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ऋषिकेश की इन शख्सियतों से मिलिए, जिन्होंने बचाई हैं कई जिंदगियां

World Blood Donor Day 2023 पर विशेष

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव ब्लॉग

ऋषिकेश में बड़ी संख्या में ऐसे युवा हैं, जो जब भी जरूरत होती है, अपने सभी जरूरी काम छोड़कर अस्पतालों की ओर दौड़ लेते हैं। उनका मकसद पहले किसी की जिंदगी बचाना होता है, उसके बाद ही कोई दूसरा काम। अमित वत्स, जो पेशे से अधिवक्ता हैं, कहते हैं जब भी फोन आ जाए, चाहे ऋषिकेश हो या फिर देहरादून या रुड़की ही क्यों न हो, मैं तुरंत दौड़ लेता हूं, हम इस नेक कार्य में मना नहीं कर सकते। वैसे भी उनका ब्लड ग्रुप बी नैगेटिव बहुत रेयर है।

विश्व रक्तदाता दिवस (World Blood Donor Day 2023) से ठीक एक दिन पहले रेडियो ऋषिकेश के स्टूडियो में एक इंटरव्यू के दौरान करीब 48 वर्षीय अमित वत्स, रक्तदान से जुड़े अपने अनुभवों को बता रहे थे। अभी तक उन्होंने साठ से ज्यादा बार रक्तदान किया है और प्लेटलेट्स दिए हैं। अपना पहला अनुभव बताते हैं, “मैंने पहला रक्तदान ऋषिकेश तिलक रोड स्थित एक अस्पताल में किया था। ब्लड देकर स्कूटर से घर जा रहा था, मैंने अपने हाथ से खून निकलते देखा, तो घबरा गया था। मैं तुरंत, पास ही मेडिकल स्टोर पर पहुंचा और वहां से बैंडेज लेकर उस स्थान पर चिपका दी, जहां से खून निकल रहा था। पहले रक्तदान के बाद सीरिंज लगे स्थान पर रुई लगाकर घर जाने को कह दिया जाता था। यह मेरा पहला एक्सपीरियंस था।

इसके बाद, मैं लगातार रक्तदान करने लगा। सबसे खास बात यह है कि 60 से अधिक बार रक्तदान में, मात्र तीन या चार मौके ही ऐसे होंगे, जब मैंने अपने किसी जान पहचान के व्यक्ति के लिए रक्तदान किया। अधिकतर बार उन लोगों के लिए रक्तदान हुआ, जो न मुझे जानते हैं और न ही मैं उनको।

बताते हैं, रक्तदान में ज्यादा समय नहीं लगता, पर प्लेटलेट्स देने में करीब दो से तीन घंटे लग जाते हैं, क्योंकि इसकी एक प्रक्रिया होती है। इसलिए मैं सीधा रक्तदान करता हूं। पहले मैंने भी प्लेटलेट्स दिए हैं। आप एक बार रक्तदान करके केवल एक नहीं बल्कि चार जिंदगियों को बचाते हैं। रक्त के साथ उसके और भी तत्व हैं, जो अलग-अलग रोगों में काम आते हैं।

अमित का कहना है, रक्तदान से कमजोरी नहीं आती है, बल्कि आपका शरीर स्वस्थ रहता है। दूसरी बात यह, अक्सर कहा जाता है कि डायबिटीज रोगी रक्तदान नहीं कर सकते। मैं स्वयं डायबिटीज रोगी हूं, पर मैं रक्तदान करता हूं। डायबिटीज के वो रोगी, रक्तदान कर सकते हैं, जिनका शुगर कंट्रोल में रहता है। दूसरी बात, वो इंसुलिन का इस्तेमाल नहीं करते हों। आप रक्तदान करने जाएंगे तो मेडिकल टीम आपके रक्त की जांच करती है, जांच के आधार पर वो तय करते हैं कि आप रक्तदान कर सकते हैं या नहीं।

