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Video: सौंग नदी पर सूर्य देव, आस्था का मेला और छठ मैया की जय-जयकार

आज बुधवार, तारीख 10 नवंबर, 2021 की दोपहर सौंग नदी के किनारे पूजा पंडालों कीे सजावट जोरों पर थी। मुझे बताया गया कि शाम करीब साढ़े तीन बजे से व्रती महिलाएं भगवान सूर्यदेव को अर्घ्य देने के लिए आना शुरू हो जाएंगी। सभी यहां परिवार के साथ पहुंचेंगे। शाम होते -होते सौंग नदी तट पर हजारों लोग दिखाई देंगे।

पंडालों की सजावट, घरों में पकवान बनाने, सूर्य देव को अर्घ्य देने की तैयारियों, उपवास के महत्व, मेले की तैयारियों की कवरेज के बाद घर पहुंचा।

शाम करीब चार बजे केशवपुरी वापस लौटने के लिए डोईवाला चौक बाजार से ऋषिकेश रोड पर आगे बढ़ा। प्राचीन श्री गोवर्धन मंदिर के ठीक सामने यानी दाहिनी ओर मुख्य मार्ग से केशवपुरी का रास्ता है। करीब डेढ़ सौ मीटर चलकर तिराहे से बाई ओर मुड़ा। अब आप पहुंच जाते हैं केशवपुरी चौक पर।

चौक पर मुझे दोपहर जैसी भीड़ नहीं दिखी। तभी ध्यान आया, सभी छठ पूजा के लिए सौंग नदी पर होंगे। चौक पर टेंट लगाया जा रहा था। पता चला कि यहां रात्रि जागरण है।

डोईवाला बाजार से कई परिवारों को छठ माता की पूजा के लिए जाते देखा। एक दुकान के सामने मोटरसाइकिल खड़ी करके संकरी गली से होते हुए सौंग नदी की ओर चलने लगा।

गली में बच्चे खेल रहे हैं, महिलाएं और पुरुष घरों से पूजा सामग्री एवं सजावट की गईं बड़ी टोकरियों में विभिन्न प्रकार के फल एवं पकवान लेकर नदी की ओर जाते मिले। कुछ लोग ईख (गन्ना) लेकर चल रहे हैं। बच्चे कलश एवं दीये लेकर जा रहे हैं। जो भी जिससे जुट पाता है, छठ मैया के समक्ष अर्पित करता है।

बच्चे, युवा, बुजुर्ग सभी नदी की ओर जा रहे हैं। यहां गली में लाउडस्पीकर पर भोजपुरी गाने बज रहे हैं। गली समाप्त होते ही दिखती है सौंग नदी और छठ पूजा के लिए लगा मेला। नदी तक पहुंचने के लिए थोड़ा चलना पड़ता है।

बड़े-बड़े पत्थर से बचते हुए, रेत, बजरी पर से होते हुए लोग वहां पहुंच रहे हैं। यहां पटाखों की दुकान,  पकौड़े, चाउमीन के स्टॉल लगे हैं। सभी उत्साहित हैं।

सौंग नदी के दोनों किनारों पर दूर-दूर तक दिख रहे हैं पूजा पंडाल और रंगों की विविधता। कितना अद्भुत नजारा है। एक नदी पर आस्था का यह मेला वास्तव में हमें प्रकृति और उसकी रचनाओं के संरक्षण और सम्मान की प्रेरणा देता है।

दूसरे किनारे पर जाने के लिए नदी पार करनी है। रेत से भरे कट्टों, पत्थरों और बड़ी बल्लियों को पुल का आधार बनाया गया है। फट्टियों को रस्सियों से बांधकर बनाए पुल पर लोगों को नदी पार कराई जा रही है। दोनों तरफ भीड़ लगी है। स्वयंसेवक पुल पर ज्यादा लोगों को जाने से रोक रहे हैं। एक बार में उतने ही लोग नदी पार कर रहे हैं, जितनों का भार पुल झेल सके। लोग भी अनुशासन में हैं और स्वयंसेवकों को सहयोग कर रहे हैं।

कई परिवार ढोल और बैंड बाजों के साथ पूजा स्थल पर पहुंच रहे हैं। बहुत अच्छा लग रहा है। पूजा सामग्री एवं फलों से भरी, सजी हुईं टोकरियां सिर पर लेकर चल रहे युवाओं की लंबी लाइन पुल पार कर रही है।

यहां संस्कृति है, यहां आस्था है, यहां श्रद्धा है, यहां धर्म है, यहां प्रकृति है, यहां ईश्वर हैं और उनकी कृतियां और ईश्वर के बनाए बहुत सारे इंसान हैं।

इन सबके साथ, जो मैंने महसूस किया, यहां समानता है। यहां सभी समान हैं और समानभाव से सूर्यदेव के प्रति आभार व्यक्त जताते हुए उनसे सभी के खुशहाल होने के लिए प्रार्थना करते हैं।

महिलाओं और पुरुषों ने सौंग नदी में प्रवेश करके अस्तगामी सूर्य देव से प्रार्थना करते हुए अर्घ्य दिया। महिलाओं के साथ विवाहित पुरुष भी व्रत रखते हैं। उन्होंने भी नदी में खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य दिया। पूरा माहौल आस्थामय है।

सच बताऊं, मैं डोईवाला में जन्म से रह रहा हूं। 47 वर्ष के जीवन में कभी सौंग नदी पर छठ पूजा के दर्शन नहीं किए। आज यहां पहुंचा तो सोच रहा था, मैं यहां हर वर्ष क्यों नहीं आया। सौंग नदी, जो गंगा की सहायक नदी है, पर आस्था के इतने बड़े मेले में पहुंचने से कैसे वंचित रह गया।

यहां आतिशबाजी हो रही है। धीरे-धीरे वहां श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती जा रही थी। लोग अपने-अपने पंडालों में प्रवेश कर रहे हैं। सबकुछ व्यवस्थित है। यहां डीजे पर गीत गूंज रहे हैं और कुछ युवा डांस कर रहे हैं।

नदी अविरल है और समय भी, धीरे-धीरे आस्था का यह मेला लड़ियों एवं बल्बों की रोशनी से जगमगाने लगा। अर्घ्य देकर लोग घरों की ओर लौटने लगे हैं। पुरुष टोकरियों को सिर पर रखकर जा रहे हैं। महिलाएं प्रज्ज्वलित दीये लेकर चल रही हैं। सभी बहुत प्रसन्न हैं। नदी तट छठ मैया की जय जयकार से गूंज रहे हैं।

छठ मैया से सभी की खुशहाली की कामना करते हुए मैं भी वापस लौटने लगा अपने घर की ओर  केशवपुरी की तंग गली से होते हुए।

गलियों में भोजपुरी गीत सुनाई दे रहे हैं। बच्चे दौड़ रहे हैं इधर उधर। चौक पर सज रहा मां भगवती का दरबार। यहां जागरण की तैयारियां हो रही हैं।

मैं यह सोचते हुए बाइक से घर लौट रहा हूं कि त्योहारों की संस्कृति एवं परंपराएं जिंदगी को आगे बढ़ाने और इंसान को जीवंत रखने के लिए बहुत जरूरी हैं। ये जीवन को उल्लास से भरते हैं, ये सद्भाव को बढ़ाते हैं, सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि ये समानता के प्रतीक हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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