AnalysisBlog LiveFeatured

इनकी सुनते रहो, काम करते रहो, पैसे की बात मत करना 

अपने नंबर बढ़ाने के लिए दूसरों को दिक्कतों में डालने वाले बहुत हैं पत्रकारिता में
अखबार के मालिक के बेस्ट ऑफ लक ने मुझे खबरों में कुछ बड़ा करने के लिए उत्साहित कर दिया। पर, इस उत्साह से काम नहीं चलने वाला था, जीवन को आगे बढ़ाने के लिए जितना तन और मन का मजबूत होना जरूरी है, उतना ही धन भी चाहिए। धन के नाम पर एक पाई भी नहीं बढ़ाई।
यह इसलिए भी क्योंकि उन लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपने नंबर बढ़ाने थे। जबकि हम समझते थे कि हमें पत्रकारिता में बहुत आगे ले जाने के लिए इनका योगदान कभी नहीं भुलाना चाहिए, अब लगता है कि हम गलत थे। यह सच बात है और इसके लिए कोई बुरा माने तो मानता रहे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। गलती मेरी भी थी कि मुझे साफ मना कर देना चाहिए था। मुझे पहले यह पूछना चाहिए था कि कितने पैसे बढ़ाओगे, ढाई हजार में तो नहीं जाऊंगा।
मैं खुली आँखों से सपने तो देख रहा था, पर वास्तव में मेरी आंखों पर उनके विश्वास का पर्दा पड़ा हुआ था। मेरे कान उनके बारे में किसी से कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। मेरे दिल और दिमाग हमेशा यही कह रहे थे कि ये जो भी करेंगे अच्छा करेंगे। सोचता था कि पैसा कितना बढ़ेगा, क्या ट्रेनी से स्टाफर बन जाऊंगा, जैसे तुच्छ सवाल नहीं पूछने चाहिए।
अगर ये बुरा मान गए तो पत्रकारिता में आगे नहीं बढ़ पाओगे, भले ही मेहनत करते करते दिनरात एक कर दो। सच तो यह है कि गांधी जी के तीन बंदरों की तरह मैंने आंख, कान और मुंह बंद कर दिए, जबकि गांधी जी के ये बंदर ऐसा कुछ संकेत नहीं देते, जो मैं समझ रहा था। मुझे आंख खोलकर सत्य को जानना था, मुझे अपनी बात कहने के लिए मुंह खोलना था, मुझे सच जानने के लिए अपने कान खुले रखने थे।
खैर, पहला चेक पहुंचा और बढ़ती धड़कनों के साथ मैंने लिफाफा खोला। मैं सोच रहा था कि तनख्वाह ढाई से बढ़कर कम से कम साढ़े सात हजार तो हो गई होगी। पापा को तुरंत फोन करके बताऊंगा कि मेरी तनख्वाह तीन गुना बढ़ गई। चेक देखते ही खुद पर शर्मिंदा हो गया। सोचा कि घर के पास भी तुम ढाई हजार के और घर से सवा चार सौ किमी. दूर तमाम चुनौतियों में भी ढाई हजार के शख्स हो। रोजाना के सौ रुपये मिलेंगे, वाह.. तुम तो वाकई तरक्की की राह पर हो। किलोमीटर बढ़ गए पर रुपया नहीं।
मैंने तुरंत फोन मिलाया, तो जवाब मिला, पैसे बढ़ाने की बात नहीं हुई थी। तुमको पहले बताना था। मैंने अब मुंह खोल लिया था, पर संकोच अभी भी था। मैंने कहा, इतने में रोटी भी नहीं खा पाऊंगा। कमरे का किराया ही छह-सात सौ रुपये महीना हैं। यहां खाना महंगा है। अब तो वापस भी नहीं जा सकता।
बात आई गई हो गई। अगली बार का चेक साढ़े तीन हजार रुपये महीने के हिसाब से आया। मैंने अपने खर्चों में कटौती कर दी। कभी नाश्ता नहीं तो कभी लंच नहीं, के हिसाब से काम चलाने लगा। मैं खाना बनाना नहीं जानता था, हमेशा मां के हाथ का खाना खाया था। होटल में खाने पीने की आदत नहीं थी, पर मजबूरी में क्या करता।
मैं उस समय सहम गया था, जब लोक संपर्क अधिकारी ने कहा, बहुत अच्छी बात है अखबार ने 25 साल के युवक को अपना इंचार्ज बनाया। आपको तनख्वाह भी ठीकठाक मिलती होगी। मैंने भी झूठ बोल दिया, हां तनख्वाह ठीक है हमारे यहां। वहीं एक दिन एकाउंट ने आफिस के खर्चे देने से मना कर दिया। जाहिर है कि ये खर्चे उन एक हजार रुपये में ही शामिल मान लिए होंगे, जो मुझ पर सेलरी बढ़ाने के नाम पर दिए जाते थे।
आफिस में स्टाफ औऱ दो ट्रेनी रिपोर्टर और सभी खास खास जगहों पर रिपोर्टर की भर्तियां की गईं। चंडीगढ़ से पहुंचे समाचार संपादक ने एक रेस्रां में मीटिंग बुलाकर सभी को भर्ती करने का निर्णय सुनाया।
मजेदार बात यह कि मेरे साथ शहर में काम कर रहे दोनों ट्रेनी रिपोर्टर को यह नहीं मालूम था कि जिसको हम इंचार्ज समझ रहे हैं, जिस पर मंडी से लेकर मनाली तक की खबरों को भेजने की जिम्मेदारी है, वो भी कागजों में ट्रेनी है। मैं तो अपना रुतबा बढ़ता देख रहा था, सभी लोग सम्मान करते। उस समय मंडी जिला हिमाचल प्रदेश की राजनीति के केंद्र में था। 1999 का लोकसभा चुनाव भी था।
अब मैं आपको काम की बात बताता हूं कि नये शहर में जहां अखबारों की रिपोर्टिंग शाम पांच बजे के बाद छुट्टी पर चली जाती थी, वहां एक नया अखबार कैसे स्थापित हुआ। शाम पांच बजे छुट्टी का मतलब है कि उस समय तक ही सभी रिपोर्टर अपने अखबारों को पोस्टआफिस से फैक्स के माध्यम से खबरें भेजते थे।
इसके लिए पोस्टआफिस पर रिपोर्टर्स की लाइन लगती थी। 32 रुपये शुल्क था एक पेज भेजने का। जब तक मेरे आफिस में संसाधन उपलब्ध नहीं थे, मैंने भी कई बार खबरें फैक्स से चंडीगढ़ भेजी थीं।
कंप्यूटर और मॉडम की मदद से रात की खबरें भी सुबह के अखबार में दिखने लगीं। हमने विभिन्न संस्थाओं, संगठनों और समूहों के पदाधिकारियों से उनके कार्यालयों और घरों पर जाकर मुलाकात की। अपने दफ्तर का फोन नंबर दिया।
मंडी सांस्कृतिक गतिविधियों का शहर है और हमने सबसे ज्यादा फोकस किया सांस्कृतिक गतिविधियों पर। वहां होने वाले नाट्य मंचन को फोटो के साथ कवरेज किया। एक निजी स्कूल के हिन्दी के शिक्षक हमारे दफ्तर में आकर नाट्यमंचन की कवरेज लिखते थे। फोटोग्राफर शहर का ही एक युवा था, जिसकी प्रति फोटो के हिसाब से भुगतान किया जाता था।
हमने डिग्री कालेज के युवाओं में पैठ बनाई। उनके संगठनों की खबरों का विस्तार से फोटो के साथ प्रकाशित किया। वो हमारे अखबार के फैन हो गए।
शहर में होने वाली किसी भी गतिविधि की सूचना हमारे पास होती। कुछ युवा तो सूचना देने के लिए हमारे दफ्तर में पहुंच जाते। राजनीतिक दलों की गतिविधियां हमारे यहां विस्तार से प्रकाशित होतीं।
हमने शहर में धार्मिक स्थलों के महत्व का विस्तार से वर्णन किया। मंडी शहर की प्रतिभाओं का परिचय कराने के लिए रोजाना एक खबर प्रकाशित होती।
शहर के किसी भी इलाके में कोई भी समस्या की सूचना होती तो टेबल रिपोर्टिंग करने की बजाय मौके पर जाकर कवरेज करते। इससे समस्या को विस्तार से लिखते और वहां के लोगों तक अपने अखबार का नाम पहुंचाने का मौका मिलता। मौका मिलते ही आसपास के गांवों की ओर रुख करते। वहां की समस्याएं लिखते।
धीरे-धीरे हर गांव और दफ्तर तक हमारी पहुंच थी। हमने अस्पताल की डेली कवरेज पर ध्यान दिया। वहां की समस्याएं लिखीं और समाधान पर भी बात कही। हर उस दफ्तर तक अपनी पहुंच बनाई, जो जन सुविधाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। हम धीरे-धीरे एक पेज की ओर बढ़ने लगे। लोकसभा चुनाव में अपनी समझ से बेहतर कवरेज की।
मुझे नहीं पता था कि मंडी जैसे महत्वपूर्ण शहर में, जहां दफ्तर से लेकर प्रतिष्ठा को स्थापित कराने में हमसे दिन रात मेहनत कराई जा रही थी, उससे कुछ ही दिन में नाता तुड़वा दिया जाएगा। वहां तो किसी और को स्थापित कराने की बात हो रही है।
