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कबीले में चुनाव-19: सत्ता और सियासत का सदियों से हमराह है षड्यंत्र

खरगोश फुंकनी यंत्र के साथ मैदान में पहुंचा और हिरन को देखते हुए बोला, बालक महाराज की नींद टूट गई और बड़े महाराज को घेरने के लिए बिछाए जा रहे जाल का एक कोना कसकर पकड़कर खड़े हो गए।
वो बोले, बड़े महाराज ने मुझे पराजित कराने, मेरी सियासत को खत्म करने के लिए षड्यंत्र रचा था। कबीले की प्रजा की समझ में नहीं आ रहा है कि बालक महाराज अभी तक कहां थे। उनकी नींद तो कुंभकर्ण को भी माफ कर गई।  पूरे दस वर्ष लगा दिए उन्होंने यह पता लगाने में कि उनके विरुद्ध षड्यंत्र हुआ था।
हिरन ने पूछा, ये बालक महाराज कौन हैं।

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खरगोश ने कहा, मुझे नहीं पता कौन। मुझे तो केवल इनका शोर सुनाई दे रहा है। वैसे तो इनका कबीले की सियासत में इतना बड़ा रुतबा नहीं है,जितना ये जताने का प्रयास कर रहे हैं। मुझे तो लगता है कि नींद में सोया बच्चा अचानक उठते ही मां को पुकारता है, उसी तरह ये भी कुछ पाने के लिए शोर मचा रहे हैं। अब चुनाव से पहले कोई क्या चाहेगा, तुम तो अच्छी तरह जानते हो।
खरगोश ने कहा, सभी सवालों के जवाब जानने के लिए वटवृक्ष के पास चलना होगा। वो ही बताएंगे, अपने फुंकनी यंत्र का मौन टूटा है या नहीं, पता नहीं।
दोनों वट वृक्ष के पास पहुंचे और बोले प्रभु, बताओ ये बालक महाराज कौन हैं और सियासत में षड्यंत्र का क्या महत्व है।

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वटवृक्ष ने कहा, बालक महाराज पहले बड़े महाराज की धोती पकड़कर ही कबीले में सियासत करने आए थे। यहां इन्होंने जो भी कुछ सीखा बड़े महाराज से ही। आप तो जानते ही हो, बड़े महाराज अति महत्वाकांक्षी हैं। ऐसे में उनके शिष्य भी वैसे ही होंगे। इन दोनों में सिर्फ और सिर्फ सियासी ज्ञान और परिश्रमी होने का अंतर है। बड़े महाराज के पास सियासत को अपने पक्ष में करने, प्रजा को रिझाने का अनुभव है। वो मजमा लगाने के लिए तरह-तरह के खेल जानते हैं। पर, बालक महाराज के पास ऐसा कोई गुण नहीं है। वो सियासत को तोहफा समझते हैं, जो अपने करीबियों से मिल जाता है।
वैसे सच तो यह है कि बड़े महाराज ने अपने पथ में फूलों की बजाय बबूल ज्यादा बोए हैं। अब ये उनके रास्ते में बाधा खड़ी कर रहे हैं। कहते हैं कि जब बीज बोया बबूल का तो आम कहां से होय।
वटवृक्ष बोला, सियासी लोग किसी को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग नहीं करते, वो तो सिर्फ और सिर्फ अपने पीछे-पीछे चलने वालों की संख्या बढ़ाते हैं। मेरा मतलब है कि बीज बोते समय केवल इसी बात को ध्यान में रखा जाता है कि बाद में, इसके फलों का उपभोग कैसे किया जाए। पर, अक्सर देखा गया है कि सियासत में बोए बीजों से फल वाले पेड़ नहीं उगते, कांटे वाले बबूल जरूर पैदा हो जाते हैं।

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यहां बबूल का मतलब, पीछे चलने की बजाय आगे दौड़ने वालों से है। कोई भी सियासी व्यक्तित्व नहीं चाहता कि एक समय उनकी धोती पकड़कर चलने वाला अंगूठा दिखाने के काबिल हो जाए।
सियासत तो वो नशा है, जो उम्र दर उम्र बढ़ता जाता है। मैं तो कई बड़े-बड़ों को देख रहा हूं, वो अति महत्वकांक्षाओं के सामने युवाओं को भी पीछे धकेलने से परहेज नहीं कर रहे।
पर, इनकी सियासत के केंद्र में युवा ही होते हैं। ये युवाओं को केवल इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनको अपने से आगे बढ़ता हुआ देखना नहीं। बड़े महाराज भी इसी तरह की सियासत के इर्द गिर्द रहते हैं। क्योंकि, जब ये युवा थे, तब इनको भी किसी न किसी ने पीछे धकेला था।