वो बताते हैं, ऋषिकेश में युवाओं के ग्रुप हैं, जो रक्तदान करते हैं। मैं चार ग्रुप में शामिल हूं। अक्सर एक दिक्कत देखने में आती है, जिस भी रोगी को रक्त की जरूरत होती है, उनके तिमारदारों को पता ही नहीं होता, अस्पताल के आस पास वो कौन लोग हैं, जो रक्तदान करते हैं। वो लोगों से संपर्क करते हैं, सोशल मीडिया पर रिक्वेस्ट पोस्ट करते हैं। हमारे पास भी, इधर- उधऱ से फोन आते हैं। हालांकि, कुछ वेबसाइट्स हैं, जहां सूची उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य विभाग को चाहिए कि वो अपनी किसी वेबसाइट पर सभी रक्तदाताओं की सूची, उनके फोन नंबर उपलब्ध कराएं, ताकि तिमारदार सीधा रक्तदाताओं से संपर्क कर पाएं। कोई टोलफ्री नंबर हो, जहां से मदद मिल जाए।

अमित कहते हैं, हम सभी अस्पतालों में रक्तदान के लिए जाते हैं। हमारी पूरी डिटेल अस्पतालों के पास होती है। किसी भी रोगी को जरूरत पड़ने पर अस्पतालों को चाहिए कि वो खुद ही तिमारदारों को संंबंधित ब्लड ग्रुप वाले रक्तदाताओं के नंबर उपलब्ध करा दे, पर… ऐसा अक्सर नहीं होता। अस्पतालों को एक हेल्प डेस्क बनानी चाहिए, जो रोगियों के परिवारों का हम रक्तदाताओं से संपर्क कराए।

वहीं, नगर निगम पार्षद करीब 36 साल के राजेंद्र प्रेम सिंह बिष्ट, ने प्लेटलेट्स और रक्तदान में शतक पूरा कर लिया है। राजेंद्र उत्तराखंड में सबसे ज्यादा बार रक्तदान करने वाले युवा हैं। पर, राजेंद्र इस बात में थोड़ा संशोधन करते हुए बताते हैं, मैंने अधिकतर बार प्लेटलेट्स दिए हैं, जो आप कम से कम पांच – छह दिन के अंतर में दे सकते हैं। रही बात पूरे रक्त की, तो उसको कम से कम तीन माह के अंतर में ही दे पाते हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ, मुझे एक ही रोगी के लिए सात से आठ बार प्लेटलेट्स देने पड़े। कैंसर रोगियों के लिए प्लेटलेट्स देने होते हैं। डेंगू के समय तो हम पांच दिन के अंतराल में अस्पताल जाते रहते हैं।

इंदिरानगर में रहने वाले, राजेंद्र हंसते हुए कहते हैं, वैसे तो रक्तदान करने की आयु 18 से 65 वर्ष है, पर मैंने पहली बार रक्तदान उस समय किया, जब मेरी आयु 17 से 18 वर्ष के बीच थी। मुझे तो उस समय यह भी नहीं पता था, मेरा ब्लडग्रुप क्या है। उन दिनों स्कूल की छुट्टियां पड़ी थीं, हम क्रिकेट खेल रहे थे।

हमारे एक पड़ोसी ने मुझसे पूछा, तुम्हारा ब्लड ग्रुप क्या है। मैंने कहा, मुझे नहीं पता। उन्होंने फिर पूछा, क्या तुम किसी के लिए रक्तदान कर सकते हो। मैंने कहा, हां कर दूंगा। वो अपने जानने वालीं किन्हीं बुजुर्ग महिला के लिए ब्लड दिलाना चाहते थे। वो मुझे रेलवे रोड पर एक अस्पताल ले आए। वहां मेरे ब्लड की जांच हुई और मुझे बताया गया कि मेरा ब्लड, रोगी के ब्लड से मैच कर गया। रक्तदान हो गया, पर जैसे ही मैं बेड से उठा, मुझे चक्कर आ गए। उन्होंने मुझे जूस पिलाया और करीब आधा घंटा रेस्ट कराने के बाद घर भेज दिया। उस दिन के बाद से रक्तदान का सिलसिला जारी है।

