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ग्राम यात्राः देहरादून का एक ऐसा गांव जहां खेत नहीं दिखते

राजेश पांडेय। देहरादून

जामनखाल गांव, वर्तमान में यहां एक घर में ही लोग रहते हैं। गांव के दूसरे हिस्से मेंं घर खाली हो गए हैं। पता ही नहीं चलता कि यहां कभी खेती भी होती होगी, क्योंकि खेत बताए जा रही जगह पर किसी जंगल जैसे झाड़ झंकाड़ का कब्जा हो गया है। यह पूरा इलाका, झाड़ियों के हवाले हो गया है। देहरादून से जामनखाल पहुंचने से पहले आपको अखंडवाली भिलंग जाना होगा।

अखंडवाली भिलंग मार्ग पर शानदार नजारे

अखंडवाली भिलंग ग्राम पंचायत में आने वाला जामनखाल गांव लगभग पूर्ण पलायन के करीब है। देहरादून से अखंडवाली भिलंग तक की यात्रा वाया रायपुर से सौडा सरोली तक और फिर वहां से अखंडवाली भिलंग तक नौ किमी. की दूरी तय करनी होगी। यह सफर बेहद शानदार प्राकृतिक नजारों को पेश करेगा।

पर्वतीय मार्ग है, कहीं सड़क ठीक है और कई स्थानों पर कच्चा मार्ग है। जैसे जैसे ऊंचाई पर बढ़ते जाएंगे, देहरादून शहर की तस्वीर साफ होती जाएगी। घाटी में सौंग नदी दिखती है, जो टिहरी गढ़वाल से आ रही है और डोईवाला होते हुए गंगा में मिलती है।

देहरादून जिले के पर्वतीय गांव अखंडवाली भिलंग से देहरादून शहर का आकर्षक नजारा। फोटो- सार्थक पांडेय

सौंग नदी के किनारे बसी आबादी दिखती है, घाटी में खेतों के बीच बने रंग बिरंगे मकान दिखते हैं। हमारे टीम में ट्रैवल फोटोग्राफर सार्थक पांडेय ने कई दृश्यों को क्लिक किया। यात्रा रोमांच से भरपूर है, हमें कई जगहों पर संभलकर चलने और बहुत ध्यान देने की आवश्यकता है। देहरादून शहर से 25 से 30 किमी. की यह यात्रा शानदार है।

जामनखाल गांव का चढ़ाई वाला रास्ता 

अखंडवाली भिलंग गांव से करीब एक किमी. आगे चलकर दाईं ओर जामनखाल गांव के लिए बहुत कम चौड़ा रास्ता दिखता है। बताते हैं, इस पर दोपहिया चलता है, पर यह कैसे चलता होगा, मेरी समझ से परे है। मुझे तो यह पगडंडीनुमा रास्ता सिर्फ पैदल चलने के लिए ही सुरक्षित लगता है। हम ग्राम यात्री मोहित उनियाल के साथ बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे। पलेड निवासी ग्राम यात्री आनंद मनवाल हमें अपने साथ ले गए थे।

जैसे-जैसे हम ऊंचाई पर चलते गए, हमारी सांसें, खासकर मेरी तेज होने लगीं। पर कुछ देर में ही, यह रास्ता लुभाने लगा। आनंद हमें शॉर्टकट रास्ते से ले जा रहे थे। शॉर्टकट रास्ता थोड़ा चढ़ाई वाला था। यही कोई आधा से पौने किमी. की दूरी चलने पर हमें गांव नजर आ गया। आनंद ने हमें इसी रास्ते से सौंग नदी पार सामने दिखते पहाड़ पर आनंद चौक दिखाया। करीब दो साल पहले आनंद चौक से होते हुए मैं मरोड़ा गांव तक गया था। यह मालदेवता से चंबा के रास्ते पर स्थित बेहद सुंदर कस्बा है।

इस तरह पड़ा जामनखाल नाम

आखिरकार हम पहुंच गए जामनखाल गांव। खेतों के पास एक मकान, जिसमें परिवार रहता है। हमें यहां पता चला कि जामनखाल में जामुन के पेड़ बहुत थे। गांव और आसपास के जंगलों में जामुन के पेड़ों की अधिक संख्या होने की वजह से इस गांव का नाम जामुनखाल पड़ा होगा, जो बाद में जामनखाल कहलाया। ऐसा अनुमान लगाया जाता है। हालांकि हमें यह पुष्ट तौर पर नहीं पता चला कि गांव का नाम जामनखाल क्यों पड़ा।

घर खाली हैं, खेत दिखाई नहीं देते

आनंद मनवाल ने हमें गांव के दूसरे हिस्से में चलने को कहा। हमने पूछा, दूसरा हिस्सा, वो कहां हैं। उन्होंने बताया, यहां से लगभग आधा किमी. आगे, उस हिस्से में घर खाली हो गए। सभी लोग अपने मकान छोड़कर देहरादून के आसपास बस गए। यहां खेतीबाड़ी सबकुछ छोड़ दिया।

देहरादून जिले के जामनखाल गांव के दूसरे हिस्से से पलायन हो गया। फोटो- सार्थक पांडेय

हम आगे बढ़े, प्राकृतिक नजारे पहले से भी शानदार हैं। आनंद मनवाल ने रास्ते में मालू के पेड़ से पत्ते तोड़े, जिनका उपयोग पत्तल बनाने में किया जाता है। पहले शादी व अन्य कार्यक्रमों में भोजन मालू के पत्तों से बने पत्तलों पर ही परोसा जाता था। अब भी कई जगह भोजन पत्तलों पर ही परोसा जाता है, खासकर भंडारों में।

हमने पूछा, शायद आप इन पत्तों को घर ले जाएंगे। उन्होंने बताया, मैं घर से तुरड़ बनाकर लाया हूं। तुरड़ कंदमूल है, जिसकी बेल होती है और फल जमीन के अंदर लगता है। तुरड़ का कंद बड़ा होता है। यह जंगली कंदमूल है, पर स्वादिष्ट होता है। मुझे तो यह अरबी जैसे स्वाद वाला लगता है। पर, जंगल में उगने वाला हर कंदमूल तुरड़ नहीं है, यह जान लेना जरूरी है।

आनंद की बात सुनकर मेरी भूख पहले से ज्यादा बढ़ गई। हम तो घर से हल्का फुल्का नाश्ता करके चलते हैं,क्योंकि पहाड़ की पैदल यात्रा में मेरे से पेट भरके नहीं चला जाता। वैसे भी समय लगभग एक से ज्यादा हो गया था।

पलायन तो मजबूरी में होता हैः आनंद मनवाल

हम गांव के दूसरे हिस्से में पहुंच गए, जहां मकान तो हैं, पर लोग नहीं मिले। आसपास उगी झाड़ झंकाड़ वाली दूर तक फैली जगह को आनंद ने खेत बताया। वो बताते हैं, यहां वर्षों से खेती नहीं हुई। लोग यहां से चले गए। यह जो सड़क आप देख रहे हैं, पहले वो भी नहीं थी। लंबी दूरी पैदल ही थी। बच्चे प्राइमरी की कक्षाओं के लिए यहां से लगभग दो से तीन किमी. दूर पलेड जाते थे। न तो स्थानीय उपज की मार्केटिंग हो पाती, न ही उत्पाद को परिवहन करने की सुविधा थी। न तो शिक्षा की कोई कारगर व्यवस्था थी और न ही रोजगार की। संसाधन नहीं थे। फसलों पर जंगली जानवरों का हमला, ऐसे में लोगों को यहां से जाना ही था। अपना घर कौन छोड़ना चाहता है, मजबूरी थी, इसलिए पलायन हो गया। आप सोचिए, किसी घर में कोई समारोह है, सामान लेकर आना है। क्या इतनी खड़ी चढ़ाई चढ़कर कोई व्यक्ति अकेले सामान ला सकता है। यहां पूरा गांव सामान लाने में मदद करता था। सभी एक दूसरे को सहयोग करते थे।

देहरादून के रायपुर ब्लॉक स्थित जामनखाल गांव के रास्ते पर ग्रामयात्री आनंद मनवाल, मोहित उनियाल के साथ। फोटो- सार्थक पांडेय

विधानसभा में क्यों नहीं होती इन मुद्दों पर बातः मोहित उनियाल

हमें थोड़ा आगे एक और जर्जर भवन दिखाई दिया। हम वहां पहुंचे तो भवन के आंगन में झाड़ियां थी, शायद पहले यहां क्यारियां होंगी। वहां नल का स्टैंड भी लगा था, जो झाड़ झंकाड़ में नहीं दिख रहा था। कमरों पर ताले लटके थे। दोमंजिला मकान की छत ऐसी कि इस पर चढ़ते हुए डर लग रहा था।

पलायन से खाली हो चुके जामनखाल गांव के दूसरे हिस्से में घर के सामने झाड़ियों में लगा नल स्टैंड।

मोहित उनियाल कहते हैं, यह उत्तराखंड की राजधानी के पास का गांव है। विधानसभा में पहाड़ के इन मुद्दों पर बात होनी चाहिए। पॉलिसी मेकर्स को इन चिंताओं का समाधान तलाशना चाहिए। पर दुखद यह है कि वर्षों से पहाड़ के गांवों के खाली होने का सिलसिला जारी है, पर कुछ खास समाधान होता नहीं दिखता। उन्हें लगता है कि सरकार इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन एवं रोजगार के संसाधन विकसित करे, तो लोग वापस जरूर लौटेंगे।

खाली घर की छत पर मालू के पत्तों पर तुरड़ का स्वाद

हमने इस जर्जर मकान की छत पर सुरक्षित जगह पर बैठकर मनवाल जी के घर से आए तुरड़ को मालू के पत्तों पर रखकर खाया। मसालेदार तुरड़ खाना एक शानदार अनुभव रहा। हम वापस लौटे तो रास्ता दूसरा था। इस बार हम ढलान पर थे। हम खेतों के बीच से खुद के कपड़ों को कंटीली झाड़ियों से बचाते हुए नीचे उतर रहे थे। हमें खेती की इस दुर्दशा पर दुख हो रहा था। कुछ हिस्सा वन क्षेत्र से भी होकर आगे बढ़े। हम सड़क पर पहुंच गए थे, एक ऐसे गांव की यादों को लेकर, जहां खेत ही नहीं दिखते।

देहरादून जिला स्थित जामनखाल गांव का खाली घर।

पलेड से होते हुए इन गांवों तक जाता रास्ता

आगे का रास्ता आपको पलेड गांव, जो कि मुझे इस इलाके का सबसे ऊंचाई पर स्थित गांव दिखता है, से भी आगे लड़वाकोट, हल्द्वाड़ी तक ले जाता है। पर, रास्ते के नाम पर फोर व्हीकल के लिए कच्चा मार्ग ही है, जो कई जगह से अच्छा नहीं है। लड़वाकोट से करीब तीन से चार किमी. पहले दाएं हाथ पर धारकोट, हल्द्वाड़ी के लिए रास्ता कट जाता है। पर, देखने में नहीं लगता कि शुरू से ही ऊंचाई पर ले जाने वाले इस रास्ते पर फोरव्हीकल से भी जा सकते हैं। आपको बता दें कि यह जोखिम वाला मार्ग है, इस पर कोई कुशल ड्राइवर ही गाड़ी ले जा सकते हैं। हमारी राय है कि जरा सा भी संदेह है तो इस मार्ग पर गाड़ी मत चलाना।

अखंडवाली भिलंग ग्राम पंचायत की आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार)

Village Akhandwali Bhilang
Area of Village (hectares) 348.78
Number of Households 93
Total Population 527
Male Population 285
Female Population 242
Population (Age 0-6) 85
Male (Age 0-6) 47
Female (Age 0-6) 38

 

Rajesh Pandey

मैं राजेश पांडेय, उत्तराखंड के डोईवाला, देहरादून का निवासी और 1996 से पत्रकारिता का हिस्सा। अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान जैसे प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों में 20 वर्षों तक रिपोर्टिंग और एडिटिंग का अनुभव। बच्चों और हर आयु वर्ग के लिए 100 से अधिक कहानियां और कविताएं लिखीं। स्कूलों और संस्थाओं में बच्चों को कहानियां सुनाना और उनसे संवाद करना मेरा जुनून। रुद्रप्रयाग के ‘रेडियो केदार’ के साथ पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाईं और सामुदायिक जागरूकता के लिए काम किया। रेडियो ऋषिकेश के शुरुआती दौर में लगभग छह माह सेवाएं दीं। ऋषिकेश में महिला कीर्तन मंडलियों के माध्यम से स्वच्छता का संदेश दिया। बाकी जिंदगी को जी खोलकर जीना चाहता हूं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता: बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक, एलएलबी संपर्क: प्रेमनगर बाजार, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड-248140 ईमेल: rajeshpandeydw@gmail.com फोन: +91 9760097344

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