था जिन्होंने अपने पूरे जीवन में थिएटर या सिनेमा नहीं देखा था। यहां तक कि बूम्बा का किरदार निभाने वाले इंद्रजीत पेगू को भी नहीं पता था कि मैंने उसके बारे में क्या शूट किया है।”
ये आइडिया उनको 12 साल पहले आया था, लेकिन उन्होंने फ़िल्म अब जाकर बनाई है, ऐसे में क्या ये फ़िल्म अब भी प्रासंगिक है?
इस पर उन्होंने कहा, “असम के उन ग्रामीण हिस्सों में स्थिति अभी भी वही है। मैं हैरान रह गया था जब मुझे ठीक वैसा ही स्कूल मिला, जैसी कल्पना मैंने फ़िल्म में की थी।” इस समस्या की अभी भी बनी हुई गंभीरता पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वे अपने बेटे को भी एक कॉन्वेंट स्कूल में भेजते हैं, न कि सरकारी स्कूल में।
कल फ़िल्म के वर्ल्ड प्रीमियर के लिए इफ्फी को धन्यवाद देते हुए बोरा ने कहा कि लोगों की प्रतिक्रिया जबरदस्त थी। उन्होंने कहा, “लोगों ने फ़िल्म की सराहना की है और ये मेरे लिए बहुत मायने रखता है। एक महिला दर्शक तो फ़िल्म देखकर इतनी भावुक हुईं कि वे मेरे पास आई और पूछा कि क्या वे मुझे गले लगा सकती हैं।”
बिस्वजीत बोरा एक फ़िल्ममेकर, निर्माता, संपादक और लेखक हैं। उनकी हिंदी और असमिया फ़िल्मों में ‘ऐसा ये जहां’, ‘बहनीमान’, ‘रक्तबीज’, ‘फेहुजाली’ और ‘गॉड ऑन द बालकनी’ शामिल हैं।- PIB
राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में 26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।
बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है।
बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।
अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।
बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं।
शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग