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यूएस छोड़कर लौटे इंजीनियर ने गोवंश बचाने के लिए गांवों को रोजगार से जोड़ दिया

राजेश पांडेय। न्यूज लाइव

दिल्ली विश्वविद्यालय से 2006 में कंप्यूटर साइंस में बीटेक डिग्रीधारक सुनील रावत इन्फोसिस में बतौर इंजीनियर सेवाएं दे रहे थे। लगभग तीन साल अमेरिका में सेवाओं के बाद, भारत लौट आए। दिल्ली में पले बड़े करीब 35 साल के सुनील बताते हैं, वो बचपन से खेतीबाड़ी को पसंद करते थे, उनके पिता भी कृषि क्षेत्र में सरकारी सेवा में थे। देहरादून के जौलीग्रांट में उनका फार्म था, इसलिए यहीं आर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ाने का निर्णय लिया।

आर्गेनिक फार्मिंग शुरू करने से पहले सवाल उठा कि खाद के लिए गोबर कहां से आएगा। गोबर के लिए गाय की आवश्यकता है, पर सुनील ने देखा कि गायों की दुर्दशा हो रही है। बताते हैं, “उन्होंने गायों को कचरे के ढेर पर प्लास्टिक खाते हुए देखा। गायों की परवरिश को लेकर बहुत सारी चुनौतियां देखने को मिलीं। गायों को केवल दूध के लिए पाला जा रहा है। दूध नहीं मिलने पर इनको सड़कों पर छोड़ा जा रहा है। बछड़ों, बैलों को सड़कों पर इसलिए छोड़ दिया गया, क्योंकि वो दूध नहीं देते। दूध देने के समय ही गायों की केयर होती है, बाकि समय उनका कोई ध्यान नहीं।”

सुनील रावत। फोटो- राजेश पांडेय

सुनील सवाल उठाते हैं, “क्या किसी ने इस वजह पर ध्यान दिया है कि किसान गोवंश को सड़कों पर क्यों छोड़ रहे हैं। हमारा मानना है, कोई भी किसान पशुओं को सड़कों पर नहीं छोड़ना चाहता। आखिर वो क्या वजह है, जिस वजह से यह सब देखने को मिल रहा है। वजह है, पशुओं की देखभाल, उनके आहार का खर्चा बढ़ गया है। पर, यह सब इसलिए है, क्योंकि हमने आर्थिकी की केवल गायों के दूध पर ही फोकस किया है, जबकि गोबर से बनने वाले उत्पादों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।”

बताते हैं, “उन्होंने आर्गेनिक फार्मिंग के सबसे जरूरी तत्व गोबर को केवल खाद बनाने का जरिया ही नहीं समझा, बल्कि इससे वो उत्पाद बनाने शुरू किए, जो आजीविका का बड़ा स्रोत हो सकते हैं। इसके लिए रेस्क्यू मां (Rescue Ma) ट्रस्ट के माध्यम से गोबर के उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग से गांवों में आजीविका के संसाधन बढ़ाने पर ध्यान दिया।”

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“छह साल में लगभग 50 से अधिक ट्रेनिंग के माध्यम से कई गांवों की लगभग एक हजार महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया। महिलाएं गोबर से दीये, धूपबत्ती, उपले, गोबर की लकड़ियां, वर्मी कम्पोस्ट बना रही हैं। महिलाओं से ये उत्पाद खरीदते हैं, अपने ब्रांड Rescue Ma के अंतर्गत इन उत्पादों को बाजार तक पहुंचाते हैं। उनके ब्रांड का पिछले साल 10 से 12 लाख तक टर्नओवर था। साथ ही, ग्रामीणों को घर बैठे रोजगार भी मिला। वो चाहते हैं, ज्यादा से ज्यादा लोग ट्रेनिंग लेकर गोबर से बने उत्पादों को तैयार करें। गोबर से रोजगार के अवसर मिलेंगे तो गोवंश बच जाएगा और उसकी दुर्दशा नहीं होगी।”

मशीन के माध्यम से गोबर से गो काष्ट बनाते हुए सुनील रावत। फोटो- राजेश पांडेय

स्थानीय श्रमिक की मदद से मशीन से गोकाष्ट बना रहे सुनील रावत बताते हैं, “गोबर की लकड़ियां बनाना बहुत आसान काम है। गोबर को मशीन में डालना है और दूसरी तरफ से गो काष्ट तैयार। इसको कुछ दिन धूप में सुखाओ और ईंधन के रूप में इस्तेमाल करो। इसको अंतिम संस्कार में भी प्रयोग किया जा सकता है।”