अक्तूबर 1999 में, करीब 20 दिन के अवकाश पर अपनी शादी के लिए देहरादून पहुंचा। शादी समारोह के कुछ दिन बाद मैंने आफिस आने के लिए चंडीगढ़ में फोन किया तो जवाब मिला, सीधे धर्मशाला पहुंचना। तुम्हें मंडी से ट्रांसफर कर दिया गया है।
एक बार के लिए मैं सन्न रह गया। मैं एक सवाल लगातार पूछता रहा, जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। मेरा सवाल था कि करीब छह माह में ही मुझे एक शहर से दूसरे और दूरस्थ शहर में क्यों पटक दिया गया।
जवाब मुझे मालूम है, मैं कुछ लोगों की निगाहों में चढ़ा था। मुझ पर इन लोगों से तेज आवाज में बात करने का आरोप था। मैंने अपने क्षेत्र में इनके अतिक्रमण का जमकर विरोध किया था। राजधानी में मिलने वाली सरकारी विज्ञप्तियों पर खबरें लिखने से पहले जिले में भी जान लो, वहां क्या हुआ है। सरकारी विभागों की विज्ञप्तियों के सामने अपने रिपोर्टर को झूठा क्यों ठहराते हो। ठीक है अखबार के बड़े दफ्तर में बैठे हो, तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम जो लिखोगे, वही सही है।
होता क्या था कि बड़े दफ्तरों में बैठे कुछ वरिष्ठ अपने आसपास से ज्यादा दूसरे जिलों और शहरों में दखल करते थे। अगर उनको वहां किसी गतिविधि की सूचना मिलती थी, तो साथी और सहयोगी होने के नाते संबंधित को बता देना चाहिए। पर ये लोग सूचना नहीं देते थे, उसको कवरेज करके यह जताने की कोशिश करते थे कि दूसरे कुछ नहीं कर रहे।
ऐसा पहले बहुत होता था, अब मैं समझता हूं कि इस प्रैक्टिस में बहुत कमी आ गई होगी। अगर, संबंधित जगह से भी खबर आती थीं, तो उसमें पूरे फैक्ट नहीं होने या कंटेन्ट सही नहीं होने की बात करके अपनी बात सबसे ऊपर रखते थे। अगर कोई खबर छूट जाए तो सीधा आरोप संबंधित जिला के रिपोर्टर पर मढ़ देते थे। ऐसा अक्सर होता था।
एक और खास बात यह कि मुझे जिन शख्स के ग्रुप में शामिल होना बताया जाता था, उनसे इन वरिष्ठ परिक्रमाधारी की नहीं बनती थी। इन परिक्रमाधारी ने खुद का एक आर्बिट स्थापित किया हुआ था। उनका यह आर्बिट इतना बड़ा था कि उसमें इनसे वरिष्ठ भी चक्कर लगा रहे थे। बस फिर क्या था, इशारा होते ही मुझे वहां से हटाकर धर्मशाला फेंक दिया गया, जहां आफिस भी नहीं था।
मैंने मंडी में अपना एकाउंट बंद कराया, जिसमें 42 सौ रुपये थे, जिसमें कुछ दिन पहले ही तनख्वाह के 35 सौ रुपये भी शामिल थे। सामान पैक किया और भरे मन से सीधा धर्मशाला रवाना हो गया। मेरे पास फोल्डिंग, एक छोटा टीवी और बिस्तरबंद व अटैची थे।
वो तो अच्छा था कि एक रिपोर्टर ने एक जीप से लगभग 130 किमी. दूर धर्मशाला तक भेजने का प्रबंध करा दिया था। वहां भी रात को पहुंचा और पहले से तैनात एक रिपोर्टर, जिनको मेरे से पहले सोलन से धर्मशाला तैनात कर दिया था, के आवास पर जा धमका। उन्होंने ही मुझे अपने पास बुलाया था।
मेरी हालात उन लोगों की तरह कर दी गई थी, जिनके पास न तो पैसा होता है और न ही कोई ठिकाना। पर्यटन स्थल धर्मशाला, कांगड़ा जिला का मुख्यालय है। यह मंडी से काफी महंगा शहर है। यहां 3500 रुपये का मतलब है, एक रुपया भी नहीं बचेगा। मैंने उसी रात तय कर लिया कि अब सीधा घर ही जाऊंगा। इस शहर में मंडी जितना सस्ता कमरा नहीं मिलेगा।