बताते हैं, प्लेटलेट्स देने की प्रक्रिया में समय लगता है। सभी जांच दोबारा से होती हैं। जांच रिपोर्ट आने में कम से कम दो घंटे लग जाते हैं। सबकुछ सही होने के बाद ही प्लेटलेट्स लिए जाते हैं। जब से एम्स में प्लेटलेट्स की मशीन आई है, सबकुछ आसान हो गया है। करीब एक घंटे तक बेड पर लेटे रहना पड़ता है। पर, एक बात तो है, रक्तदान के बाद हमें जो आत्मसंतुष्टि मिलती है, वो अनमोल होती है।

वहीं, ऋषिकेश में पत्रकारिता के जाने पहचाने चेहरे, जिनको मैं अपना आदर्श मानता हूं, वो इसलिए क्योंकि उनको अक्सर ग्राउंड जीरो पर देखता हूं। सकारात्मक खबरों का पीछा करने वाले बेहतर लेखनी के धनी दुर्गा प्रसाद नौटियाल ने रक्तदान, खासकर प्लेटलेट्स में अर्द्धशतक पार कर लिया है। दुर्गा से जब पूछा गया, भागदौड़ वाली पत्रकारिता में आप प्लेटलेट्स दान करने की लगभग तीन घंटे से अधिक समय लेने वाली प्रक्रिया का हिस्सा कैसे बन पाते हैं। दुर्गा कहते हैं, प्लेटलेट्स या पूरे रक्त की मांग तभी होती है, जब जरूरत होती है। काम होते रहेंगे, सबसे पहले किसी की जिंदगी को बचाना है। मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि आफिस से मुझे कभी भी रक्तदान करने के लिए नहीं रोका गया।

हम पत्रकारों को कभी भी फोन आ जाता है, हमें घटनास्थल की ओर दौड़ लगानी होती है। कई बार ऐसे मौकों पर, मैं खुद को अस्पताल में रक्तदान के इंतजार में पाता हूं। कई बार झुंझलाहट भी होती है, पर रक्तदान अपना सबसे जरूरी कर्तव्य है, यह सोचकर संयम रखना होता है। प्लेटलेट्स देने में जांच और अन्य प्रक्रिया में कम से कम साढ़े तीन घंटे लग जाते हैं। हां, पूरा रक्त देने में ज्यादा समय नहीं लगता।

दुर्गा बताते हैं, वर्ष 2000 की बात है, मैं ऋषिकेश डिग्री कॉलेज का छात्र था। हमारे कॉलेज के सामने बस से दो छात्राएं गंभीर रूप से घायल हो गई थीं। बड़ी संख्या में छात्र जौलीग्रांट स्थित हिमालयन हॉस्पिटल पहुंच गए थे। हम उन छात्राओं का जीवन बचाने के लिए ब्लड डोनेट करना चाहते थे। अस्पताल में हमारे फोन नंबर लिख लिए गए। उस समय, हमारे अपने फोन तो थे नहीं, कॉलेज का फोन नंबर दे दिया था। बाद में, उन दोनों छात्राओं की मृत्यु हो गई थी। पर, अस्पताल से एक दिन फोन आया, रक्तदान करने के लिए बुलाया था। इस तरह मैंने पहली बार रक्तदान किया।

दुर्गा प्रसाद नौटियाल बताते हैं, एक बार रक्तदान करने से आप चार लोगों की जिंदगी बचा सकते हैं। वो युवाओं को अक्सर रक्तदान करने के लिए प्रेरित करते हैं।

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार आशीष डोभाल का कहना है, ऋषिकेश के सरकारी अस्तपाल में ब्लड बैंक है। पहाड़ के जिलों से भी बड़ी संख्या में रोगी ऋषिकेश पहुंचते हैं। ऋषिकेश में बड़ी संख्या में युवा, रक्तदान करने के लिए हर समय तैयार रहते हैं। पर, स्थिति यह है कि रोगियों के तिमारदारों को ब्लड के लिए जौलीग्रांट, देहरादून के ब्लड बैंक, एम्स की ओर दौड़ लगानी होती है। सरकारी स्तर पर इस दिशा में व्यवस्थाएं जुटाने की जरूरत है। डोभाल कहते हैं, ऋषिकेश के उन सभी युवाओं, शख्सियतों का हृदय से आभार है, जो सूचना मिलते ही रोगियों की जान बचाने के लिए रक्तदान करने अस्पतालों में पहुंचते हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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