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“अंतिम संस्कार में चार से पांच कुंतल लकड़ी इस्तेमाल होती है। यह मान लीजिए, एक मध्यम श्रेणी के पेड़ के समान लकड़ी। यदि हम इसमें पांच फीसदी भी गोबर से बनी लकड़ियां इस्तेमाल करें तो लकड़ी की खपत कम हो जाएगी, जिससे पेड़ भी नहीं काटने पड़ेंगे। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे हम गोवंश को ही सुरक्षित करेंगे। गोबर से बने उत्पाद किसान को आर्थिक तरक्की देंगे, तो वो गायों, बैलों और उनके बछड़ों को पहले से ज्यादा खुश होकर पालेंगे,” सुनील रावत बताते हैं।

उनका कहना है, “हम चाहते हैं, गोबर से बने उत्पादों को बड़े शहरों में ले जाएं, ज्यादा से ज्यादा लोगों को किसानों के सामने पेश आने वाले चुनौतियों के बारे में बताएं, जिससे शहरी क्षेत्रों की आबादी ग्रामीण इलाकों की मदद कर सके। अभी स्थानीय स्तर पर देहरादून, ऋषिकेश में इन उत्पादों की मार्केटिंग की जा रही है, हम दिल्ली, नोएडा जैसे बड़े शहरों में भी इनको लेकर जाएंगे।”

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“उनकी एक और संस्था वेलफेयर वन (welfare One) के माध्यम से बीमार, दुर्घटनाओं में घायल गोवंश की चिकित्सा की जाती है। इस कार्य के लिए उन्होंने पशुपालन विभाग के तहत डोईवाला व रानीपोखरी के पैरा वैट्स से संपर्क किया है। पशुओं को अपनी गोशाला में रखते हैं, स्वस्थ होने पर कांजी हाउस में भेज देते हैं। साथ ही, पानी के कुंड कई स्थानों पर रखे हैं, जिनकी देखरेख, पानी भरने का काम गोसेवक करते हैं।”

देहरादून जिला के जौलीग्रांट क्षेत्र स्थित रेस्क्यू मां संस्था में गो पालन। फोटो- राजेश पांडेय

“रास्तों में घूमने वाली गायों के अचानक सड़क पर आने से दुर्घटनाएं हो जाती हैं। लोगों के साथ पशुओं को भी गंभीर चोटें आती हैं। रात्रि में सड़कों पर घूमने वाली गायें आसानी से दिख जाएं, इसके लिए हमने लगभग सौ गायों के गले पर रेडियम कॉलर बांधे हैं, जो अंधेरे में चमकते हैं। इस व्यवस्था से हम, काफी हद तक गायों की वजह से होने वालीं सड़क दुर्घटनाओं पर रोक लगा सकते हैं।”

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रेस्क्यू मां के संचालक रावत बताते हैं, “कोई भी किसान, जो गोबर से उत्पाद बनाकर आजीविका चलाना चाहते हैं, हमसे संपर्क कर सकते हैं। हम उनको ट्रेनिंग उपलब्ध कराएंगे। जितना संभव हो सकेगा, संसाधन उपलब्ध कराएंगे। www.welfareone.org और https://www.rescuema.org पर संपर्क किया जा सकता है। किसानों से हम उनके बनाए उत्पाद खरीदते हैं और फिर अपने ब्रांड के तहत मार्केटिंग करते हैं। ”

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आपके अनुसार, एक गाय पर प्रतिदिन कितना खर्च आता है, सवाल पर रावत कहते हैं,  “यह अलग अलग है। छोटे बच्चों, दूध देने वाली गाय या दूध नहीं देने वाली गाय, के आधार पर ही खर्चा बताया जा सकता है। पर, यदि हम दूध देने वाली गाय की बात करें, तो प्रतिदिन का खर्चा लगभग पांच सौ से सात सौ रुपये होता है। क्योंकि दूध देने वाली गाय को पौष्टिक आहार खिलाया जाता है, जो उनके लिए बहुत जरूरी होता है। पर, गाय का दूध बाजार में कम कीमत में बिकने से किसान नुकसान में रहता है। ऐसी स्थिति में हम गोबर पर आधारित उत्पादों को बढ़ावा देना होगा, ताकि पशुपालन नुकसान में न रहे और गोवंश का भी संरक्षण होता रहे।”

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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