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इसकी स्याही मेरी स्याही से गाढ़ी कैसे

बचपन की बातें: ये दाग अच्छे हैं 

इसकी स्याही मेरी स्याही से गाढ़ी कैसे। क्लास में बैठे दोस्त एक दूसरे की स्याही की शीशी देखकर ऐसा सोचते थे। क्लास पांच तक हम कलम से लिखते थे। दो तरह की कलम होती थी, एक हेडिंग के लिए मोटी और बाकी कुछ लिखने के लिए बारीक।

हमारे एक शिक्षक को हमारी कलम और लिखावट का बड़ा ख्याल रहता था। वो कहते थे कि सुंदर लिखावट के भी नंबर मिलते हैं। राइटिंग हमेशा अच्छी और पढ़ने लायक होनी चाहिए। कई बार तो उन्होंने हमारी कलमों को खुद घटा था।

मेरा लिखा हुआ मेरे अध्यापकों की समझ में आ रहा था, इसलिए मैंने उसमें सुधार की ज्यादा कोशिश नहीं की। उन्होंने मेरी कॉपी देखकर कभी यह नहीं पूछा कि यह क्या लिखा है। इसका मतलब यह हुआ कि उनको मेरा लिखा हुआ सबकुछ समझ में आ रहा था। ऐसे में लेख सुधारने की कोशिश करना, मेरे लिए तो समय खराब करना ही था।

वैसे भी बचपन में मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं था। बहुत तरह के आउटडोर खेल थे हमारे पास। बड़े मैदान जो मेरे आसपास दिखते थे, जीभर कर दौड़ने के लिए।

उस समय मेरे घर के पास वाले मैदान में कोई क्रिकेट खेल रहा होता तो कोई पिट्ठू चाल में गेंद से एक के ऊपर एक रखे चपटे पत्थरों पर निशाना लगाते ही दौड़ने की तैयारी में दिखता। यह भी शानदार खेल है, जिसमें गजब की फुर्ती दिखानी होती है।

पहले निशाना लगाकर पत्थरों को गिराओ और फिर खुद को बचाते हुए उनको उसी तरह रखना होता है, जैसे पहले रखे थे। अगर प्रतिद्वंद्वी टीम ने आपकी पीठ पर गेंद मार दी तो समझो बाजी आपके हाथ से गई। पूरा खेल फुर्ती और निशानेबाजी का है।

बच्चों को आकर्षित करतीं रंग बिरंगी गोलियां (कंचे) खेलने वालों की टोलियां अलग दिखतीं। कंचे खेलने वाले भी पक्के निशानेबाज होते। हमने कंचे भी खेले और सिगरेट के कवर भी।

कुछ बच्चे सड़कों पर सिगरेट के खाली पैकेट तलाशते मिल जाते। अलग-अलग ब्रांड के कवर काटकर ताश जैसी गड्डी बना ली जाती। कंचे और सिगरेट के कवर वाले दोनों खेल को अच्छा नहीं माना जाता।

अगर किसी ने कंचे और सिगरेट के कवर खेलते देखकर घर में शिकायत कर दी तो पिटाई तय थी। कंचे तो बच्चे आज भी खेलते हैं, पर दूसरा वाला खेल गायब हो गया। वैसे भी ये खेल अच्छे नहीं हैं।

हां, एक और खेल भूल गया, वो है गुल्ली डंडा। मेरे कुछ साथी बहुत शानदार गुल्लियां बनाते थे। दोनों तरफ से नुकीली। शहतूत के पेड़ की किसी टहनी को काटकर गुल्ली और डंडा दोनों तैयार हो जाते।

पर, यह बहुत खतरनाक खेल है, उन लोगों के लिए भी, जो इसको देखने के लिए आसपास इकट्ठा होते। कई बार मैदान से होकर जा रहे लोग भी गुल्ली लगने से पीड़ित हुए हैं। इस खेल को खेलने वाले अक्सर डांट खाते थे। चकोतरों से फुटबॉल खेलने का शौक भी बड़ा अजीब था। घर में लूडो औरकैरम बोर्ड या फिर बिजनेस गेम खेला जाता था।

क्या बात कर रहा था और कहां पहुंच गया। यही तो बचपन है। बचपन की बातों को बचपन में जाए बिना, नहीं कहा जा सकता।  मेरे पापा ने गर्मियों की छुट्टियों में मुझे बस लिखावट में सुधार के लिए रोजाना दो पेज लिखने के लिए कहा। मैं दो पेज तो लिख देता था, पर खेलने या इधर उधर घूमने की जल्दबाजी में उनको लिखने का उद्देश्य ही भूल जाता था।

ऐसे में कुछ समय बाद सभी ने मुझसे उम्मीद छोड़ दी कि मेरी लिखावट मे कोई सुधार हो सकेगा। इसका नुकसान हुआ, मेरी लिखावट अपने भाई बहनों में सबसे खराब है। मैं हमेशा यही शिकायत करता रह गया कि पेपर में लिखा तो बहुत सारा था, पर नंबर दूसरों से कम कैसे आए।

मैं अपनी लिखावट सुधारने की कोशिश नहीं करता था, पर दूसरों की सुन्दर लिखावट को देखकर मन ही मन सोचता जरूर था कि यह कैसे लिख लेता है इतना सुंदर। अखबार में रिपोर्टिंग के दौरान कई बार तेजी से नोट करना होता था, इससे लिखावट लगातार बिगड़ती गई।

अब तो हालत यह है कि कभी कभी अपना लिखा हुआ भी नहीं पढ़ पाता। वो तो भला हो, कंप्यूटर व मोबाइल का, जिसके सहारे कुछ लिख पा रहे हैं। अब तो इन्हीं के सहारे लिखने की गाड़ी चल रही है।

लिखावट ज्यादा अच्छी नहीं कर सकता, पर स्याही तो चमकीली और गाढ़ी बना सकता हूं। मेरा अपने एक दोस्त से स्याही को लेकर कंपीटिशन था। वो पता नहीं कहां से स्याही रखने के लिए एक से बढ़कर सुंदर कांच की दवात लाता था।

उसने एक दो बार तो मुझे भी बहुत सुंदर दवात दी। बाद में पता चला कि वो दवा की खाली शीशियों की दवात बना लेता था। उसके दादा जी इन शीशियों को खाली कर रहे थे और वो इनको दवात के लिए इस्तेमाल करने में लगा था।

मैं सोचने लगा कि मैं तो दवा की शीशियां कहां से लाऊंगा, मेरे दादा जी तो मेरे साथ नहीं रहते। वो तो गांव में रहते हैं। बालमन था, कुछ भी सोच लेता था।

मैंने उससे यह जानने की कोशिश की, कि उसके पास इतनी गाढ़ी स्याही कहां से आती है। मुझे भी बता देगा तो चमकीली स्याही से गंदी लिखावट का दोष शायद ढंक जाएगा।

उस भले बच्चे ने मुझे बताया कि तुम दो बट्टी में एक कटोरी स्याही बनाने की सोचते हो, जबकि मैं एक छोटी से दवात ही भरता हूं। उस समय नीली और जामुनी स्याही की बट्टियां आती थीं। दवात में आने वाली फाउन्टेन पेन की ब्रांडेड स्याही देखी तो थी, पर पांच पैसे में दो बट्टियां खरीदने वाले हम जैसे बच्चों में उसको खरीदने की हिम्मत नहीं थी। हम तो कलम के लिए पौरे खरीदने से पहले दो बार सोचते थे।

कुछ बार तो फ्री के चक्कर में शहतूत की लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़ों से कलम बनाने का प्रयास किया था, जिसमें सफल नहीं हो सके।

मैंने भी दोस्त से गाढ़ी स्याही बनाने का फार्मूला जाना और अपने घर पर प्रयोग शुरू कर दिए। कुछ दिन में, मैं तो गाढ़ी स्याही का निर्माता बन गया। इस काम में हथेली से लेकर कभी-कभी मुंह पर भी स्याही लग जाती।

कपड़ों पर भी स्याही…पर हमें फिक्र नहीं होती। वो तो मां की डांट पर पता चलता कि कोई गलती कर दी। पर, कुछ सीखने और कुछ अच्छा करने के लिए स्याही के ये दाग मुझे बर्दाश्त थे, क्योंकि ये अच्छे थे।

हां, एक बात और, हमें पेन से केवल रफ वर्क लिखने की अनुमति थी। पांचवीं तक पेंसिल, कलम और वो अंग्रेजी वाली नीब खूब चलाई। हमने कॉपी के पेज भी बहुत फाड़े। जरा सी गलती हुई नहीं कि पेज ही साफ कर दिया। लिखावट सुधारने का प्रयास किया नहीं था, तो वो सुन्दर कैसे हो सकती थी।

अंग्रेजी की कॉपी पर फोल्डर में खास तरह की नीब फंसाकर लिखा जाता था। लकड़ी का बना फोल्ड बहुत सुंदर दिखता था। नीब को स्याही में डुबाओ और फिर अंग्रेजी के लेटर बनाओ। चार लाइन वाली कॉपी पर अंग्रेजी के लेटर बनाना, वो भी मैडम जी के बताए अनुसार, मेरे बस की बात नहीं थी।

लेटर को कहां थिक करना और कहां थिन, यह सब बताया जाता था, पर यह हमारे में कई की समझ से बाहर की बात थीं।

हां, एक बात जो हमने सीखी,वो यह कि कुछ भी लिखने से पहले सोच – समझ लो, क्योंकि कॉपी पर चमकीले अक्षर बनाने के बाद उनको पूरी तरह साफ करने का कोई चांस नहीं मिलता। शब्द, वाक्य या अक्षर की तो बात छोड़ दो, यहां तो मात्रा भी सोचकर लिखनी होती थी।

किसी एक कांट छांट का मतलब, पूरे पेज की सुन्दरता को बिगाड़ना समझा जाता था। मैं अपनी लिखावट को तो नहीं सुधार पाया, पर कॉपी पर ज्यादा कांट छांट से बच गया, क्योंकि मैं लिखने से पहले सोचने लग गया था। धीरे-धीरे यह बातें मेरी आदत बन गईं, जिसने जीवन में काफी काम किया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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