किसी के घर पर एक या दो दिन से ज्यादा नहीं रहा जा सकता। वैसे भी इनके साथ मैं नहीं रह सकता। मेरी लाइफ स्टाइल कुछ अलग है और इनकी अलग। वो मेरे वरिष्ठ थे और मुझसे स्नेह रखते थे, पर उस रात उनके व्यवहार में अचानक आए बदलाव ने मुझे रुला दिया। मेरे प्रति उनका गुस्सा भी, केवल इसी वजह से था कि मुझ पर उनके विरोधी के गुट में होने का आरोप था। और भी बहुत सारी बातें हुईं, जो नहीं बता सकता। उनके प्रति अब भी मेरे दिल में बहुत सम्मान है, पता नहीं उस समय उनको क्या हो गया था।
लगभग दो दिन से भूखा था। सुबह उठते ही सीधा धर्मशाला बस स्टैंड पर जाकर देहरादून या हरिद्वार की बस का समय पूछा। वहां से फोन पर घर बात की, पापा ने कहा- तुरंत वापस चला आ। कोई जरूरत नहीं है नौकरी की।
संस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी, जिन पर बहुत विश्वास था, ने तो साफ ही पल्ला झाड़ लिया, नौकरी तो करनी होगी। ये कौन सी नौकरी थी, जिसमें एक युवा रिपोर्टर को चैन से बैठने तक नहीं दिया जा रहा। न ही कोई सुविधा। एक शहर से दूसरे शहर में जाने का आदेश ऐसे सुना दिया, जैसे कि सामान उठाने वाली टीम और गाड़ी भेज रहे हैं। तनख्वाह के नाम पर मजबूरी से खिलवाड़।
दोपहर तक लोडर में सामान लादकर, सीधा बस स्टैंड पर। वो शख्स और एक उनका साथी, भी साथ हो लिए। मैंने कहा, देहरादून जा रहा हूं, अब वापस नहीं आऊंगा। उन्होंने लोडर वाले से सीधा मैक्लॉडगंज चलने को कहा। मुझे बताया कि मैकलॉडगंज से सीधी बस मिलेगी चंडीगढ़ के लिए। जल्दी पहुंचा देगी।
पहले चंडीगढ़ चलते हैं, वहां से देहरादून चले जाएंगे। देर रात चंडीगढ़ पहुंचे और सामान लादकर एक वरिष्ठ के घर पर ही डेरा डाल दिया। दूसरे दिन दोपहर में देहरादून पहुंच गया और पापा से लिपटकर जबर्दस्त रोय़ा।
अभी के लिए इतना ही। इस बात को विस्तार से बताऊंगा कि एक बार फिर धर्मशाला पहुंचा और वहां से किराये के लिए पैसे मांगकर किसी तरह देहरादून पहुंचा और फिर हिमाचल में पत्रकारिता को अलविदा कह दिया। अगर मैं परिक्रमाधारी के आर्बिट में चक्कर लगाता तो सच मानिए, हिमाचल प्रदेश से वर्षों बाद अपनी इच्छा से ही लौटता। कल फिर मिलते हैं…..।

ई बुक के लिए इस विज्ञापन पर क्लिक करें

Rajesh Pandey

उत्तराखंड के देहरादून जिला अंतर्गत डोईवाला नगर पालिका का रहने वाला हूं। 1996 से पत्रकारिता का छात्र हूं। हर दिन कुछ नया सीखने की कोशिश आज भी जारी है। लगभग 20 साल हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। बच्चों सहित हर आयु वर्ग के लिए सौ से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। स्कूलों एवं संस्थाओं के माध्यम से बच्चों के बीच जाकर उनको कहानियां सुनाने का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। रुद्रप्रयाग के खड़पतियाखाल स्थित मानव भारती संस्था की पहल सामुदायिक रेडियो ‘रेडियो केदार’ के लिए काम करने के दौरान पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। सामुदायिक जुड़ाव के लिए गांवों में जाकर लोगों से संवाद करना, विभिन्न मुद्दों पर उनको जागरूक करना, कुछ अपनी कहना और बहुत सारी बातें उनकी सुनना अच्छा लगता है। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम के स्वच्छता का संदेश देने की पहल की। छह माह ढालवाला, जिला टिहरी गढ़वाल स्थित रेडियो ऋषिकेश में सेवाएं प्रदान कीं। बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी संपर्क कर सकते हैं: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला जिला- देहरादून, उत्तराखंड-248140 राजेश पांडेय Email: rajeshpandeydw@gmail.com Phone: +91 9760097344

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker