“अगर वो पेड़ न काटा गया होता, तो कमरा गर्म न होता”
अगर बूंद-बूंद करके घड़ा भरता है तो पेड़ दर पेड़ बचाकर भी पर्यावरण को बचाने में सहयोग दिया जा सकता
- हरीश भट्ट
- सामाजिक चिंतक एवं वरिष्ठ रचनाकार
जून की उमस भरी दोपहरी में मानसून का इंतजार। ईंट गारे से चीनी गई दीवारों के बीच कुर्सी पर बैठकर आंगन में लगे एक अदद जामुन के पेड़ को याद करना। काश वह पेड़ न काटा गया होता, तो कमरा गर्म न होता। जामुन खाने को मिलते वो अलग।
उस पेड़ को काटने की वजह सिर्फ एक ही थी, उससे झड़ने वाले पत्तों से होने वाली गंदगी। बस सब कुछ साफ-सुथरा सा दिखे, इसलिए उस फलदार व छायादार पेड़ को काट दिया गया, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी की तर्ज पर न रहेगा पेड़ न रहेगी गंदगी और न ही हल्ला-गुल्ला।
हल्ला-गुल्ला इसलिए कि गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों का जामुन के पेड़ के इर्द-गिर्द ही रहना कि कब जामुन गिरे और हम खाएं। न गिरे तो उनको तोड़ने की जुगत लगाना, उसके लिए कभी लंगड़ बनाना तो कभी लंबे डंडे में कील फंसा कर जामुन से लदी डाल तक पहुुंचने की कोशिश में चिल्लाना।
इस बीच पड़ोस में गांव से किसी मेहमान का आना और उसका ये कहना कि पेड़ पर चढ़कर ही जामुन तोड़ दें क्या, तो समझो जन्नत ही मिल गई। फिर क्या आनन-फानन में जामुन का ढेर लग जाना, फिर किसकी गर्मी किसकी परवाह। बस कटोरियों में जामुन और बच्चों का हल्ला।
जब तक पेड़ रहा, तब तक बच्चों में गर्मियों में अलसुबह उठने की आदत बनी रही। इसका कारण था कि रात में गिरने वाले जामुनों को समेटने की ललक. जो सबसे पहले उठता था वो दिन अपने इकट्ठे किए जामुनों को दिखा-दिखाकर दिन भर बच्चों को चिढ़ाया करता था। इन सबसे अलग पेड़ की छांव में लूडो, सांप-सीढ़ी या कैरम खेलने में जो मजा आता था, वो अब कमरे में पंखे के नीचे बैठकर कम्प्यूटर गेम खेलने या मोबाइल चलाने में कहां है।
पेड़ काटकर हमने अपना घर-आंगन तो साफ-सुथरा कर लिया, लेकिन मन को अशांत करने के साथ ही वायु को भी दूषित कर दिया। वनडे स्टाइल में शुद्ध हवा-पानी के लिए पहाड़ों की सैर से क्या फायदा. लेकिन बिगड़ते पर्यावरण के चलते मानसून के आने की टाइमिंग भी गडबड़ा सी गई है. ऐसे में सिर्फ विद्युत कटौती होने से बस पेड़ का ही सहारा था, लेकिन वो भी नहीं है।
एक पेड़ जब मन को इतना सुकून दे सकता है, खाने को फल, गर्मी से राहत और शुद्ध वायु तो हरे-भरे पेड़ों से पटा जंगल इंसानों को कितनी राहत दे सकता है, लेकिन हर कोई अपना फायदा ही देखता है। इंसान ने जंगल काट दिए अपने फायदे के लिए तो प्रकृति ने कहर बरपा दिया अपने विस्तार के लिए।
जब इंसानी इच्छाओं पर रोक नहीं लगाई जा सकती तो नदियों के बहाव को कैसे रोका जा सकता है? परिणामस्वरूप, जब नदियां अपने रौद्र रूप में आती हैं तो गांव-गांव के बह जाते हैं उसके बहाव में। शहर के शहर डूब जाते हैं उसकी गहराई में। अंधाधुंध विकास की दौड़ में नदियों पर बांध बनाना, पहाड़ों में सुरंगों का निर्माण, जंगलों में स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट को मूर्त रूप देना, हाईटेक होने के लिए मोबाइल टॉवर्स के जरिए हवा में रेडिएशन फैलाना मानव जीवन को कहां ले जाएगा?
इन सवालों का जवाब तो आने वाले समय में ही मिलेगा, लेकिन फिलहाल बदलता और प्रदूषित होता पर्यावरण आज इतना भयानक रूप ले चुका है कि आए दिन दुनियाभर से भूकंप, बाढ़, तूफान की खबरें आती रहती हैं, जिसमें लाखोें करोड़ों की क्षति के साथ हजारों इंसान मौत की नींद सो जाते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? इसके लिए अपने गिरेबां में झांककर देखने की जरूरत है कि जब पेड़ ही नहीं होंगे तो पानी, वर्षा और वायु प्रदूषण का खतरनाक खामियाजा इंसान को ही चुकाना होगा।
आज महानगरों में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा तक मयस्सर नहीं है, शहर की सड़कों पर बेतरतीब ढंग से दौड़ते वाहनों से निकलता काला धुआं इंसानी जिंदगी को काला ही करता जा रहा है। कंक्रीट के जंगलों के लिए पेड़ों को काटकर हाउसिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी और हाईवे के चौड़ीकरण के लिए पेड़ों को कटान के चलते पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है।
साथ ही, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदियों पर बांध बनाने के लिए पहाड़ों को काटना. हमने विकास के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन प्राणवायु देने वाले पेड़ों को बचाने के लिए सेमिनार और जागरूकता अभियानों से आगे कुछ नहीं। सिर्फ एक दिन सेमिनार करने भर से पर्यावरण को शुद्ध नहीं किया जा सकता है। इसके लिए ईमानदारी से धरातल पर काम करने की आवश्यकता है। सेमिनार, जागरूकता अभियान अपनी जगह सही हो सकते हैं, पर इससे भी ज्यादा जरूरी है अपने घर-आंगन में लगे पेड़-पौधों को कटने से बचाना। अगर बूंद-बूंद करके घड़ा भरता है तो पेड़ दर पेड़ बचाकर भी पर्यावरण को बचाने में सहयोग दिया जा सकता है।