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पीछे धकेलने या पीछे खींचने की सियासी विधा में जो थोड़ा सा भी ताकतवर था, वो आगे बढ़ गया और कमजोर पीछे रह गए। इस खींचातानी में षड्यंत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। षड्यंत्र का सियासत व सत्ता से सैकड़ों-हजारों वर्षों पुराना रिश्ता रहा है।
वटवृक्ष हवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं, यह बताओ षड्यंत्र का कोई बड़ा उदाहरण है तुम्हारे पास।

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हवा ने कहा, महाभारत कालीन लाक्षागृह। कौरवों का साथ देने का नाटक कर रहे शकुनि की चाल थी कि पांडवों को रात्रि विश्राम के लिए महल में रुकवाए और फिर उस महल में आग लगाकर उनको मार दे। दुर्योधन ने इस महल की मरम्मत के नाम पर पांडवों को जलाकर भस्म करने के सभी प्रयोजन कराए। वो तो समय रहते पता चल गया और पांडवों के प्राण बच गए।
शकुनि की चाल इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि शकुनि हस्तिनापुर से प्रतिशोध लेना चाहता था, क्योंकि उसकी बहन गांधारी का विवाह दृष्टिहीन धृतराष्ट्र से कर दिया गया। इसलिए उसने दुर्योधन की बुद्धि फेर दी और उससे वो सभी काम कराए, जिससे हस्तिनापुर का विनाश हो जाए।
मेरे कहने का अर्थ है, यहां लाक्षागृह की तरह हर दीवार में षड्यंत्र छिपा रहता है। मैं तो कहता हूं जब सियासत में षड्यंत्र रचा बसा है, तो फिर यहां यह कहना कि उनके षड्यंत्र ने मेरा नुकसान कर दिया, स्वयं को कमजोर बताना है। षड्यंत्र शब्द प्रयोग करने का तात्पर्य स्वयं को सियासत के लायक नहीं समझना। स्वयं को सियासी होने से इनकार करना है।
खरगोश ने पूछा, षड्यंत्र से कैसे बचा जाए।
वटवृक्ष ने कहा, सियासत में षड्यंत्र की काट के लिए एक नया षड्यंत्र किया जाता है। यह षड्यंत्र उनके सहारे रचा जाता है, जो प्रतिशोध चाहते हैं, पर किसी सहारे से।
कुल मिलाकर यह समझ लीजिए, सियासत में दुश्मन का दुश्मन, दोस्त होता है। इसलिए षड्यंत्र के लिए उन सियासी लोगों का उपयोग होता है, जिनके हित जुड़े हों, जो अतिमहत्वाकांक्षी हों, या जिनको या तो आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला हो या फिर उनको आगे बढ़ते हुए पीछे धकेला गया है। ये लोग आसानी से तैयार हो जाते हैं।
बड़े महाराज के विरोधियों की संख्या अपने ही गुट में ही बहुत है। विरोधी उनके सामने नहीं आते, पर वो सियासी हमलों के लिए कंधों की तलाश में रहते हैं। ये कंधे उन्हीं सियासी विरोधियों के होते है, जो प्रतिशोध चाहते हैं।
अब बालक महाराज को ही देखिएगा, वो कहते हैं कि उनको बड़े महाराज ने आगे नहीं बढ़ने दिया। उनको पराजित कराने के लिए काम किया। पर, वो ये बातें कहने में उन्होंने वर्षों लगा दिए। अब कबीले के चुनाव से पहले वो ऐसा क्यों कह रहे हैं। ऐसा करके बड़े महाराज के चुनावी अभियान पर निशाना साधने का प्रयास किया जा रहा है। उनके बारे में यह प्रचारित किया जा रहा है, बड़े महाराज ने अपने ही साथियों को नुकसान पहुंचाया है। सभी जानते हैं कि एक समय में बालक महाराज की गति बड़े महाराज के गुरुत्वाकर्षण पर निर्भर करती थी।
वटवृक्ष ने अब मुझे कुछ देर के लिए विश्राम चाहिए, क्या हम कल मिल सकते हैं।
खरगोश और हिरन ने उनका आभार व्यक्त करते हुए हम चलते हैं। कल पुनः आपसे सियासत के बारे में कुछ नया जानेंगे। यह कहकर खरगोश और हिरन अपने ठिकानों की राह चल दिए।
* यह काल्पनिक कहानी है। इसका किसी से कोई संबंध नहीं है।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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