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एक अस्पतालः फरेब के वेंटीलेटर पर

मैं उस गरीब जनता की नब्ज हूं, जिसको टटोले बिना किसी की दाल नहीं गलती। मुझे हर बार मुद्दा बनाकर फिर से कष्टों के भंवर में गोते लगाने के लिए छोड़ते रहे हो तुम। गरीबों की मुझसे इलाज की दरकार है और हर बार बदलती सरकारों से मेरी भी कुछ यही इच्छा है। मैं लोगों का इलाज करते करते खुद झूठे दावों और वादों के संक्रमण का शिकार हो रहा हूं। तुम तो हर बार मेरे इलाज का राग अलापते रहे हो और जब तुम पर मेरी जिम्मेदारी का बोझ पड़ा तो मुझे परायों के हवाले करने का फरमान सुना दिया। यह कहां का न्याय है। यह मेरे साथ ही नहीं बल्कि मेरे अपने उन हजारों लोगों के साथ भी छल है, जो सिर्फ और सिर्फ मुझ पर निर्भर होने का दम भरते रहे हैं। चाहे रात हो या दिन, बेखटक मेरे दर पर आकर अपनी सुनाते रहे हैं। हां इतना जरूर है कि मेरे पास उनके लिए कोई संसाधन रहा तो मैंने दे दिया, जब तुम और तुम्हारे जैसे लोग मेरी झोली नहीं भरेंगे तो मैं उनको क्या दे पाऊंगा, जो मुझमें अपने दर्द की दवा तलाशने गाहे बगाहे चले आते हैं।

वर्षों से झूठ के वेंटीलेटर पर पड़ा रहने की वजह से पैदा हुआ संक्रमण मेरी जान ही ले लेगा। अब मुझे पता लग गया है कि तुम मुझे झूठी तसल्ली के वेंटीलेटर पर जिंदा क्यों रखना चाहते थे। तुम चाहते थे कि मैं मरूं भी नहीं और ठीक भी न हो सकूं। क्योंकि तुम मुझे उन लोगों के हवाले करने का बहाना जो प्लान कर रहे थे, जिनको मेरे जैसों की ही तलाश रहती है, चाहे वो कोई संस्था हो या इंसान। सरकार  तुमसे एक सवाल है, क्या मेरा संक्रमण दूर करने के लिए तुम्हारी सारी गुंजाइशें खत्म हो गई हैं। क्या तुम्हारी इतनी भी हैसियत नहीं है कि तुम मेरा इलाज कर सको।

सरकार क्या तुमने कभी गौर किया है, ये मुझे अपनाने के लिए इतने बेताब क्यों हैं। क्या वाकई ये  जरूरतमंदों की सेवा करना चाहते हैं। अगर इनमें इतना ही सेवाभाव है तो उन लोगों तक अपनी पहुंच क्यों नहीं बनाते, जहां तुमको भी इनकी जरूरत है। ये पहाड़ के उन दुरुह इलाकों की सैर और सेवा का मौका क्यों नहीं मांगते, जहां अभी भी जिंदगी इलाज की राह तलाश रही है। आखिर मैं ही क्यों इनके राडार पर हूं। मुझे इसकी भी वजह मालूम है। मेरे अपने लोगों ने इनके पास जाना जो बंद कर दिया, इसलिए ये मुझे अपना बेस बनाना चाहते हैं। मैंने यह भी सुना और कभीकभार देखा भी है कि अपनी और अपनों की पीड़ा से दुखी लोगों को दवा के साथ स्नेह और अच्छे व्यवहार की भी उम्मीद रहती है, लेकिन इनसे मेरे अधिकतर अपनों को अच्छे व्यवहार की उम्मीद कम ही दिखती है।

दोस्तों, मैं तुमसे माफी मांगता हूं कि मैं वर्षों पुराना होकर भी तुम्हारे लिए वो सब कुछ नहीं कर पाया, जिसकी मेरे जैसी संस्था से उम्मीद की जाती है। हर बार मुझको यह अहसास होता रहा कि अब मेरे दिन बदल जाएंगे। मेरे दिन बदलेंगे तो मैं अपने दर पर आने वाले हर किसी का दर्द दूर कर दूंगा। हर बार मुझे सरकार से उम्मीद होती थी, क्योंकि सरकार और उसकी कमान संभालने वाले को मेरे अपने लोग चुनते रहे हैं। पर मुझे क्या मालूम था कि मैं हर बार उसी तरह झूठा साबित हो जाऊंगा, जैसा सियासत करने वालों के वादे और दावे होते हैं। ये मेरी दशा सुधारते तो मैं भी स्वस्थ होता और मुझे इलाज के लिए किसी दूसरे के हवाले करने का फैसला नहीं होता।

मैं जानता हूं कि वर्षों से बनी बनाई मेरी पहचान अब कुछ दिन की ही है। मेरे ऊपर किसी और का ठप्पा लगने वाला है और मेरे अपने सब पराये होने वाले हैं। बड़ा दर्द हो रहा है, अपनों से बिछुड़कर किसी और के पास जाने में। चलिये देखते क्या होता है। मेरे साथ जो भी कुछ हो, पर हर उस दुखी को दर्द की दवा मिल जाए, जो बहुत आस के साथ मेरे जैसे के पास आता है। अपना ख्याल रखना दोस्तों…

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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