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“पत्रकारिता पॉलिटिशियन्स के हाथों का खिलौना बन रही”

जेब में पैसा है तो मोटी फीस भरकर आप पत्रकारिता पढ़ने के पात्र हैंः दिनेश जुयाल

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल (Senior Journalist Dinesh Juyal) पत्रकारिता के आज और कल पर बेबाक राय रखते हैं। उनका कहना है, पत्रकारिता अब पॉलिटिशयन्स के हिसाब से चल रही है। देश की मीडिया चंद घरानों की पकड़ में है। पत्रकारिता के इन हालातों के बीच न्यू मीडिया यानी छोटे-छोटे प्लेटफॉर्म एक उम्मीद बनकर आगे आ रहे हैं।

लगभग 45 साल से पत्रकारिता कर रहे दिनेश जुयाल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में प्रमुख मीडिया संस्थानों में बतौर वरिष्ठ संपादक सेवाएं प्रदान कर चुके हैं। पत्रकारिता के जाने माने चेहरे दिनेश जुयाल से पत्रकारिता के आज-कल पर विस्तार से बात हुई। प्रस्तुत हैं, उनसे बातचीत के प्रमुख अंश का पहला भाग-

लंबा समय गुजर गया यही कोई 40-45 साल, पत्रकारितों को कई पीढ़ियों में देखा है। जितने बदलाव पत्रकारिता में आए हैं, शायद कहीं आए हों। पहले, पत्रकारिता में चयन सामाजिक सरोकारों को देखकर होता था। उनमें कितनी समझ है और कुछ spark है या नहीं, यह देखा जाता था। पहले बहुत कम लोग पत्रकारिता में आते थे।

अब हजारों बच्चे, देहरादून शहर में ही पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं। यहां बहुत सारे कॉलेज और यूनिवर्सिटी हैं, जहां पत्रकारिता के पाठ्यक्रम चल रहे हैं। पर, बच्चों को पत्रकारिता के लिए, जिस सोच विचार से तैयार किया जाना चाहिए, वो काम नहीं हो रहा है। बच्चों में सपने जगाए जा रहे हैं, पर इस तरफ ध्यान नहीं है कि इतने बच्चे आखिर कहां जाएंगे, क्योंकि मीडिया में space कम होता जा रहा है।

टेलीविजन देखकर बच्चों में पत्रकारिता का ग्लैमर बढ़ रहा है। उनमें फिल्म मेकिंग का सपना जगाया जा रहा है, वो फिल्म मेकर बनना चाह रहे हैं। सच यह है कि उनके लिए पत्रकारिता में जगह कहां है। या तो पब्लिक रिलेशन (पीआर) में या फिर एडवर्टाइजिंग में जाएंगे, यानी हम उन्हें कुछ और बना रहे हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में प्रवेश के इच्छुक बच्चों के चयन का कोई criteria नहीं है। जेब में पैसा है तो मोटी फीस भरकर आप पत्रकारिता पढ़ने के पात्र हैं। बच्चे में पत्रकारिता को लेकर कोई उत्साह और कुछ करने की चाह हो या न हो, एडमिशन मिल जाएगा। एजुकेशन बिजनेस मॉडल पर है और पत्रकारिता के छात्र भी इसी पैटर्न में आ रहे हैं।

दुखद स्थिति यह है कि पढ़ाने वाले भी सिर्फ औपचारिकता पूरी कर रहे हैं। यह बिल्कुल भी सही नहीं हो रहा है। हमें अच्छे पत्रकार चाहिए तो गुरुकुल भी अच्छे बनाने होंगे। इन गुरुकुल का बेहतर सिस्टम होना चाहिए, जिनसे अच्छे पत्रकार निकलें। पर, यदि आपको अच्छे पत्रकार मिल जाएं, तो वो जाएंगे कहां। आज पत्रकारिता का हाल आप देख रहे हैं, जिस दौर में पत्रकारिता है, वहां अच्छे पत्रकारों के लिए जगह नहीं है। अब तो आपको पीआर पर्सन चाहिए। क्लाइंट को संतुष्ट रखने वाले पत्रकारों की फौज तैयार की जा रही है। अब सरकारें मीडिया को जकड़ें बैठी हैं। सरकार मीडिया से अपना बढ़िया कराना चाहती हैं।

राजनीतिक दलों का 24 घंटे एक ही एजेंडा है, चुनाव किस तरह जीता जाए। चुनाव जीतने के लिए वो न्यूज क्रिएट (news create) कर रहे हैं। पत्रकारिता अब खासकर, पॉलिटिशियन्स के हिसाब से चल रही है। राजनीति करने वाले अधिकतर लोगों का इतिहास सबको पता है। वो क्या चाहते हैं, यह सभी जानते हैं। जब पत्रकारिता पॉलिटिक्स के हाथों का खिलौना बन जाएगी तो हाल समझा जा सकता है।

समय की जरूरत के अनुसार पत्रकार बनना चाहिए। आज से 40 साल पहले पत्रकार क्यों बनना चाहिए , इसकी एक अलग व्याख्या थी, आज संदर्भ बदल गए।

मीडिया की नॉरमेटिव्स थ्योरीज ( Normative theories) में एक थ्योरी है, डेमोक्रेटिक पार्टिशिपेंट थ्योरी (Democratic-participant Theory), जिसमें Denis McQuail ने एक कल्पना की है, उन्होंने Authoritarian theory से लेकर छह स्टेप्स बताए हैं। छठां स्टेप यानी फ्यूचर ऑफ जर्नलिज्म (future of journalism), मीडिया पर तमाम तरह के दबाव हैं, जो एडवर्टाइजर है, वो मीडिया को अपने हिसाब से चलाना चाह रहे हैं, पॉलिटिशयन, जो पावर में हैं, वो अपने हिसाब से मीडिया को चलाना चाह रहा है। ऐसे में भविष्य की पत्रकारिता में people participation हो।

हिन्दुस्तान कुछ चंद घराने मीडिया को चला रहे हैं। मीडिया इन चंद घरानों की पकड़ में है। ये घराने किनकी पकड़ में है, यह देखने की बात है। कुल मिलाकर पत्रकारिता सत्ता कें इस समय धनार्जन, अर्थ केंद्रित पत्रकारिता का दौर चल रहा है।

फ्यूचर में छोटे-छोटे प्लेटफार्म तैयार करने होंगे। अब छोटे छोटे ब्लागर्स अपना इम्पैक्ट छोड़ रहे हैं। सॉफ्ट से लेकर हार्ड न्यूज तक के लिए प्लेटफार्म तैयार हो रहे हैं। इनका प्रभाव क्षेत्र बढ़ रहा है। अब जर्नलिस्ट को इस तरह बनना चाहिए।

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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