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93 साल के बुजुर्ग लोक कलाकार अमीचंद भारती जी की गौरव गाथा

क्या आपको कभी श्री रामलीला मंचन देखने का अवसर मिला है। क्या आप कभी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं, जिनके हर डायलॉग का स्वागत तालियों की गूंज से होता हो। क्या उस शख्सियत से मुलाकात की है, जिन्होंने अपना जीवन केवल इस उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया कि हर परिवार में भगवान श्रीराम के आदर्श पर चलने वाले लोग हों।

इस स्टोरी को यहां क्लिक करके ऑडियो में सुन सकते हैं

हमें तो उन बुजुर्ग व्यक्तित्व से बातचीत करने का अवसर मिला, जिन्होंने श्री रामलीला मंचन में स्क्रिप्ट लिखने औऱ अभिनय में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 12 वर्ष की उम्र से लेकर शुरू हआ यह सफर आज 93 वर्ष की आयु तक पूरे उत्साह के साथ जारी है। इस वीडियो में आप ग्राम बड़ासी, देहरादून के निवासी मास्टर अमीचंद भारती जी से ही सुनिएगा उनका स्वर्णिम सफर…।

बड़ासी गांव में अपने आवास पर एक मुलाकात में बुजुर्ग लोक कलाकार मास्टर अमी चंद भारती जी बताते हैं, जब मैं 12 वर्ष का था, तब बड़ासी के स्कूल की हर शनिवार को होने वाली बालसभा में कहानियां सुनाने के लिए कहा जाता था। मैं भजन गाता था। मेरी बहुत तारीफ होती थी। मुझे रामलीला में अभिनय के लिए बुलाया जाने लगा।

उस समय मैं छठीं क्लास में पढ़ता था। मुझे बड़ोवाला की रामलीला के लिए बुलावा आ गया। मास्टर रोशन लाल जी ने मुझे सिखाया। तब से यह सफर शुरू हुआ और चलता ही रहा। देहरादून जिला ही नहीं नैनीताल के रामनगर, हरिद्वार, ज्वालापुर और उत्तरकाशी के बड़कोट में श्री हनुमान, लक्ष्मण, भरत, अंगद, राजा दशरथ, राजा जनक को मंच पर जीने का अवसर मिला।

एक दिन रानीपोखरी गांव में एक बुजुर्ग की सलाह पर मैं रावण की भूमिका निभाने को तैयार हो गया। मुझे रावण की भूमिका निभाने में बड़ा आनंद आया।

बताते हैं कि पिछले कुछ वर्ष से ग्राम बड़ासी में रामलीला शुरू हो गई। पिछले साल कोविड-19 के कारण रामलीला नहीं हुई। रानीपोखरी, डोईवाला सहित कई स्थानों पर रामलीला का आयोजन नहीं हो रहा है। इसकी वजह टीवी पर रामायण का प्रसारण होना रहा है।

उनका कहना है कि गांव-गांव, शहर-शहर होने वाली श्रीरामलीला को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते थे। रामलीला देखकर बच्चों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था। महिलाएं रामलीला को बहुत पसंद करती हैं। अब भी मुझसे लोग बात करते हुए कहते हैं कि वो जमाना बहुत अच्छा था। गांवों में आज भी लोग रामलीला मंचन देखना चाहते हैं। हम अपने गांव में तो रामलीला का मंचन कर रहे हैं।

हमने रामलीला के लिए पूरी स्क्रिप्ट लिखी है। जब भी मैं इस स्क्रिप्ट को देखता हूं, पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। बहुत अच्छा लगता है।

वो चाहते हैं घर-घर में प्रभु श्रीराम के आदर्शों और मार्गदर्शन पर चलने वाले लोग हों। बच्चों को भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और महापुरुषों के बारे में बताना चाहिए। बच्चों को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए नाट्य मंचन सशक्त माध्यम हैं। पहले संसाधन नहीं होने के बाद भी लोग सामुदायिक रूप से श्री रामलीला, श्रीकृष्ण लीला के आयोजन में सहयोग प्रदान करते थे।

आपको बता दूं कि शिक्षक मित्र जगदीश ग्रामीण जी ने बड़ासी गांव में मास्टर अमीचंद भारती जी से हमारी मुलाकात कराई। जगदीश जी ने आकाशवाणी के लिए पूर्व में उनका साक्षात्कार लिया था। जगदीश जी ग्रामीण अंचल के विकास के लिए लगातार प्रयासरत हैं। उनके पास गांवों के बारे में बहुत सारी जानकारियां हैं, जिनको काव्य औऱ कहानियों के माध्यम से साझा करते रहे हैं।

आपने हमें अपनी पुस्तक आंख्यों मा आंसू की प्रति भेंट की। इस पुस्तक में वो लिखते हैं- विरह के बाद मिलन और आंसू के बाद मुस्कान का सुख निराला ही होता है। ग्रामीण जी ने अपनी लेखनी से उत्तराखंड राज्य के कई मुद्दों पर बात की है।

हां, तो मैं बात कर रहा था श्रीराम लीला के आयोजनों की। मुझे अच्छी तरह याद हैं, डोईवाला के ब्लाक दफ्तर और चीनी मिल कॉलोनी के मैदान में श्री रामलीला के हर वर्ष होने वाले भव्य आयोजन। मैंने तो रामलीला देखने के लिए रात को अपने घर से कुड़कावाला गांव तक की दौड़ लगाई थी।

कुछ दिन पहले जब मुझे मास्टर अमीचंद भारती के बारे में जानकारी मिली तो उनसे मुलाकात का मन बना लिया। मौका मिला और जगदीश जी, योग गुरु प्रशांत शर्मा जी, हर यात्रा की कैमरों से कवरेज करने वाले सक्षम पांडेय औऱ सार्थक पांडेय के साथ पहुंच गया बड़ासी गांव।

बड़ासी गांव पहुंचा तो बचपन में लौट गया। मेरा मन किया कि यहीं का होकर रह जाऊं। पहले तो घने वनों के बीच घुमावदार रास्तों ने लुभाया औऱ फिर इस गांव की स्वच्छ हवा और शांत वातावरण ने। अगर कुछ सुनाई दे रहा था तो चिड़ियों की चहचहाट, जो शोर नहीं संगीत सा आनंद देती है।

जब आप देहरादून से रायपुर होते हुए थानो गांव की ओर जाते हैं तो एक नदी के पुल से पहले बायें हाथ पर ग्राम बड़ासी का बोर्ड दिख जाएगा। यहां से करीब दो से ढाई किमी. की दूरी तय करने पर, आप बड़ासी गांव पहुंच जाएंगे। बड़ासी का राजकीय इंटर कालेज सड़क से ही सटा है।

सड़क ठीक है, आसानी से पहुंच सकते हैं। पर, इस गांव में जाने से पहले यह जरूर सोच लीजिएगा कि वहां प्रकृति के किसी भी सौगात को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। प्लास्टिक या पॉलीथीन कचरा ले जाने की तो सोचिएगा भी नहीं।

आपसे एक बार फिर मुलाकात करेंगे, किसी और सफर पर… तब तक के लिए बहुत सारी शुभकामनाएं…।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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