पृथ्वी की कैसी छवि
उमेश राय
धरा का धैर्य चुक गया है,
अनाचार असीम जो हो गया है यहाँ…
भोगवादी जीवन ने सारे वन-मधुवन छीन लिए हैं,
काया हो चुकी है छायाविहीन.
मर्यादाएं जब भग्न हो जाती हैं बेतरह,
बेहतरी का प्रकाश तब बन जाता है काश!
फिर,कालिमा का छा जाना तय है,
धरा के आकाश में.
पादप-पेड़ का घटते जाना,
कंक्रीट का बढ़ता फैलाव,
प्लास्टिक का सटीक भय,
शुद्धता का होता ह्रास.
लोभ की मानसिकता में भला का भाव होता ही नहीं,
धन का मन शुभ का सुमन नहीं खिला सकता…
इसीलिए,करुणा-प्रेम-सेवा का अभाव है हर जगह,
शांति,आनंद,सृजन लुप्तप्राय हैं यहाँ.
पृथ्वी का स्त्रीत्व,द्वैतवादी मानस से हताहत है,
क्षत-विक्षत….
प्रेम सौदा नहीं सौदागर!
सर्वस्व समर्पण का यह सुघर-दर.
प्रदूषित हृदय,सुवासित कैसे हो सकता है?
वह तो दुर्गंध को बटोरता – फैलाता है नित-नवीन..
धरा का आधार प्रेम है मनुज!
संवेदनहीन व नेहविहीन जीवन,
जिंदगी को बंदगी से दूर ,
गंदगी से करता है युक्त,
जहाँ जीवन,रिसता है, खिसकता है….
धीरे-धीरे मृत्यु की ओर.
मैं, शव नहीं, शिव का सद्भावी हूँ,
मेरी पृथ्वी! स्त्रीत्व के बहु रूप-रूपाय!
तेरा शुभ से आचमन ही ,
मानवता का है उजला भविष्य …
मैं, यहीं तलाश करता हूँ,
लाश से परे मानवीय आस की.